डाॅ0 जीवन सिंह हमारे समय के एक सशक्त आलोचक हैं। लोकधर्मिता तथा जनपदीयता उनकी आलोचना के केंद्र बिंदु हैं। उनकी आलोचना में हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा ,शिव कुमार मिश्र आदि लोकधर्मी आलोचकों की परम्परा का विकास दिखाई देता है। उनकी अब तक कविता की लोक प्रकृति , कविता और कवि कर्म तथा शब्द संस्कृति नाम से तीन पुस्तकें आ चुकी हैं।पिछले दिनों 'आकंठ' ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर अपना एक अंक केंद्रित किया है। यहाँ लोक जीवन ,कविता , कविकर्म ,आलोचना ,लोक कलाओं आदि विषयों पर समय-समय पर उनसे हुए संवाद की श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है । प्रस्तुत है इसकी पहली किस्त - महेश चंद्र पुनेठा ।
कपिलेश भोज- श्रेष्ठ अथवा अच्छी कविता की पहचान क्या है? यानी वे कौन से मूलभूत कारक हैं जो कविता को श्रेष्ठ बनाते हैं?
डाॅ0 जीवन सिंह- इसका मतलब है कि आप फिर से ’ कविता क्या है?’ जैसा सवाल उठा रहे हैं। सच तो यह है यह सवाल कविता के हर पाठक ,आलोचक और सहृदय संवेदक के मन में उसी समय उठता है जब वह कविता पढ़ने में मन लगाता है। कवि भी जब काव्य रचना में प्रवृत्त होता है तो यह प्रष्न उठे बिना नहीं रहता । जिनके मन में यह प्रष्न नहीं उठता ,वह नकली कवि होता है। एक समय में , ऐसे नकली कवियों की तादाद कम नहीं होती। छंदविहीन लोकतांत्रिक समय में तो तरह-तरह के कवियों की बाढ़ आ जाती है और कवि -सम्मेलनी कवियों को देखकर तो लगता है कि कविता ,उद्योग हो गई है। कविता के ठेके छूटने लगते हैं। इसी तरह पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले सभी कवि असली नहीं होते । छंदविहीन(मुक्त छंद नहीं) कविता ने तो यह रास्ता और आसान कर दिया है। छंदबद्ध कविता में तुक मिलाने ,मात्राएं गिनने और प्राष जोड़ने में कुछ तो जोर आता था ,अब तो वह अनुषासन भी नहीं रहा। जब कविता को रस,अलंकार ,ध्वनि , वक्रोक्ति ,रीति के पैमाने से नापा जाता था , जब कवि को कुछ तो ध्यान ,अभ्यास , मनन ,चिंतन ,भाषा पर अधिकार का ध्यान रखना पड़ता था । कविता को नौ स्थायी भावों की चैहद्दी में रखते हुए जीवन से उसका रिष्ता जोड़ना पड़ता था । तुलसी ने कहा है ’ कविहि अरथ आखर बल साचा।’ आज तो हालात ये हैं कि न तो अर्थ का बल है न षब्द का । आज के ज्यादातर कवि न तो षब्द-प्रयोग के प्रति सजग हैं , न अर्थ -षोध के प्रति।
फिर भी अच्छी कविता हम किसे कहें ,यह सवाल बार-बार उठता रहता है। हर युग में यह सवाल उठा है। आचार्य रामचंद्र षुक्ल ने इसी सवाल के उत्तर में अपनी सारी आलोचना लिखी है। ’कविता क्या है?’ षीर्षक से भी उन्होंने एक लंबा निबंध लिखा है , जिसके प्रारूपों को वे निरंतर विकसित करते एवं बदलते रहे हैं। उसमें अच्छी कविता के पहचान का एक अच्छा जबाव मौजूद है। लेकिन दुनिया और समय आचार्य रामचंद्र षुक्ल के समय से बहुत आगे आ चुके हैं और बहुत बदल चुके हैं। आचार्य षुक्ल ने अच्छी कविता की पहचान के लिए जो कसौैटी बनायी थी , उसका आधार मध्यकालीन भक्तिकाव्य और खासतौर से तुलसी की काव्यकला थी। तुलसी की कविता से ही उनके ’लोकहृदय’ ’लोकमंगल’ और ’ लोकधर्म’ जैसे कुछ प्रतिमान निकलकर आए थे , किंतु उनके बाद से कविता की संरचना ,ढँाचा व स्वरूप ही बदल गया है। षुक्ल जी ने कहा था कि कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है। यह आज भी अच्छी कविता की पहचान का एक आधार बिंदु हो सकता है। पहले कविता के साथ केवल ’भाव’ की बात की जाती थी। भाव का मतलब होता था- स्थायी भाव ,विभाव,अनुभाव और संचारी भाव। रीतिकालीन कविता का सारा ढाँचा इसी प्रक्रिया से बना है या फिर वे कविता में अलंकरण की प्रवृत्ति को केंद्र में रखते थे। इससे ’ भाव ’ की पूर्ति तो हो जाती थी ,मनुष्य भाव की पूरी तरह नहीं। रीतिकालीन कविता का भाव भी यद्यपि ’मनुष्यभाव’ ही होता था ,किंतु उसके जीवनसंदर्भ इतने सीमित और अभिजातधर्मी होते थे कि वह सिकुड़-सिमट कर रह जाता था। आज की कविता के केंद्र में भी मनुष्यभाव ही है , किंतु वह पुरानी काव्यपरम्परा की तुलना में बहुत विस्तृत एवं व्यापक हुआ है। सच तो यह है कि उसने उन पुरानी भाव-प्राचीरों को ढहा दिया है जो एक खास तरह के मनुष्य के भावों को लेकर चलती थी। कहना न होगा कि छायावादी कविता तक ,यद्यपि भाव अपनी परिधियों को बहुत तेजी से तोड़ रहा था ,तथापि वह रह-रहकर अपनी पुरातनता की ओर जाता था । प्रसाद कृत ’कामायनी’ भाव का अभिजात्य पूरी तरह टूट नहीं पाया था। मनु की पुरानी सभ्यता का पतन हो गया था , किंतु उसका अभिजात्य गौरव उसके मन में बसा हुआ था ,यद्यपि प्रसाद जी ने अपने समय के अनुरूप बहुत-सी सीमाओं को ढहाकर उसको युगानुरूप बनाने की कोषिषें की थी। महादेवी का स्त्रीभाव अपने तरीके से भावविस्तार करने की भूमिका में था। पंत ने प्रकृति और नारी सौंदर्य को केंद्र में रखकर मनुष्यभाव को नया आयाम प्रदान किया था। सच में तो अकेले निराला थे जो भाव की अभिजात्य प्रकृति और संस्कारों से जूझने का बल लेकर आए थे। इसलिए मनुष्य-भाव का जैसा विस्तार और व्यापकता उनके रचना-संसार मंे आ पाए ,वैसा दूसरे कवियों में नहीं । अगली कविता के दिषा-प्रवर्तक वे ही बन पाए। प्रगतिवादी और नयी कविता के आरंभिक सूत्र उनके यहीं से निकलते दिखाई देते हैं। गद्य में जो काम प्रेमचंद ने किया ,कविता में वैसा ही काम निराला ने किया । इसलिए अच्छी कविता के सूत्र हमको वहाॅ मिल सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि प्रसाद , पंत ,महादेवी के यहाँ अच्छी कविता नहीं हैं। दरअसल यह ’अच्छी’ और ’श्रेष्ठ’ षब्द का गड़बड़घोटाला हो सकता है। हम जानते हैं कि इसी ’श्रेष्ठ’ से हमारी भाषा का ’सेठ’ षब्द निकला है। और ’सेठ’ कितना ’अच्छा ’ होता है ,यह भी अब हम अच्छी तरह जानते हैं। एक जमाना था जब राजा-महाराजा , सेठ-साहूकार , रईस , नवाब आदि षब्दों को उनकी अभिजात्य स्थिति से आँका जाता था ,किंतु जबसे इनके षोषक-उत्पीड़क स्वरूप का उद्घाटन हुआ ,तब से इन षब्दों में भी अर्थापकर्ष हो गया है। मुझे यहाँ श्रेष्ठ षब्द में कुछ-कुछ वही ध्वनि सुनाई पड़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि या तो हम ’श्रेष्ठ’ की भी श्रेणियाँ बनाएं।जैसे अंग्रेजी में गुड ,बैटर और बैस्ट । तब तो अच्छी कविता को सही तरह से नापा जा सकेगा। निराला यदि ’बैस्ट’ यानी ’सर्वोत्तम’ की श्रेणी में होंगे तो दूसरे भी बीच में तो रहेंगे। इसी तरह मुक्तिबोध और अज्ञेय की कविता की बात ,जहाँ एक वर्ग अज्ञेय को श्रेष्ठ मानता है तो दूसरा मुक्तिबोध को। यहाँ भी गुड ,बैटर ,बैस्ट होगा तो समस्या का समाधान हो जाएगा। अज्ञेय यदि गुड की श्रेणी में आएंगे तो मुक्तिबोध उनसे बैटर तो होंगे ही। कदाचित् इसीलिए अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि-चिंतक टी0एस0इलियट ने कविता को ’गुड’ और ’ग्रेट’ पोइट्री में रखकर देखा। जहाँ तक ’गुड पोइट्री’ (अच्छी कविता) का सवाल है ,एक युग में बहुत से कवि ’ अच्छी कविता’ लिखते हैं लेकिन ’ गे्रट पोइट्री ’ ( महान कविता ) लिखना बहुत मुष्किल होता है। वह उतनी ही बड़ी निष्काम साधना , तपस्या , त्याग और उदात्त जीवनमूल्यों का भोक्ता ही कर सकता है। राजसी भाव से जीवन-व्यतीत करने वाले लोग भी श्रेष्ठ कलाकर्म और चिंतन का काम कर जाते हैं किंतु महानता के लिए सत्व गुण का सिद्धांत और व्यवहार दोनों स्तरों पर विकास करना पड़ता है। आजादी के पहले लिखी गई कविता में यह काम ’निराला’ ने किया , आजादी के बाद मुक्तिबोध ने । आजादी के बाद का ही ज्यादातर लेखन अज्ञेय का है। वह श्रेष्ठ लेखन की श्रेणी में तो अवष्य आता है लेकिन महान लेखन की श्रेणी में नहीं । इसकी वजह यह है िकवे अपने समय के तीखे और बुनियादी सवालों को नहीं उठाते हैं। अकेले ’व्यक्ति स्वतंत्रता’ के सवाल को उठाते हैं। व्यक्ति की अद्वितीयता को कंेद्र में रखते हैं।यह भी यद्यपि जरूरी है लेकिन मुक्तिबोध व्यक्ति स्वतंत्रता के साथ समता और बंधुत्व के सवालों को भी उठाते हैं। वे बुनियादी तजुर्बों की तह तक जाते हैं ,अज्ञेय ऐसा नहीं कर पाते। दूसरे , मुक्तिबोध ने अपने व्यक्तित्व का निरंतर विस्तार किया ,जबकि अज्ञेय ने स्वयं को एक निष्चित परिधि से बाहर नहीं निकलने दिया। मैं समझता हूँ कि इससे आपकी बात साफ हो गई होगी। फर्क अच्छी कविता और महान कविता का है।
कपिलेश भोज- आपने श्रेष्ठ कविता के जिन गुणों की चर्चा की ,उनके परिप्रेक्ष्य में कुछ चुनिंदा कविताओं का उल्लेख करते हुए उनका विष्लेषण भी कर दें तो इस बात को व्यावहारिक धरातल पर साफ-साफ समझ पाने में और आसानी होगी ।
डाॅ0 जीवन सिंह- वस्तुतः पहले प्रष्न के उत्तर में जो बातें कही गई हैं वे अभी पूर्ण नहीं हुई हैं। उसमें अच्छी और बड़ी कविताओं की बुनियादी बात ही आ पाई है। ’ अच्छी कविता’ में केवल कलात्मकता का सौंदर्य ही उसे अच्छी कविता का दर्जा दिला सकता है। कवि की बिंब योजना अर्थात बिंबों की ताजगी मात्र ही उसे अच्छे कवि की श्रेणी में रख सकती है। हमारे यहाँ श्रेष्ठ कविता का सबसे बड़ा प्रमाण षमषेर की कविता को कहा जा सकता है। प्रगतिवादी दौर की कविता में जिस तरह की प्रचारात्मकता परवान चढ़ गई थी , उस माहौल को षमषेर जैसा प्रगतिषील कवि अपने सौंदर्य नियोजन से बदलता है। उन्होंने हिंदी-कविता को नई भाषा ही नहीं वरन् नई संरचना से भी समृद्ध किया। वाक्यों की जगह ’षब्द’ संरचना को भी केंद्र में रखा । वे सीधी-सपाट रचना के कवि न होकर वर्तुल-संरचना के कवि ज्यादा हैं। बिंबों के अद्भुत स्रष्टा वे रहे हैं ,जिनमें कल्पना का वेग विषिष्टता के स्तर पर न होकर , सामान्यता के स्तर पर होता है। उनकी भाषा में लाक्षणिकता का विलक्षण गुण रहता है किंतु वह छायावादी भाषा की तरह वायवीय नहीं होती । वहाँ होता है सब कुछ सामान्य ,लेकिन प्रयोग में वह अनन्य व्यंजनाधर्मी हो जाता है। श्रेष्ठ कविता के लिए ये बातें जरूरी होती हैं। षमषेर की कविता से एक उदाहरण:
फिर भी क्यों मुझको तुम / अपने बादलों में घेर लेती हो / मैं निगाह बन गया स्वयं/जिसमें तुम आँज गई/अपना सुरमई साँवलापन / तुम छोटा-सा ताल /घिरा फैलाव ,लहर हल्की-सी / जिसके सीने पर ठहर षाम / कुछ अपना देख रही उसके अंदर ।
प्रेम की काव्यात्मक अभिव्यक्ति का यह विरल और अनूठा उदाहरण है। प्रेम-स्मृति का अद्भुत संयोजन यहाँ किया गया है,जहाँ कल्पना की निराधार उड़ान नहीं । इसलिए मैंने कहा कि इस तरह की श्रेष्ठ कविताओं के अनेक उदाहरण षमषेर के यहाँ मिल जाएंगे । लेकिन यहाँ व्यक्ति जीवन का अंतरंग ज्यादा आता है । वह बहिरंग बचा रहता है ,जो हमारे बाहर और भीतर दोनों ही जगहों पर संगर बचाए रहता है। कोषिष षमषेर ने बहिरंग को लाने की भी की ,किंतु अंतरंग की तरह बहिरंग उनसे ज्यादा नहीं सध पाया। अंतरंग और बहिरंग का संतुलन यदि किसी एक कवि में है तो वह हैं मुक्तिबोध । वे अपनी सीमाओं के बावजूद बड़ कवि हैं , क्योंकि जीवन की व्यापकता और विस्तार को बुनियादी तौर पर साधने की कला उनको आती है जो उन्होंने अपने जीवन का सर्वस्व बलिदान करके उन्होंने हासिल की थी। इसलिए वे श्रेष्ठ कवि तो हैं ही हमारे समय के बड़े कवि भी हैं। नागार्जुन ,केदार ,त्रिलोचन भी श्रेष्ठ कवि हैं और अपने तरीके से महत् की परिधियों तक जाने का प्रयास करते हैं। इनमें भी नागार्जुन अपने महत् का जितना विस्तार कर पाते हैं उतना त्रिलोचन , केदार नहीं। दरअसल इन सभी में जो विकलता और बेचैनी मुक्तिबोध के यहाँ है ,यानी आत्मिक और अनात्मिक दोनों स्तरों पर जिस तरह का मजमून वे बाँधते हैं ,वैसा दूसरों से सध नहीं पाता। इनमें जीव-व्याप्ति होने के बावजूद एक तरह की आंतरिक या आत्मिक व्याप्ति की कसर रह जाती है।
केदार ,नागार्जुन ,त्रिलोचन की परम्परा को अपनी-अपनी दिषा में विकसित करने वाले दो कवियों का नामोल्लेख करना यहाँ प्रासंगिक होगा। एक केदारनाथ सिंह ,दूसरे विजेंद्र । दोनों ही त्रिलोचन को अपना कव्य गुरू मानते हैं।केदारनाथ सिंह का हिंदी जनपद भोजपुर है ,जबकि विजेंद्र का ब्रज । इनकी कविताएं श्रेष्ठ कविता की श्रेणी में आती हैं । इनसे श्रेष्ठ कविता के प्रतिमान खोजे जा सकते हैं ,लेकिन इनमें भी महत् का जो विस्तार विजेंद्र के यहाॅ देखने को मिलता है ,वह केदारनाथ सिंह के यहाँ नहीं। इसका कारण है कि विजेंद्र अपनी जमीन को नहीं छोड़ते जबकि केदारनाथ सिंह पष्चिम की हवाओं के फेर में ज्यादा रहते हैं। दूसरे , केदारनाथ सिंह अपने व्यक्ति की परिधि में रहते हैं उसका अतिक्रमण करके सामाजिकता के तीखे प्रष्नों के रू-ब-रू नहीं हो पाते। उनकी तुलना में विजेंद्र दो कदम आगे दिखाई देते हैं। तीसरे , केदारनाथ सिंह कविता में वक्रता का चमत्कार पैदा करते हैं ,जबकि विजेंद्र सहजता के किसानी स्तर को नहीं छोड़ते । विजेंद्र की कविता में देष ,काल ,जीवन संसार और प्रकृति तक जितना विस्तार है , उतना केदारनाथ सिंह की कविता में नहीं।केदार जी अपनी बात को कलात्मक बनाने के फेर में अपने समय के यथार्थ को छोड़ते चलते हैं। इनसे पूर्व रघुवीर सहाय , सर्वेष्वर ,श्रीकांत वर्मा ,धूमिल ,कुँवरनारायण आदि की कविताओं की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर होती रही है लेकिन इनके यहाँ भी श्रेष्ठ कविता के प्रमाण तो हैं ,महत् को व्यक्त करने वाली बड़ी कविता इनके यहाँ भी नहीं है। यह बात अलग है कि जब परिदृष्य में बड़ी कविता न हो तो श्रेष्ठ को ही वरेण्य मान लिया जाता है। इसके बावजूद ,उक्त कवियों की काव्य परिधि न केवल सीमित है वरन् जिंदगी के बुनियादी तजुर्बों से भी दूर है। इनमें भी राजनीतिक काव्य कुषलता की वजह से रघुवीर सहाय को काफी महत्व मिला है ,लेकिन उनकी ,यथार्थ एवं जीवन-सौंदर्य को व्यक्त करने की एक सीमा है। वे मध्यवर्गीय चैहद्दियों में तो बड़े दिख सकते हैं लेकिन इससे आगे उनके यहाँ ज्यादा मसाला नहीं मिलता । चूँकि हिंदी का माहौल ऐसा बना दिया गया है कि यहाँ विचारधारा से तात्पर्य ’ राजनीतिक विचारधारा ’ से ही लिया जाता रहा है। इस वजह से भी रघुवीर सहाय की लोहियावादी समाजवादी विचारधारा को अतिरिक्त महत्व मिलता रहा है। मुक्तिबोध के षब्दों में कहूँ तो इनकी प्रतिमाएँ अधूरी रही हैं और वेदना के स्रोत संगत एवं पूर्ण निष्कर्षों तक पहुँचे हुए नहीं हैं। आधे-अधूरे की विडंबना का कौषल ही यहँा ज्यादा है-वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई/ यह क्यों हुआ!/क्यों यह हुआ !!/ मैं ब्रह्म रासक्ष का सजल-उर षिष्य / होना चाहता /जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य /उसकी वेदना का स्रोत / संगत ,पूर्ण निष्कर्षों तलक /पहुँचा सकूँ।
मुक्तिबोध की खूबी और महत्व इसी बात में है कि वे अधूरे को समग्रता की ओर ले जाते हैं । वे वेदना के स्रोत संगत तरीके से पूर्ण निष्कर्षों तक पहुँचाने का सफल प्रयास करते हैं। उनके यहाँ इसी से एक क्लैसिक ऊँचाई आ गई है । निराला के बाद कदाचित ऐसा मुक्तिबोध के यहाँ संभव हो पाया है। इन कवियों के यहाँ एक खास बात यह है कि इनके स्वयं के जीवन के हषर््ा-विषाद बहुत ईमानदारी और सच्चाई के संग इनकी काव्य-रचना का हिस्सा बनते हैं। इनकी कविता में एक कवि के जीवन का उदात्त बोध हुए बिना नहीं रहता । अन्य कवियों के यहाँ जीवन का विस्तार तो मिलता है ,किंतु स्वयं के जीवन से प्रमाणित वह उच्चताबोध बहुत कम देखने में आती है , जो निराला और मुक्तिबोध में । इनके यहाँ जीवन और कविता का फर्क ही जैसे मिट जाता है। जो जीवन है इनका , वही इनकी कविता है और जो इनकी कविता है वही जीवन है। भावपूर्णता की दृष्टि से देखें तो मुक्तिबोध के यहाँ अद्भुत ,करूण ,रौद्र ,भयानक और वीभत्स का जैसा फैलाव मिलता है ,जिसे दूसरे कवि अपने जीवनानुभवांे में नहीं ला पाते , वैसा कदाचित संपूर्ण आधुनिक कविता में कहीं हो । तुलसी और निराला के बाद जीवन की इतनी आवेगमयी अंतव्र्याप्ति मुक्तिबोध की कविताओं में ही नजर आती है। बड़ी कविता , दरअसल वही होगी जो जीवन के उन दर्रों , कंदराओं , बियाबानों ,बीहड़ों ,निर्जनों और घाटियों तक में प्रविष्ट होने का हौसला रखती है, जहाँ सामान्यतया लोग जाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते । मुक्तिबोध के इंद्रियबोध की विलक्षणता का एक प्रमाण मैं उनकी प्रसिद्ध एवं चर्चित कविता ’चंबल की घाटी’ से दे रहा हँू - अरे ,यह चंबल घाटी है ,जिसमें /पहाड़ों के बियाबान / अजीब उठान और धसान-निचाइयाँ/ पठार व दर्रे/ छोटी-छोटी दूनें / कंटीले कगार और सूखे हुए झरनों की / बहुत-बहुत तंग / और गहरी हैं पथरीली गलियाँ/ गोल-मोल टीले व खंडहर-गढ़ियाॅ ---/ बंदूकें ,कारतूस ,छर्रे!! / कोई मुझको कहता है ---/ ’ षांत रहो ,धीर धरो ,/और ,उल्टे पैर ही निकल जाओ यहाँ से / जमाना खराब है / हवा बदमस्त है / बात साफ-साफ है / सब यहाँ त्रस्त हैं / दर्रों में भयानक चेहरों की गष्त है’। कहना न होगा कि ’भयानक’ और ’भय’ का यह चित्र आज के पहाड़ी जीवन के अनुभव वाले कवियों में भी , इस तरह का षायद कहीं मिले। पहाड़ और पहाड़ी घाटियों ,दर्रों ,उनके उठानों -निचाइयों -धसानों ,पठारों आदि को बहुतों ने देखा है किंतु मुक्तिबोध के यहाँ ये बातेें जिस तरह से आई हैं और इनसे ’ भयानक ’ का भयभीत करने वाला जो चेहरा हमारे सामने आता है ,वह अपने आप में अनूठा तो है ही ,विरल भी है। ’भय’ पर न जाने आज के कितने कवियों ने कविताएं लिखी हैं किंतु अपने परिवेष के साथ यहाँ जो बात आई है ,वह यहीं की बात है । इस बंध में कुल अठारह छोटी-बड़ी लय के प्रवाह में पिरोई हुई पंक्तियाँ हैं। इनमें प्रथम नौ में पहाड़ी संरचना की भयभीत कर देने वाली विकटता का चित्र है। ’ बियाबान’ षब्द मुक्तिबोध का अति प्रिय और उनकी कविता का बीज षब्द है ,जो सामान्यतया सघन जंगल और बीहड़ों के लिए प्रयुक्त होता है। चूँकि पहाड़ों में भी जंगल होते हैं और स्वयं पहाड़ भी बियाबानों की तरह ही होते हैं। इसलिए यहाँ ’ पहाड़ों के बियाबान’ अपनी बिंबात्मक सटीकता का अद्भुत प्रभाव पाठक के मन पर छोड़ता है। यहाँ एक तरह से प्रकृति का निरीक्षणात्मक चित्रण है। इससे आगे की नौ पंक्तियों में उक्त सृजनात्क भयानकता का जब पाठक के मन पर एक प्रभाव अंकित हो जाता है तो मानवीय भयानकता सामने आती है। पहाड़ी भयानकता से ज्यादा मारक है मनुष्यकृत भयानकता । इसी से असली बात निकलकर आती है- जमाना खराब है/ हवा बदमस्त है / बात साफ-साफ है/ सब यहाँ त्रस्त हैं / दर्रों में भयानक चेहरों की गष्त है।
इनकी व्यंजना पर गौर करें तो ये पंक्तियाँ , जो आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व लिखी गई होंगी तो मालूम होगा कि वे आज हमारे समय के सच का बयान ,ज्यादा सटीकता से कर रही हैं। समझने की बात है कि मुक्तिबोध अपने समय की गहराई में कितना उतर गए हैं कि मनुष्य जीवन का एक बड़ा सत्य निकलकर आया है। कितने कवि हैं आज , जो इस तरह अपने समय की अंधी गहराइयों में प्रविष्ट होने की क्षमता रखते हैं । मैंने कहा कि अच्छी कविता तो सतही अनुभवों और षब्द की कला के मेल से संभव हो सकती है लेकिन बड़ी और महान कविता नहीं । संभव हो सकता है कि अच्छी कविता का अभ्यास करते-करते कोई कवि बड़ी कविता की दिषा में प्रस्थान कर जाए। इसी के लिए एक समर्थ कवि को अपना जीवन दाव पर लगाना पड़ता है। दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते , जीवन भी सधा रहे और कविता भी बड़ी हो जाय। जिन्होंने जीवन साधा है , उनकी कविता कभी बड़ी नहीं हो पाई।
एक एक शब्द पूरी एकाग्रता से पढ़ा.. कथन में इतनी गहराई है जिस प्रकार से कविता को परिभाषित किया गया है फिर श्रेष्ठ और महान कविता में अंतर स्पष्ट किया है वह सिर्फ पढ़ने योग्य नही बल्कि गुनने योग्य है.. मेरे लिए तो मानो अमृत सामान रहा ये लेख ... आपका बहुत आभार.
ReplyDeletejeevan singh ji humare samay ke bade chintak aur samalochak hain..untne hi bade manush bhi ..manush bhav se bhare huye.
ReplyDeleteबड़ी कविता , दरअसल वही होगी जो जीवन के उन दर्रों , कंदराओं , बियाबानों ,बीहड़ों ,निर्जनों और घाटियों तक में प्रविष्ट होने का हौसला रखती है, जहाँ सामान्यतया लोग जाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते । .....................कितने कवि हैं आज , जो इस तरह अपने समय की अंधी गहराइयों में प्रविष्ट होने की क्षमता रखते हैं । संभव हो सकता है कि अच्छी कविता का अभ्यास करते-करते कोई कवि बड़ी कविता की दिषा में प्रस्थान कर जाए। इसी के लिए एक समर्थ कवि को अपना जीवन दाव पर लगाना पड़ता है। दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते , जीवन भी सधा रहे और कविता भी बड़ी हो जाय। जिन्होंने जीवन साधा है , उनकी कविता कभी बड़ी नहीं हो पाई।...........जीवन सिंह जी की बातें पढ़कर अपने आप को तौलने का मन हुआ ....... इस सार्थक बातचीत के लिए महेश भाई आपका आभार....
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