डाॅ जीवन सिंह जी के साक्षात्कार की पहली कड़ी पर युवा कवयित्री लीना मल्होत्रा का कहना है कि जिस प्रकार से कविता को परिभाषित किया गया है .... श्रेष्ठ और महान कविता में अंतर स्पष्ट किया है वह सिर्फ पढ़ने योग्य नही बल्कि गुनने योग्य है ,यह टिप्पणी बताती है कि साक्षात्कार में बहुत कुछ ऐसा है जो कवि और कविता कर्म के बारे में हमारी समझ को बढ़ाता है , प्रस्तुत है इसकी दूसरी कड़ी-
महेश चंद्र पुनेठा - अपने समय के समाज और संघर्षषील यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति करने वाली कविता एक अच्छी कविता मानी जाती है , पर क्या कलात्मक अभिव्यक्ति का मतलब ऐसी कविता लिखना है जो आसानी से समझ में न आए ,जैसा कि आजकल कलात्मकता के नाम देखने में आ रहा है?
डाॅ0 जीवन सिंह- दरअसल कविता रचने से पहले और रचते हुए कवि को पहले उस पहेली को सुलझाना पड़ता है जो प्रत्यक्ष जीवन-व्यवहार में आसानी से समझ में नहीं आती। कवि भी अपने वर्गीय संस्कारों ,इच्छा-आकांक्षाओं ,अभिरूचियों तथा स्वार्थों से वैसे ही घिरा बँधा रहता है , जैसे संसार के अन्य व्यवहारी लोग। एक बड़ा और बेहतरीन रचनाकार वह तभी हो सकता है जबकि वह जीवन और समय के सबसे सामान्य धरातल पर उतर उसे यथार्थवादी नजर से समझे और उद्घाटित करने का प्रयास करे। इस मामले में रचना की विचित्र एवं विपरीत गति होती है। वह दुनिया के चलन के अनुसार नहीं चलती । कहा जाता है कि षायर ,सिंह और सपूत लीक छोड़कर चलते हैं और सच्चे एवं बड़े षायर के बारे में बिल्कुल सही बात होती है। जैसे सपूतों के बारे मंे सही है। भगत सिंह सरीखे महान बलिदानी सपूत अपने समय में लकीर छोड़कर चले। कबीर ,निराला ,मीरा ,प्रेमचंद और मुक्तिबोध लीक से हटकर चलने वाले रचनाकार थे। ऐसे रचनाकार कलाकार भी होते हैं ,जिनमंे कला प्रतिभा होती है , लेकिन वे जीवन की पहेली को सुलझा पाने में या तो कामयाब नहीं होते या अपने वर्गीय हितों की वजह से उसे सुलझाना ही नहीं चाहते । इस कोटि के कलाकारों का ज्यादा बल अपनी कलात्मकता की अभिव्यक्ति पर रहता हैै। आधुनिक समय में अज्ञेय ऐसे ही कलाकार कवियों की श्रेणी में आते हैं। जहाँ तक कविता के आसानी से समझ में आने वाली बात है , यह षर्त लगाना ठीक नहीं है। कविता के पाठक को भी कुछ प्रयत्न तो करना ही पड़ता है । जो कविता अपने समय के रिष्तों की पेचीदगियों को समझने में उलझी हुई है , उस कविता से आसानी से समझ आने की माँग करना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। कविता का भी अपना काव्यषास्त्रीय अनुषासन होता है , उसे समझे-जाने बिना कविता का आसानी से समझ में आना संभव नहीं है। हाँ , उसे कलात्मक प्रदर्षन के लिए जानबूझकर दुरूह और दुर्बोध बनाना कहीं से भी संगत नहीं माना जा सकता । आजकल जो कविताएँ लिखी जा रही हैं ,उनमें सभी तरह के उदाहरण मिल जाएंगे।
महेश चंद्र पुनेठा - आप लोकजीवन के रचनाकार के लिए प्रकृति से गहरे तक परिचित होना रचना की अनिवार्य षर्त मानते हैं। ऐसा क्यों ?
डाॅ0 जीवन सिंह- लोकजीवन और प्रकृति में सबसे निकट का और गहरा रिष्ता रहा है। वह लोकजीवन ही क्या ,जो प्रकृति से दूर हो । महानगरीय सभ्यताओं की सबसे बड़ी सीमा ही यह होती है कि ज्यों-ज्यों वे विकसित होती जाती हैं त्यों-त्यों प्रकृति से भी दूर होती जाती हैं। प्रकृति का मतलब है जो सहज एवं स्वाभाविक और जो कृत्रिमता से कोसों दूर है। कृत्रिमता के अपने संकट होते हैं जो जीवन को असामान्य बनाते हैं ,उसे एबनार्मल स्थितियों की ओर धकेलते हैं । इससे समाज में पागलपन बढ़ता है। आज पूरी दुनिया पर्यावरण का संकट महसूस करने लगी है । यह तभी हुआ है जब कि नयी सभ्यता ,प्रकृति से निरंतर दूर होती चली गई । इसका परिणाम यह हुआ है कि आदमी अपनी प्रकृति को छोड़ता जा रहा है। वह उसे भूल रहा है। हमारे देष के लोक जीवन में आज भी प्रकृति की बड़ी भूमिका है। वहाँ आज भी सूर्य-चंद्र के साथ पहाड़ ,नदी , वृक्ष ,जीव-जंतु ,पखेरू आदि के साथ वनों-जंगलों ,खेतों-खलिहानों को कोई मन से दूर नहीं कर पाता। उसे सूर्याेदय और सूर्यास्त देखने के लिए किसी पर्यटन स्थल पर नहीं जाना पड़ता। वह उसके जीवन का हिस्सा है। नदी-पहाड़ उसकी आजीविका के स्रोत हैं। पेड़-पौधों और ढोर-डंगरों से उनका जीवन चलता है। जब यह सब है तो प्रकृति से तो रिष्ता होगा ही। यह सब नहीं होगा तो लोकजीवन और क्या होगा। साधारणता ,सच्चाई ,सक्रियता ,सहजता आदि का नाम ही तो लोकजीवन है ,जहाँ किसी तरह का कोई आडंबर व पाखंड नहीं।
महेश चंद्र पुनेठा - अपने समय के समाज और संघर्षषील यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति करने वाली कविता एक अच्छी कविता मानी जाती है , पर क्या कलात्मक अभिव्यक्ति का मतलब ऐसी कविता लिखना है जो आसानी से समझ में न आए ,जैसा कि आजकल कलात्मकता के नाम देखने में आ रहा है?
डाॅ0 जीवन सिंह- दरअसल कविता रचने से पहले और रचते हुए कवि को पहले उस पहेली को सुलझाना पड़ता है जो प्रत्यक्ष जीवन-व्यवहार में आसानी से समझ में नहीं आती। कवि भी अपने वर्गीय संस्कारों ,इच्छा-आकांक्षाओं ,अभिरूचियों तथा स्वार्थों से वैसे ही घिरा बँधा रहता है , जैसे संसार के अन्य व्यवहारी लोग। एक बड़ा और बेहतरीन रचनाकार वह तभी हो सकता है जबकि वह जीवन और समय के सबसे सामान्य धरातल पर उतर उसे यथार्थवादी नजर से समझे और उद्घाटित करने का प्रयास करे। इस मामले में रचना की विचित्र एवं विपरीत गति होती है। वह दुनिया के चलन के अनुसार नहीं चलती । कहा जाता है कि षायर ,सिंह और सपूत लीक छोड़कर चलते हैं और सच्चे एवं बड़े षायर के बारे में बिल्कुल सही बात होती है। जैसे सपूतों के बारे मंे सही है। भगत सिंह सरीखे महान बलिदानी सपूत अपने समय में लकीर छोड़कर चले। कबीर ,निराला ,मीरा ,प्रेमचंद और मुक्तिबोध लीक से हटकर चलने वाले रचनाकार थे। ऐसे रचनाकार कलाकार भी होते हैं ,जिनमंे कला प्रतिभा होती है , लेकिन वे जीवन की पहेली को सुलझा पाने में या तो कामयाब नहीं होते या अपने वर्गीय हितों की वजह से उसे सुलझाना ही नहीं चाहते । इस कोटि के कलाकारों का ज्यादा बल अपनी कलात्मकता की अभिव्यक्ति पर रहता हैै। आधुनिक समय में अज्ञेय ऐसे ही कलाकार कवियों की श्रेणी में आते हैं। जहाँ तक कविता के आसानी से समझ में आने वाली बात है , यह षर्त लगाना ठीक नहीं है। कविता के पाठक को भी कुछ प्रयत्न तो करना ही पड़ता है । जो कविता अपने समय के रिष्तों की पेचीदगियों को समझने में उलझी हुई है , उस कविता से आसानी से समझ आने की माँग करना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। कविता का भी अपना काव्यषास्त्रीय अनुषासन होता है , उसे समझे-जाने बिना कविता का आसानी से समझ में आना संभव नहीं है। हाँ , उसे कलात्मक प्रदर्षन के लिए जानबूझकर दुरूह और दुर्बोध बनाना कहीं से भी संगत नहीं माना जा सकता । आजकल जो कविताएँ लिखी जा रही हैं ,उनमें सभी तरह के उदाहरण मिल जाएंगे।
महेश चंद्र पुनेठा - आप लोकजीवन के रचनाकार के लिए प्रकृति से गहरे तक परिचित होना रचना की अनिवार्य षर्त मानते हैं। ऐसा क्यों ?
डाॅ0 जीवन सिंह- लोकजीवन और प्रकृति में सबसे निकट का और गहरा रिष्ता रहा है। वह लोकजीवन ही क्या ,जो प्रकृति से दूर हो । महानगरीय सभ्यताओं की सबसे बड़ी सीमा ही यह होती है कि ज्यों-ज्यों वे विकसित होती जाती हैं त्यों-त्यों प्रकृति से भी दूर होती जाती हैं। प्रकृति का मतलब है जो सहज एवं स्वाभाविक और जो कृत्रिमता से कोसों दूर है। कृत्रिमता के अपने संकट होते हैं जो जीवन को असामान्य बनाते हैं ,उसे एबनार्मल स्थितियों की ओर धकेलते हैं । इससे समाज में पागलपन बढ़ता है। आज पूरी दुनिया पर्यावरण का संकट महसूस करने लगी है । यह तभी हुआ है जब कि नयी सभ्यता ,प्रकृति से निरंतर दूर होती चली गई । इसका परिणाम यह हुआ है कि आदमी अपनी प्रकृति को छोड़ता जा रहा है। वह उसे भूल रहा है। हमारे देष के लोक जीवन में आज भी प्रकृति की बड़ी भूमिका है। वहाँ आज भी सूर्य-चंद्र के साथ पहाड़ ,नदी , वृक्ष ,जीव-जंतु ,पखेरू आदि के साथ वनों-जंगलों ,खेतों-खलिहानों को कोई मन से दूर नहीं कर पाता। उसे सूर्याेदय और सूर्यास्त देखने के लिए किसी पर्यटन स्थल पर नहीं जाना पड़ता। वह उसके जीवन का हिस्सा है। नदी-पहाड़ उसकी आजीविका के स्रोत हैं। पेड़-पौधों और ढोर-डंगरों से उनका जीवन चलता है। जब यह सब है तो प्रकृति से तो रिष्ता होगा ही। यह सब नहीं होगा तो लोकजीवन और क्या होगा। साधारणता ,सच्चाई ,सक्रियता ,सहजता आदि का नाम ही तो लोकजीवन है ,जहाँ किसी तरह का कोई आडंबर व पाखंड नहीं।
punetha ji,jeevan singh ji jaise kavi aalochak aur insan aisi baat majbooti ke sath kah sakte hain kyonki unme kisi prakar ka pakhand nahi hai
ReplyDeletearvind awasthi