Friday, 21 October 2011

श्रेष्ठ कविता अपने रंजक धर्म से पाठक के हृदय में प्रवेश करती है और उसे अपना दोस्त बना लेती है।

पिछली पोस्ट पढ़कर युवा कवि -आलोचक अरविद अवस्थी का कहना है कि डाॅ जीवन सिंह जिस साफगोई से अपनी बात कहते हैं ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो सभी तरह के पाखंडों से मुक्त हो  बात बिल्कुल सही है । इस साक्षात्कार में अनेक स्थल ऐसे हैं जहाँ उनकी बेवाकी और साहस के बार-बार दर्शन होते हैं । प्रस्तुत है साक्षात्कार की तीसरी कड़ी -


कपिलेश भोज-आपने अपनी पुस्तक ’कविता की लोक प्रकृति ’ में लिखा है कि ’’ यह जरूरी है कि कविता में हमारा यथार्थ कविता बनता है या नहीं , कहीं कच्चा यथार्थ ही तो षेष नही रह जाता ’’ - प्रष्न यह है कि यथार्थ कविता कैसे बनता है ? इसकी समझ रचनाकारों के लिए बेहद जरूरी है ,नए रचनाकारों के लिए तो और भी ज्यादा । अतः इसे भी सोदाहरण स्पष्ट कर दें कि जीवन के यथार्थ के कविता बनने की प्रक्रिया क्या होती है तो यह अत्यंत उपयोगी होगा।
डाॅ0 जीवन सिंह- सामान्य तौर पर हम यथार्थ उसे कहते हैं जो हमारी आँखों के सामने प्रत्यक्ष नजर आता है और  जिसका बोध हम अपनी ज्ञानेंद्रियों से करते हैं । इसमें सबसे ज्यादा काम हमारे आँख और कान करते हैं । यथार्थ लेकिन इतना ही नहीं होता । कई बार आँखों से देखा और कानों से सुना भी यथार्थ नहीं होता। हम एक इतिहास से गुजर कर आज इस 2011 ई0 तक पहँुचे हैं। यह हमारा बहुत सीमित पंचांग है। इसमें व्यक्ति ,समाज और सत्ताओं ने अनेक तरह के ऐसे विभ्रमों ( इल्यूजन) का सृजन भी किया है ,जो ऊपर से देखने पर हमको यथार्थ लगते हैं। इस वजह से यथार्थ को जानने के लिए जरूरी होता है कि एक कवि कुछ बनी-बनाई और गढ़ी हुई संस्कारबद्ध बातों को ही यथार्थ नहीं माने । वह दर्षन और इतिहास के मार्फत चीजों की गहराई में उतरने का प्रयास करे , जिससे ’यथार्थ’ का असली रूप उसे हासिल कर सके। मुक्तिबोध की कविता को देख लीजिए कितना बड़ा प्रयत्न वे यथार्थ तक पहुँचने के लिए करते हैं। सामान्यतया देखने में आता है कि कविगण सुनी सुनाई और चालू मुहावरे वाली बातों को ही कुछ हेरफेर करके ’ यथार्थ ’ की तरह पेष करते रहते हैं। मेहनत करने वालों की बेहद कमी आज सभी जगह है। लोग पके-पकाए को प्रीति भोज की तरह खाने की फिराक में रहते हैं। कुछ लोग इसे यष प्राप्ति और कुछ आय का एक स्रोत मानकर इस दिषा में कदम रखे हुए होते हैं। लेकिन इस मैदान में टिक वहीं पाते हैं , जो एक सच्चे योद्धा की तरह मैदान में उतरते हैं। जैसे जीवन ,संग्राम होता है , वैसे सृजनात्मकता भी एक भिन्न तरह का संग्राम ही है। यहाँ भावों और विचारों का युद्ध लड़ना पड़ता है। जो विचारों का युद्ध करने से कतराता है उसे यहाँ कदम नहीं रखना चाहिए । दूसरे ,जीवन की व्यापकता में हमारी जितनी गहरी पैठ होगी , हम उतने ही यथार्थ के नजदीक पहँुच सकेंगे। कबीर अपने जीवनानुभवों के बल पर ही यथार्थ तक पहुँच पाए थे। तुलसी ने भी अपने व्यापक जीवनानुभवों से लोकहृदय को जाना था , लेकिन जब वे वैचारिकता के लिए षास्त्रों के पास गए तो वे उनके विभ्रमों में उलझे बिना नहीं रह पाए । उनकी सारी वैचारिक उलझनें षास्त्र-निर्भरता के कारण हैं। मीरा भी अपने जीवनानुभवों के आधार पर वह विद्रोह कर सकी थी , जो सामान्यतया संभव नहीं हो पाता । इसी से यथार्थ का एक अछूता कोना उद्घाटित हुआ। रीतिकाल के कवि बहुत ऊपरी और सतही यथार्थ में उलझकर रह गए।सच तो यह है कि उनकी काव्य-सर्जना का कोई बड़ा प्रयोजना नहीं था। इसलिए वे यष और अर्थ से आगे न जा सके । कला-प्रतिभा उनके पास अवष्य थी , जिससे श्रेष्ठ कविता तो वे कर सके , बड़ी कविता नहीं कर पाए । बड़ी कविता करने के लिए यथार्थ को समझने के लिए अपने समय की गहराइयों में उतरकर ढूँढना पड़ता है और जीवन की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए वहाँ तक पहुँचना पड़ता है ,जहाँ जीवन के सरोकारों में व्यक्ति के पास श्रम की पूँजी के अलावा और कुछ नहीं होता । हमारे आज के ज्यादातर मध्यवर्गीय कवि इस काम को नहीं कर पाते । वे अपने वर्गीय जीवन की सीमा से बाहर नहीं जा पाते। इससे उनकी सर्जना में प्राणतत्व नहीं आ पात । चूँकि आज का जीवन वर्गीय सीमाओं में विभक्त जीवन है इसलिए तय करना पड़ता है कि हम किसके साथ हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम अपने समय की चकाचैंध में फँसकर षोषक-उत्पीड़क उच्चवर्ग की पक्षधरता में आ गए हैं? मध्यवर्ग के ढुलमुलपन जिसे मुक्तिबोध ने ’बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास ’ कहा है , में भी हम फँसे रह सकते हैं। आज के ज्यादातर कवि इस गिरफ्त में हैं। एक जमाने के मध्यवर्ग की हैसियत भी बदलती है। वह मध्यवर्ग से छलाँग लागाकर उच्चवर्ग में चला जाता है और अपने साथियों-सहयोगियों के साथ छल करता है। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने समय के उत्पादन संबंधों को जानें। उत्पादन-संबंधों और स्वामित्व के सवाल को ,जो नहीं समझ पाते ,वे यथार्थ की जटिलताओं तक भी नहीं पहँुच पाते । इसी वजह से ऐसे कवियों का यथार्थ ,परिपक्वता की स्थिति तक नहीं पहुँच पाता । मुक्तिबोध ने कविता के तीन क्षणों की बात कही है । इनमें पहला क्षण ’तत्व चिंता’ का होता है। तत्व-संधान की प्रक्रिया के लिए अनेक तरह की ज्ञानात्मक प्रक्रियाओं से होकर कवि को गुजरने का प्रयास करना चाहिए। यह एक दिन का काम नहीं है सतत् अभ्यास ,अनुभव और अध्ययन का कम भी है। जब एक बार गाड़ी पटरी पर चलने लगती है ,तो फिर रास्ता आसान हो जाता है।
  यथार्थ को समझने की दृष्टि से मैं यहाँ आज के महत्वपूर्ण कवि विजेंद्र की एक कविता का पूर्वाद्ध उद्धृत कर रहा हँू। कविता इस प्रकार है- षीर्षक है ’ रेलवे पोस्टर ’ - तुमने भारत को पोस्टरों में देखा है/एक साँवली औरत / घने जूड़े में / बड़ा-सा फूल / खोंस रही है/ एक देसी कमल पोखर से बच्चे की तरह / उझक रहा है/ एक आदमी गाँव को बोझ लिए मचकता /जा रहा है / वहाँ कभी /तुमने भारत देखा है /उसकी खाकी मिट्टी /पथरीले उठान/ रेत के लहरियोंदार ढूह / चट्टानी ढलान / वहाँ तुम्हें जिस्म पर पड़ी सिकुड़नें दिखाई नहीं देगी / पीछे दूर तक नीला आसमान / छिदरे छिदरे बबूलों के वन दिखाई नहीं देंगे । यह आज की एक महत्वपूर्ण कविता है ,यद्यपि यह आज से तीस-पैंतीस वर्ष पहले की लिखी हुई कविता है । विजेंद्र के 1980 ई0 में प्रकाषित ’ ये आकृतियाँ तुम्हारी ’ संग्रह में है। यहाँ यथार्थ को समझने की प्रक्रिया से अवगत कराया गया है। सत्ता के भी अपने कलाकार होते हैं, जो अयथार्थ को यथार्थ और यथार्थ को अयथार्थ में बदलने का काम करते हैं। हमारे यहाँ पोस्टरों और विज्ञापनों में औरत के षरीर का उपयोग सबसे ज्यादा किया जाता है। उसमें भी उसकी असलियत नहीं दिखलाई जाती । यथार्थ को कला के आवरण से ढका जाता है ,जिससे देष-समाज की वास्तविकता उद्घाटित न हो । एक सच्चे कलाकार का काम वास्तविक का उद्घाटन करना होता है ,जिससे वह वास्तविक सौंदर्य तक पहुँच सके। इस कविता से ही समझ में आ जाना चाहिए कि जीवन का यथार्थ कविता कैसे बनता है?यहाँ यथार्थ का अंतर्विरोध भी है तो वह यथार्थ भी मौजूद है ,जिसे पोस्टर में नहीं दिखलाया गया है। कवि अपने पाठक को उसी वास्तविक से परिचित कराना चाहता है। यहाँ ’ तुमने भारत को पोस्टरों में देखा है’ पंक्ति की प्रष्नवाचक पुनरावृत्ति बहुत अर्थवान है। लेकिन यह समझ में तब आता है ,जब कवि के पास लोक का अनुभव भी हो ।

 कपिलेश  भोज- एक श्रेष्ठ कविता पाठक को क्या देती है ? यानि पाठक के जीवन में उसकी क्या और कैसी  भूमिका होती है या हो सकती है?
 डाॅ0 जीवन सिंह- श्रेष्ठ कविता पाठक की मानसिकता को परिष्कृत करने का काम करती है। एक व्यक्ति ,मनुष्य के षरीर में इस पृथ्वी पर आता है , किन्तु वह मनुष्यता का वरण अपने प्रयासों से करता है। मनुष्य षरीर में होने मात्र से ,हम मनुष्यता के संवाहक नहीं बन जाते। मनुष्यता का अर्जन करना पड़ता है और उसे निरंतर विकसित करते रहना पड़ता है। लेकिन यथार्थ यह है कि मनुष्यता-अर्जन के लिए व्यक्ति सबसे कम प्रयत्न करता है। एक तरह की ’ धार्मिक मनुष्यता ’ को वह अपने परिवेष ,वातावरण और परिवार से प्राप्त करता है ,जो उसे  ’ मध्यकालीनता ’ की मानसिकता में जकड़े रहती है। वह आधुनिक एवं समकालीन नहीं हो पाता । धार्मिकता की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि उसमें विकास की गुंजाइष बहुत कम होती है। वह व्यक्ति को हमेषा पीछे की ओर धक्का देती है। इसलिए ’ धार्मिक मनुष्ता ’ से जितने खूनी संघर्ष हुए , उतने षायद ही किसी अन्य परिघटना से हुए हों । धर्म की भूमिका के साथ साहित्य की भूमिका भी रहती है। दुनिया का पूर्व आधुनिक साहित्य धर्म की प्रेरणा से भी सृजित हुआ है। वहाँ धार्मिक भावनाएँ और कविता का मिश्रण मौजूद है। तुलसी कृत ’ रामचरित मानस ’ का आज हिंदू घरों में एक धार्मिक कृति की तरह पाठ और पारायण किया जाता है। यहाँ कविता से ज्यादा उसकी पौराणिक-धार्मिकता की भूमिका है। वह हमारी चली आती हुई अर्द्ध सामंती पारिवारिकता को सहलाती है। लोग ’रामचरित मानस ’ की चैपाइयों के प्रमाण से अपने जीवन की पेचीदगियों को सुलझाते हैं। इसी तरह कबीर ,सूर ,मीरा ,रैदास ,नानक ,दादू ,संुदरदास की कविता की धार्मिक-आध्यात्मिक भूमिका मौजूद है। इस तरह की भूमिका आधुनिक साहित्य की अभी तक नहीं बन पाई है। यद्यपि उक्त भूमिका में धार्मिकता का मिश्रण बहुत ज्यादा है , कविता का कम ,तथापि कविता यहाँ माध्यम बनी है। रामकथा पर अनेक ग्रंथ हमारे यहाँ मौजूद हैं किंतु इनमें ’ रामचरितमानस ’ की भूमिका इसलिए सर्वोपरि है कि उसमें कविता की जो सरसता ,सहजता और लोकतत्व की व्यापकता की ताकत है , वह उसे लोकहृदय का हार बना देती है। षायद ही किसी अन्य काव्य ग्रंथ में कविता की ऐसी ताकत हो कि एक काव्यग्रंथ इस तरह का जनकाव्य बन जाय। कविता की चकित कर देने वाली कला तुलसी के यहाँ है। उनकी इसी ताकत , क्षमता और सामथ्र्य ने आधुनिक काल में होने पर भी निराला और त्रिलोचन तक को प्रभावित किया है। लेकिन हमारे समय का काम तुलसी की कविता से नहीं चलता । तुलसी के बाद जमाना बहुत आगे आ गया है। वह न केवल बदला है वरन् गुुणात्मक रूप में उसमें बुनियादी परिवर्तन हुए हैं। वह जमाना था , जबकि भाववादी दर्षन प्रणालियों का वर्चस्व था , आज उन प्रणालियों का वर्चस्व ध्वस्त हो गया है और उनके स्थान पर यथार्थवादी दर्षन  प्रणालियाँ आ गई हैं। विज्ञान और तकनीक ने दुनिया को भीतर से हिला दिया है। पुराने धर्मों और धार्मिक अवधारणाओं के समक्ष प्रष्नचिह्न लग चुके हैं। यहाँ तक कि उन्नीसवीं सदी में ही ईष्वर के अस्तित्व तक को नकार दिया गया था । यथार्थवादी दार्षनिक प्रणालियों के आ जाने से 1789 ई0 में फ्रांस में बुर्जुआ क्रांति हुई । जिसमें ’ देवरूप ’ राजा को पहली बार क्रांतिकारी ढंग से पदच्युत किया गया। इसके बाद उन्नीसवीं सदी में 1917 ई0समाजवादी क्रांति रूस में हुई और इसके बाद 1949ई0 में चीन में। इससे दुनिया में राजसत्ताओं का रूप परिवर्तन हुआ। लोकसत्ताओं के लिए तरह-तरह की कार्यवाहियाँ हुई। इसी वातावरण में हमारे देष को सन् 1947ई0 में ब्रिटिष औपनिवेषक षासन से मुक्ति मिली। इस वातावरण ने कवि की मानस को प्रभावित किया ,जिसकी वजह से साहित्य, मनुष्य केंद्रित हुआ। इससे साहित्य में देवतावाद और सामंतवाद की जगह मानवतावाद की प्रतिष्ठा हुई । साहित्यकार का सौंदर्यबोध बदला , वह ऊपर से नीचे की ओर आया। उसकी देव-निर्भरता खत्म हुई और वह सामंतों-नवाबों ,अमीरों-रईसों की चारित्रक सच्चाइयों को समझ गया। इन सभी बातों में कविता की भूमिका रही है। कवि का ध्यान स्त्री और दलित की ओर खासतौर से गया । इससे पाठकों के सौंदर्यबोध में भी परिवर्तन हुआ।
    श्रेष्ठ कविता अपने रंजक धर्म से पाठक के हृदय में प्रवेष करती है और उसे अपना दोस्त बना लेती है। हृदय के रास्ते वह मन-मस्तिष्क तक पहुँती है। यह अलग बात है कि आज के ज्यादातर कवियों ने हृदय की बात से ही किनारा कर लिया है। ’ कहियै मेरौ हियौ , तेरे हिय की बात ’ - यह कविता की भूमिका है। इसलिए तुलसी ने कविता के लिए ’ हृदय-सिंधु ’ की बात कही है। आज हृदय सिंधु की बात तो कोसों दूर ’ हृदय-सरिता’ और ’ हृदय-कूप ’ भी कहीं-कहीं नजर आते हैं। सबको जल्दी पड़ी हुई है। धीरज गायब है , सच्चाई गायब है ,ईमानदारी गयाब है तो ’ हृदय-सिंधु ’ कैसे बनेगा ? कविता इतनी गद्यात्मक एवं छंदविहीन हो रही है कि वह कविता-कामनी से ज्यादा कविता-राक्षसी लगती है। कविता-राक्षसी से यदि पाठक को डर लगे तो अस्वाभाविक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि इसमें पाठक की अपनी कोई भूमिका नहीं होती । चूँकि कविता एक तरह का विषिष्ट काव्यानुषासन है इसलिए वह अने पाठक से भी उसी तरह के काव्यानुषासन की प्रक्रिया में आने की माँग करती है। जिस काव्यस्तर और काव्यरूप की हम यहाँ बात कर रहे हैं ,वह कविता का सर्वोच्च रूप है। इस तरह की कविता का भी कोई एक स्तर नहीं होता । वह ’ जनधर्मी ’ होकर ज्यादा संप्रेषित होती है किंतु जब ’ सृजनधर्मी’ होती है तो उसकी आंतरिक सूक्ष्मताओं की वजह से संप्रेषण में बाधा आती है। छंद और मुक्तछंद की कविताओं में भी फर्क होता है। छंद में एक तरह का बंधन रहता है जो कवि की भावानुभूतियों को एक सीमा से आगे नहीं जाने देता है , जिससे हमेषा बात की अपूर्णता का खतरा बना रहता है और कार्य -कारण की श्रृंखला का भी वहाँ निर्वहन नहीं हो पाता । इसी वजह से कविता ने मुक्त छंद का नया रास्ता चुना । मुक्त छंद में भी छंद होता है , किंतु वह किसी षास्त्रीय अनुषासन में बँधा नहीं होता है। मुक्तछंद में छांदिकता को बनाए रखना एक कठिन कर्म है , जिसे कवि बहुत गम्भीरता से नहीं लेते । इसी से वह मुक्तछंद की राह छोड़ कर छंदषून्य गद्यात्मकता की निष्प्राण राह पर चल पड़ी है। छंद कविता का षरीर है , वही रूग्ण होगा तो उसमें प्राणतत्व की ताकत कैसे आ सकेगी ?

1 comment:

  1. यह लेख मेरी कविता की समझ को परिष्कृत करने में ज़रूर सफल रहा है.. मैं हैरान हूँ एफ बी पर कवियों की बाढ आई हुई है लेकिन इतने अछे लेख को पढने में किसी की रूचि नही है.. ये दुर्भाग्यपूर्ण है.. यथार्थ का अनुसंधान करना , उसे ढूँढ कर लाना, श्रम करना इन सभी सूत्रों में मुझे बेहतर करने के लिए प्रेरित किया है.. आपके इस श्रम से लिखे गए लेख के लिए आपका कोटि कोटि आभार मित्र..

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