Thursday 8 December 2011

कविता बहुत कुछ कवि व्यक्तित्व का ही कलात्मक प्रतिबिंब है-विजेंद्र




 विजेंद्र कविता में हो या गद्य में अपने आप को बराबर सामथ्र्य के साथ अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार हैं।  लोक के प्रति गहरी प्रतिबद्धता उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की खास विशेषता है। वे उन गिने-चुने रचनाकारों में हैं जिनकी भारतीय और पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र में बराबर की पैठ है।वे अपनी रचनाओं में पूरी द्वंद्वात्मकता के साथ अपनी परम्परा का अवगाहन करते हैं।उनके यहाॅ परम्परा किसी देश और काल की सीमा में नहीं बॅधी रहती है। ऐसा करते हुए वे किसी पूर्वाग्रह ,भावुकता या अपने के प्रति अनावश्यक मोह के शिकार भी नहीं होते। परम्परा को लेकर उनका दृष्टिकोण ’ सार-सार को गहे रहै थोथा देय उड़ाय‘ वाला है। वे पूरी वस्तुनिष्ठता के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विषयों का विष्लेषण करते हैं।उनके यहाॅ दृष्टि की गहराई और जीवन की व्यापकता है ।जहाॅ भी उन्हें लोक के हित की चीजें मिलती हैं उसे ग्रहण करते जाते हैं तथा वाक्छल को उद्घाटित करते हुए उसके द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम को दूर करते हैं। यहाँ उनसे हुई बातचीत के अंश प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। 


महेश चंद्र पुनेठा -विजेंद्र जी ,सबसे पहले मैं आपके प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानना चाहता हूं ,विस्तार से बताइए ।                                                                      
  विजेंद्र- तुमने सबसे पहले मेरे प्रारंभिक जीवन के बारे मंे जानना चाहा है ।मैं दरअसल ,उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से गांव धर्मपुर में एक खेतीहर सामंत परिवार में जन्मा हूं। जब से होश संभाला तो पाया कि सामंतवाद ढहने को है । स्वतं़त्रता के लिए जनता संघर्ष कर रही है। मैं उस समय आजादी के महत्व को न तो जानता था । न इस को जानने में मेरी कोई रूचि थी । पर चारों तरफ जो हो रहा था -होने को था-उसकी अनुंगूंजें मेरा अचेतन मन जरूर पकड़ता रहा होगा । हां ,जन्मा 1935,में । यही तिथि मेरे प्रमाण पत्रों में दर्ज है। हो सकता है सही उम्र कुछ और रही हो कुछ बातें बचपन की मेरे दिमाग पर आज भी ताजा अंकित है ।एक तो गांव की उत्पीड़ित जनता पर होते जमीदारोे के अत्याचार । और आजादी की हवा के साथ जनता का दबी जुबान से प्रतिरोध । सामंतों की क्रूरता मैंने अपनी आंखों से देखी । उसे देख कर में दुखी भी हुआ । यह बात मैंने धरती कामधेनु से प्यारी  की लंबी कविता ,अधबौराया आम  में जहां तहां कही है -एक सच्चे चरित्र  रमदिल्ला के द्वारा । सामंती वातावरण का जिक्ऱ ऋतु का पहला फूल  की एक दूसरी लंबी कविता ,दिन का राजा में भी है। यह प्रभाव आज मेरे मन पर छाया हुआ है । आज भी आजाद भारत में जब दलितोे ,आदिवासियों और गांव के गरीबों पर अत्याचार होते है तो मुझे अपना बचपन याद आता है। पर आज प्रतिराध ज्यादा है । 
      मेरा गाॅव गंगा जमुना के दोआब का धड़कता दिल है। आम,अमरूद और जामुनों के घने बगीचों से घिरा हुआ। हमारे यहाॅं मागरा बहुत ज्यादा खिलता था। धर के आगे सदा बहार तालाब। यह तालाब बरसात में गंगा से एकमेक होता। जल,फल, और गंध बचपन से ही मेरे मन पर छाये रहे हैं। आज भी मेरी कविताओं में उनके बिंब आते हैं। एक कवि को अपना बचपन कभी भूलना नहीं चाहिये। वह यथार्थ के बहुत करीब होता है। बचपन में गेहूं, जौं,मटर, चना और सरसों के भरे,लहलहाते खेतों में धूमना और सूर्याेदय और सूर्यास्त देखना मुझे बहुत 
अच्छा लगता था। ये बिंब भी मेरी कविताओं में बराबर आते हें। मेरे पिता को अच्छे बैल,अरबी घोड़े और जंगल में शिकार खेलने का बहुत शैक था। उनके साथ मैं भी गंगा के खादर में खूब घूमा हूं।शिकारी कुते ग्रेहाउण्ड साथ रहते थे।
मेरी पढा्रई शुरू में घर पर ही हुई।अरबी फारसी के विदान मौलवी रफीक अहमद मुझे उर्दु और गणित की तालीम देते थे।मै पढ़ने-लिखने में होशियार न होने के वजह से बडी़ उब महसूस करता। मेरे पिता का इरादा भी नहीं नहीं था कि मैं आगे पढूं। पर किसी तरह गाॅव के स्कूल से चैथा दर्जा पास कर लिया । बाद 
से चैथा दर्जा पास कर लिया। बाद मैं मेरी माॅ ने मुझे  जोर देकर अंग्रेजी स्कूल में उझियानी भेज दिया । यहां मेरा  दिमाग एकदम जैसे बदल गया हो । मुझे अंगे्रजी भाषा पढने की दिलचस्पी बढ़ी। जब खूब मेहनत की तो हर बार अपनी कक्षा में अव्वल आता रहा । उझियानी से सातवीं कक्षा पास करने के बाद आठवीं में खुरजा आ गया । यहां पास में मेरी बड़ी बहन थी । उनके यहां भी सबको शिकार खेलने का शौक था । तो मुझे यहां भी जंगलों में जमुना के खादर में खूब घूमने का मौका मिलता रहा । यहां से दसवीं करके में उच्च शिक्षा के लिये काशी हिंदू विश्वविद्यालय चला गया। खुरजा जब था तब मुझे माक्र्सवाद की शिक्षा मिली । हमारे गुरू बने प्रज्ञाचक्षु श्री भूप गिरि जी । वह मुझे अंगे्रजी कम माक्र्सवाद ज्यादा पढ़ाते थे । शुरू मैं न तो उधर मेरी कोई रूचि थी। न मैं उसे समझता था। पर लगातार उनके कहने सुनने से मेरा ध्यान उधर जाने लगा। बनारस में नई कविता की हवा थी । केदारनाथ सिंह नई कविता और अज्ञेय के अनुयायियों में प्रमुख थे । डा0 रामदरश मिश्र , डा0 नामवर सिंह ,और डा0शिवप्रसाद सिंह ने मुझे कक्षा में पढाया है। इन सबसे गोष्ठियों में भी भेंट होती थी । उस समय आज के प्रतिष्ठित कवि विष्णुचंद्र शर्मा  कवि  नाम की पत्रिका निकालने को बेचैन थे ।उनसे बराबर कविता ,कवि कर्म और समाज के अन्य सरोकारों पर बातचीत होती । यहीं मेरा संपर्क प्रख्यात कवि त्रिलोचन से हुआ। वह मेरे हर तरह से काव्य गुरू बने । उनके गहरे और लंबे सानिघ्य ने मुझे कविता और कवि कर्म के प्रति जो अटूट निष्ठा का भाव दिया वह आज मेरी ताकत है ।मुझे कविता और कवि कर्म बहुत ही कठिन और दायित्वपूर्ण कर्म है। उसे पूरा करने के लिये बड़े त्याग और बड़े श्रम की जरूरत है। दूसरे , कवि कर्म की तैयारी के लिए हमें हर समय सजग रहना चाहिए।तीसरे , मुझे अपने क्लैसिक्स बहुत अच्छी तरह समझने होंगे। बहरहाल ,बनारस में रहकर मैं ने कविता रचने को अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य बनाया। पहली कविता वहीं 1956में प्रकाशित होने वाली पत्रिका  ज्ञानोदय में छपी । वहीं मैं ने कवि कर्म को अबाधित बनाये रखने के लिये अंग्रेजी का प्रध्यापक बनने का निश्चय किया। जितना समय , स्वायात्तता , जीवन से नजदीकी और स्वाध्याय यहां संभव है                                                                           महेश चंद्र पुनेठा-‘आप त्रिलोचन जी के काफी करीब रहे उनके बारे में कुछ बताइए ।                                                                               
 विजेंद्र- जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि कवि त्रिलोचन का मुझे बहुत गहरा सान्निध्य मिला वह मन मिजाज और आचरण से कवि हैं। वे अपने क्लैसिक्स को अत्यंत गहराई से जानते समझते हैं। काव्य मर्मज्ञ हैं। कई भाषायें बेहतर तरीके से जानते है। छंद का अदभुत ज्ञान है। मैं ने उन्हें इश्तहारों पर लिखे वाक्यों में छंद खोजते देखा सुना है। जीवनानुभव और व्यापक अध्ययन पर वह सदा जोर देते हैं।उनका मानना हैकि भाषा हम आम आदमी के संर्पक से ही सीख सकते हैं। दूसरे , हमें अपनी बोलियों से अपनी खड़ी बोली को सम्द्ध करते रहना चाहिए। हम अपनी जडें़ कभी न छोडें़। विश्वसाहित्य से सीखें । पर अपने यहां के जीवन को व्यक्त करने के लिए हमें अपनी परम्परा से सीखते रहना चाहिए।उनकी चर्चा में वेद ,वाल्मीकि ,कालिदास ,भवभूति ,तुलसी ,रवीन्द्र ,निराला आदि की उपस्थिति जरूर रहती । जब वे बातचीत करते हैं तो बहुत ज्यादा विषयांतर होते हैं। उनके साथ रहने का अर्थ हैसिर्फ उनको सुनते रहना । जैसा मेरा अनुभव हैवह दूसरे को बोलने का अवसर बहुत कम देते हैं। अतः त्रिलोचन को झेलने के लिए बड़ा धैर्य ,संयम और ज्ञान पिपासा को सतत बनाये रखना जरूरी है। इसमें ही लाभ हैा सुनने की यातना को यदि किसी ने सह लिया तो उसे लाभ ही लाभ है। क्योंकि त्रिलोचन चाहे कितना ही विषय बदलें उनकी बातों में कवि मन को सम्द्ध,जाग्रत , और सिस्क्ष बनाये रखने के लिए बेहद खनिज मिलता है।                                                                                        
महेश चंद्र पुनेठा- उनकी कविता एवं व्यक्तित्व का प्रभाव आपकी रचनात्मकता पर किस रूप में देखा जा सकता है? 
विजेंद्र -दरअसल, त्रिलोचन के व्यक्तित्व का सबसे ज्यादा असर मेरे उपर इस बात का हैकि मैं कविता और कवि कर्म को जीवन की तरह ही पूरी गंभीरता से स्वीकार करूं। उसकी तैयारी के लिए कठिन श्रम और सतत प्रयास जरूरी है। दूसरे ,मैं अपने जनपद ,अपनी धरती , अपने आसपास की प्रक्ति ,सामान्य मनुष्य संघर्ष और क्रिया कलापों को बहुत नजदीक से देखूं ।कविता में संरचनात्मक अनुशासन और काव्य लय का महत्व उनसे जाना और सीखा है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक गहराई से बात कहना मुझे आना चाहिए।कवि को गद्य पढ़ना चाहिए । उससे ज्यादा जहां तक हो लिखना चाहिए । कवि कर्म आकस्मिक नहीं है। वह हमें रात -दिन लगे रहने को विवश करता है। उसके लिए बड़ा तप और त्याग मुझे करने होगें। बहुत सी चीजें छोड़नी पड़ सकती है। मुझे एक अच्छे नागरिक की तरह अपने सामाजिक आचरण पर भी ध्यान रखना होगा । ये बातें उनसे और उन्हीं के धारा के अन्य कवियों से मैं ने सीखी और जानी है। उसका मुझे अहसास है।
महेश चंद्र पुनेठा- आप की दृढ मान्यता है कि एक अच्छा कवि एक अच्छा इंसान भी होता है। क्या इसका मतलब यह माना जाय कि कवि की कविताओं को उसके व्यक्तित्व से अलग करके नहीं देखा जा सकता है?
विजेंद्र -किसी कवि की कविताओं को कैसे देखें इसके लिए अलग अलग प्रतिमान है। जैसा कि मैं ने कहा कुछ लोग कविता और कवि  व्यक्तित्व को अलग करके देखते हैं। बल्कि कहें कुछ तो ऐसे हैं जो कविता का रिश्ता जीवन और समाज से मानते ही नहीं । उन्हें लगता है, कविता उनकी कोई अंदरूनी निजी चीज है ।कवि किसी समाज या जन के लिए उत्तदायी होकर नहीे लिखता ।अपितु वह तो अपने आत्म संतोष को ही लिखता है। पर यह बात मैं नहीे मानता । कविता बहुत कुछ कवि व्यक्तित्व का ही कलात्मक प्रतिबिंब है। पर कवि उसे रूपांतरित करके निजी नहीें रहने देता। यही उसका स्जन है। कहना होगा कि व्यक्तित्व का ऐसा पुनर्सजन जो समाज में निजी होकर प्रतिनिधि बन जाये ।
महेश चंद्र पुनेठा-प्रगतिशील कविता को लेकर अक्सर कहा जाता है कि उसमें वस्तुगत प्रव्त्तियां इतनी हावी थी कि उनके कारण कला और भाववोध की उपेक्षा हुई ,इस तर्क से आप कहां तक सहमत हैं?
विजेंद्र - प्रगतिशील कविता में कला और शिल्प का ध्यान  उतना नहीं रखा गया -यह आरोप कुछ खास तरह की कविताओं पर तो लगाया जा सकता है। पर ऐसी कविताओं की भी उस समय जरूरत पड़ती है जब देश में जनांदोलन तेज हो रहे हों। संघर्ष तीखा हो । तो कई बार हम कविता की बारिकियों को त्याग कर उसे एक हथियार के रूप  में प्रयुक्त करने को प्रेरित होते हैं। ऐसी कविताओं को परखने के प्रतिमान भी अलग होने चाहिए । कई बड़े और समर्थ कवि बड़े जातीय संकट के समय जनता के पक्ष में कविता लिखना तक स्थगित कर देते हैं। निराला ने बहुत सारा गद्य लिख कर जनता के संघर्ष को आगे बढ़ाया । अंगे्रजी कवि मिल्टन ने नृपतंत्र के विरोध में संसद का समर्थन किया । लगभग बीस साल तक उन्होंने गद्य ही लिखा । वह सब राजनीतिक लड़ाई को आगे बढाने वाला गद्य है। आज हम उसे क्लासिक की तरह स्वीकार करते हैं। आज के अनेक जनवादी कवि गद्य लिख कर राजनीतिक सामाजिक हस्तक्षेप कर रहे हैैैं। कवि को गद्य लिखने के लिए -खास तौर पर राजनीति में हस्तक्षेप करने को वैचारिक गद्य लिखने पर बड़े जोखिम उठाने पड़ते हैं। उनकी कविता स्थगित होती है। दूसरे, उन्हें सत्ता और सत्ता पोषित लेखकों से सीधी टक्कर लेनी पड़ती है। कविता में यह खतरा कम है। अतः चालाक और चतुरसुजान कवि गद्य न लिखने के कई बहाने इसी लिए खोज लेते हैं कि वे वैचारिक और पक्षधरता के स्तर पर कहीं पकड़े न जायें । एक बड़े और समर्थ कवि के लिए गद्य उसकी कविता का पूरक होता है। पहले की बात छोड़ें । उस समय गद्य का अस्तित्व ही कहां था। तुलसी वे सब बातें कविता में ही कहते हैंजो सामाजिक हस्तक्षेप के लिए उन्हें गद्य में कहनी चाहिए थी । कबीर ,मीरा और सूर सब यही करते हैं।
महेश चंद्र पुनेठा-21वीं सदी को  उपन्यास की सदी घोषित किया जा रहा है तथा कविता की सामाजिक भूमिका को नकारा जा रहा है ऐसे में 21वीं में सदी में आप कविता के समक्ष कौन कौन सी चुनौतियां देखते हैं और आज की कविता इन चुनौतियों का मुकाबला करने में कितनी समक्ष है?ेे
विजेंद्र-21वीं सदी उपान्यास की सदी या कविता की सदी घोषित की गई है या नहीं यह तो मुझे ध्यान नहीं । पर ऐसे शगूफे वे लोग खिलाते रहते है जिन्हें न तो कविता से ,न उपन्यास से कोई खास दिलचस्पी है। जैसे राजेंद्र यादव कहते कि हिंदी में कुछ लिखा ही नहीं जा रहा। या कुछ कहते हैं कविता का अंत हो गया ।विचारधारा का अंत हो गया है। ये बातें ध्यानकर्षण प्रस्ताव जैसी है। साहित्य की सभी विधायें महत्वपूर्ण हैं। जरूरी हैं। कौन किसको निभा पाता है । यह बात लेखकों के श्रम और प्रतिभा पर निर्भर है। कविता और उपन्यास दोनों ही सामाजिक यथार्थ को कहते हैंेेे।पर दोनों की शैली अलग है। कविता में जो बात दो पंक्तियों में कही जा सकती है वह उपन्यास ,हो सकता है, एक अध्याय में कहे । इसका उलट भी हो सकता है।हम कविता की सामाजिक भूमिका को चाहे कितना ही नकारें पर यदि अपने समय , अपनी धरती और जड़ों से जुड़ी कविता है तो उसकी सामाजिक भूमिका होगी ही। चुनौतियां कविता के सामने ही नहीं है अपितु गंभीर और रचानात्मक साहित्य के सामने भी बड़ी कठिन चुनौतियां है। बल्कि ेेेहर गंभीर रचना कर्म के सामने वे है।आज सारा समाज उपभोग की लालसाओं और मनोरेजन की इच्छाओं को लेकर ही जी रहा है। कविता इन दोनों का वैपरीत्य है- एक प्रकार से । वह न तो बाजारू मनोरंजन करा सकती है। न हमारी उपभोग की लालसाओं को त्प्त कर सकती है। वह एक नये सुसंस्कृत ,उन्नत और चेतन शील मनुष्य का सृजन करती है। उसे बड़े लक्ष्यों के लिए जीना सिखाती है। हमारा जातीय चरित्र निर्मित करती है। क्या हमारा आज का समाज उक्त बातों को अर्जित करने के लिए उत्सुक है? यह बहुत बड़ा सवाल है। कहते हैं जिस देश या जाति का लगाव कविता अैार कला से नहीं रहता वह बर्बरता की ओर बढ़ते हैं। क्या भारत में आज वही समय नहीं है? आज सबसे कम जगह कविता को ही है। वह चाहे मीडिया हो । चाहे हमारा सामाजिक जीवन । चाहे हमारी आंतरिक मांग । हम देखते हैं सस्ते मनोरंजन पर करोड़ांे रूपये पानी की तरह बहा दिये ेेेेेेजाते हैं। पर अच्छी कविता की किताब खरीदने को किसी की इच्छा नहीं होती । हमारे यहां मध्यवर्र्गीय लोगों के घर विलासिता के सामान से अटे पड़े हैं। पर उनके यहां अच्छी पुस्तकों के लिए कोई जगह नहीं है। खिलाड़ियों ,निशाने वाजों , जादूगरों , ज्योतिषियों और सटटेवाजों की बड़ी कद्र है। संगीतकार और चित्रकार भी पर्याप्त धन कमा लेते है। वे लगभग बाजारू हो चुके हैं। पर एक गंभीर कवि जीवन भर अभावों में जीने को अभिशप्त है। जो कविता से सिर्फ पैसा कमाते हैं वे कवि चारण हैं । या हंसोड़ । पर क्या कारण है कि कविता के प्रति ही यह पूंजी केंद्रित समाज इतना अन्यमनस्क हुआ है।  यह एक सवाल है। इस पर सोचना चाहिये। मुझे लगता है
कि पूंजी केंद्रित समाज में सत्ता को लिखित शब्द से ही सबसे ज्यादा खतरा है। क्योकि शब्द 
सीधे यथार्थ से जुड़ा है। एक यथार्थ परक कविता सदा यथास्थिति को भंग करने के सूत्र देती है। वह हमारा मन बदलती है। शेष कलाओं में अपेक्षाकृत समाज को बदलने की सीधी-सीधी 
बात बमुत कम हो पाती है। संगीत में तो कतई नहीं। यही वजह है कि हर पूंजी केंद्रित समाज
में सबसे ज्यादा खतरा। क्योंकि शब्द सीधा वार सत्ता पर करता है। आजकी कविता इन चुनौतियां का अपने स्तर पर सामना कर पा रही है पर सामना कर पा रही है। पर अधिकांश कविता इन चुनौतियों का अपने स्तर पर सामना कर पा रही है। पर अधिकांश कविता में प्रतिरोध की ताकत कम हुई है। वह आज भी मध्यवर्ग के इधर उधर घूम रही हैैैै। फिर भी हमारे पास निराला,मुक्तिबोध,केदार बाबू,त्रिलोचन,और शील आदि की बड़ी लोकधर्मी परंपरा है। 
इस कविता परंपरा को विकसित करने वाले कवि सब में आज  की कठिन चुनौतियांे का सामना कर रहे हैं । भले ही वे अखबारों में रोज न छपते हों । पर उन्होंने जनपक्षधर और सत्ता विरोध की काव्य परंपरा को ढंग से विकसित किया हैंे।
महेश चंद्र पुनेठा- समकालीन कविता को नई कविता से आप किस रूप मंे अलग देखते हैं क्या इसमें कोई स्पष्ट विभाजक रेखा खींची जा सकती है?
विजेंद्र-नई कविता जब अपने कथ्य में आत्मनिष्ठ और अनुभवों में सीमित होने लगी तो हमें सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने के लिए समकालीन कविता नाम चलाना पड़ा । यह सातवें दशक के आसपास हुआ पर इसमें यदि विभाजक रेखा कोई खींची जाती सकती है तो वह है सामाजिक यथार्थ की कहन पर जोर जो नई कविता नहीं कर पाई है। यह एक प्रकार से कविता को आत्मनिष्ठाता के घेर से बाहर निकालने की कोशिश थीै।यह जरूरी था कि कपिता को हम व्यापक सामाजिक यथार्थ व्यक्त करने का माध्यम बनायें।वह हुआ भी । बहुत सफल हुआ। आज कोई अनजान या अपढ़ हिंदी का प्राध्यापक ही नई कविता और समकालीन कविता को गडडमडड करता देखा सुना जाता है।पर आज समकालीन शब्द भी वैसे ही अपना रंग और अर्थ खोता जा रहा है जैसे भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद ।यह कैसी विडंबना 
विजेंद्र - मैं अपने है। समकालीन सही अर्थों में कौन है?इस पर आज पुनः विचार करने की जरूरत है जिस से आम पाठकों में कविता के बारे में भ्रम फैले। आज हालात यह हैकि मध्यकाल की संवेदना से लिखने वाला भी अपने करे समकालीन कहता है। यहां ध्यान रहे कि समकालीनता ठीक आधुनिकता की तरह एकदम काल सापेक्ष होते हुये भी विश्वदृष्टि से इसका गहरा संबंध है। कवियों की हर समय श्रेणियां होती है। उनके वर्ग स्तर होते हैं। जो सत्ता पोषित कवि यथास्थिति के कायल हैं उन्हें यदि हम समकालीन कहें तो यह शब्द के अर्थ को विकृत करना है। आज लोकतंत्र में समकालीन वही है जो अपनी कविता में सर्वहारा के नेतृत्व का पक्षधर है। दूसरे जो कविता में सामान्य की प्रतिष्ठा कर एक नई जनवादी संस्कृति की रचना करना चाहता है।तीसरे यदि कोई कवि अपने समय की आंतरिक गतिकी को पकड़ कर अपना विजन व्यक्त करता हैवही समकालीन है। सौंदर्यशास्त्र की भाषा में यदि कहें तो एक समकालीन कवि वह है जो ऐतिहासिक विकास क्रम में मानव चेतना के अंतिम छोर पर खड़े होकर विश्व की कठिन चुनौतियों को झेल रहा है। आज जो राजभवनों में बैठ कर सत्ता धारियों और उनके अनुयायियों को हंसाते -लुभाते हैंअपनी कविता से वे किसी अर्थ में समकालीन नहीं हो सकते । एक समकालीन कवि अपने समय के सर्वहारा का पक्ष में अपने समाज का रूपांतरण चाहता है। उसे कविता में बताता है।


महेश चंद्र पुनेठा- कविता में कल्पना और अनुभव का सम्मिश्रण कितना और किस हद तक होना चाहिए?
विजेंद्र- कविता में प्रत्यक्ष और परोक्ष जीवनानुभव बुनियादी चीज है। हमारे अनुभवों के आधार पर ही हमारी कल्पना का रचनात्मक स्थापत्य खड़ा होता है। कल्पना हमारी विधायिनी शक्ति है। वह एक प्रकार से चिंतन प्रक्रिया ही है। फर्क है कि कल्पना का चिंतन बिंबों के सहारे होता है। उसी से हम काव्य रूपकों की खोज करते हैं । अनुभव विचार और कल्पना तीनों का सामानुपातिक संयोजन ही कवि को श्रेयस्कर हैं।ेे
महेश चंद्र पुनेठा-‘ कहा जाता है कि आज आलोचना कर्म में हदबंदी , गुटबंदी ,चकबंदी और व्यक्तिगत आग्रहों-पूर्वाग्रहों का बोलबाला है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
विजेंद्र - यह सही है कि आज आलोचना कर्म मे हदबंदी ,गुटबंदी ,चकबंदी और व्यक्तिगत आग्रह -पूर्वाग्रह बहुत ज्यादा है। वैसे हर समय होता है। आज इसलिए ज्यादा लगता है क्योंकि हमारे पास सूचना तंत्र बहुत ही व्यापक और मजबूत है। कोई भी बात कहीं घटित होती है हम तुरंत जान जाते हैं। मीडिया और प्रकाशन का जाल फेला हुआ है। कोई भी बात हो उसे बहुत ज्यादा प्रचारित कर दिया जाता है। पर फिर भी यह सच है कि आलोचना ने अपनी विश्वसनीयता खोई है। यह भी उस व्यवस्था का ही दुष्परिणाम हैजहां हर सार्थक चीज को निरर्थक बना दिया जाता है। यह उसी मूल्यहीनता की विकृति हैजो पूॅंजी केंद्रित व्यवस्था से हमें विरासत मंे मिली है।ेेेेेेेहमें हर जगह निजी लाभ चाहिए । और तत्काल चाहिए ।उसके लिए चाहे साधन कितने ही बुरे अपनाने पड़ें। ऐसा आज की राजनीति में तो हैही साहित्य में भी है।हम मे ंसे अधिसंख्यक जीवन मूल्यों को नहीं अपितु उपभोग्य वस्तुओं की लालसाओं को जीते -मरते है।आलोचना आज लेन देन का विषय हो गई । वह प्रायोजित है। साधन संपन्न मामूली और मझौले लेखक रातों रात बड़े कवि बन कर अखबारों की सुर्खियों में छाजाते हैं।ेेेेेेेेेजो अटूट साधना कर रहे हैं उन्हें हाशिए में धकेल दिया जाता है। सारा परिदृश्य इसी तरह के प्रदूषण से आक्रांत है। यहां तक कि आलोचक स्वयं यह कहने लगे हैं कि आलोचना अपना धर्म नहीं निभा पा रही है। वह लाभ हानि को देख कर लिखी जा रही है। एक तरह वहां मूल्य निर्णय न होकर वहां प्रायाजित निर्णय लिये जाते है। यही कारण है कि आज कवि और आलोचक दोनों की औसत आयु बहुत कम हो चुकी है। दोनों का समाज में सम्मान भी गिरा है। हम में न तो धैर्य है । न बड़ा त्याग । न अटूट साधना । हमने अपनी परंपरा को भी भुलाया है। कुछ तो अज्ञान से । कुछ अहंकार से कि उसमें सीखने को क्या है।ेे
महेश चंद्र पुनेठा-कविता के नए प्रतिमान को लेकर आपकी अनेक असहमतियां रहीं हैं। उस पर कुछ प्रकाश डालिए?
विजेंद्र-  कविता के जो नए प्रतिमान रचे गए उनका सबसे बड़ा अंतर्विरोध है कि कृतियां यहां की और प्रतिमान अमरीका के। यानी देसी घोड़ी,चाल विलायती।दूसरे,जिन कविताओं को नए प्रतिमानों के लिए चुना गया वे हमारी जातीय कविता की मुख्य धारा के कवि नहीं हैं। फिर वे इतने भरोसेमंद कवि भी नहीें हंै कि उनके प्रतिमानों को माॅडल मान लिया जाए।अगर कविता के नए प्रतिमान रचे जाते समय,मान लो,बहुत भरोसेमंद कवि उपलब्ध नहीं थे,तो अपने पूर्ववर्ती कवियों में से चयन किया जा सकता था। आचार्य शुक्ल जब कविता के अघोषित प्रतिमान रच रहे थे तो उन्होंनेे अपने समय से बड़े कवियों-निराला,पंत,महादेवी और जयशंकर प्रसाद को केंद्र में न रख बहुत पहले के कवियों-तुलसी,सूर,जायसी को लिया पर जो प्रतिमान उन्होंने रचे-या उन्होंने जिन कवियों को या कृति को जो मान स्थान दिया-उसे आज तक कोई छीन नहीं पाया। कबीर के बारे में एक अपवाद हो सकता है पर कबीर पर उन्होंने कुछ ऐसा कहा ही नहीं जो उसे प्रतिमान के साथ रखा जा सके।यह उनकी सीमा हो सकती है।
महेश चन्द्र पुनेठा-हमारी आलोचना के अधिकांश बीज शब्द यूरोप के सौंदर्यशाष्त्र से लिए गए हैं क्या हमारी परंपरा इस संबंध में कमजोर?आप इसे कहाॅ तक ठीक मानते हैं? 
विजेंद्र-इस में संदेह नहीं कि हमारी हिंदी आलोचना में अधिकांश बीज शब्द यूरोप के समीक्षा शास्त्र से लिए गए हैं। इसके मुख्य दो कारण हैं। एक तो अपनी काव्य और काव्यशाष्त्र की सुदीर्घ आंैर समृृद्ध परंपरा से विमुख होना। दूसरे,अपनी जातीयता से गहरे लगाव की कमीै। यही कारण है कि हम आज अंग्रंेजी भाषा की दासता से मुक्त नहीं हो पाये। हिंदी भाषा का
आज कितना सम्मान है यह बात किसी से छिपी नहीं।जब तक हम अपनी भाषा और जनपदीय बोलियों को बड़ा सम्मान नहीं देंगे हम अपनी भाषा में वैचारिक और रचनात्मक  स्तर पर कोई बडा औैर मौलिक काम करने में समर्थ न होंगे। जिन लोगों ने हिंदी में कालजयी का कार्य किया है। वे वहीं हैं जिन्होंने हिंदी के लिए बडा त्याग किया है। हमारी परंपरा कमजोर नहीं है। अपितु हमने उसे अभी वैज्ञानिक ढंग से देखा परखा ही नहीं हैं। इस दृष्टि से आचार्य शुक्ल और डा0रामविलास शर्मा के कृतित्व से अनुमान लगा सकते हैं कि हमारी परंपरा कितनी समृद्ध और प्रासंगिक हैै।
महेश चन्द्र पुनेठा-कृति ओर के संपादक के रूप में आप काफी सफल रहे है।लेखक और पाठकों से आपका निरंतर संवाद बना रहता है। आप सम्पादन एवं लेखक कर्म के साथ इस के लिए समय कैसे निकालते हैं?
विजेंद्र- कृति ओर के संपादक के रूप में मेरा सफल होना तुम मानते हो। यह तुम्हारी सदाशयता है। दरियादिली कहूं पर में स्वयं को बहुत सफल नहीं मानता।हाॅ यह जरूर चाहता
रहा हॅू कि दूरदराज के लेखकों से सीधा संवाद करके उन्हें जनपक्षधरता की ओर मुड़ने को प्रेरित कर सकूं।वह भी यह कहकर कि वे अपने यहाॅं के आम आदमी वहाॅ की प्रकृति और आस-पास की घटनाओं को कलात्मक ढंग से अपनी कविता में प्रस्तुत करें। मुझे नहीें पता कितना इस में सफल हो पाया हूं। कृति ओर के माध्यम से हमने कुछ ऐतिहासिक गलतियों को,जो समीक्षा में हुई हैं अपनी तरह सुधारने का यत्न भी किया है उसका बड़ा विरोध हुआ।पर बहुत से लोगों ने जब सच्चाई को समझा तो हमारी हौंसला अफजाई भी की।कृति ओर हमारे लिए संघर्ष करने का माध्यम बन चुका है। 
महेश चन्द्र पुनेठा- आप दूरस्थ जनपदों में बैठ रचना कर्म कर रहे लेखकों को सामने लाने के लिए विशेष रूप से प्रयासरत रहते हैं। वे हमेशा आपकी प्राथमिकताओं में बने रहते हैं। वो कौन से सरोकार हैं जो आपको इसके लिए निरंतर प्रेरित करते रहते हैं?
विजेंद्र-जैसा मैंने कहा कि जनपद के लेखक अपनी जड़ों, जनता और यथार्थ के बहुत नजदीक होते हैं। इसीलिए मैं उनसे संवाद बनाये रखना चाहता हूं। उन्हें कृति ओर में भी महत्व दिया गया है। तुम जानते हो। अनेक कवि सामने आये हैं। अनेक ने अपनी पहचान बनाई है। अब वे कितना उसे विकसित कर पाते हैं-यह उनके उपर है। यहाॅ एक बुरा अनुभव हुआ है। कुछ लेखकों ने जब कृति ओर से अपनी पहचान बना ली उसके बाद वे फिर उसी धारा में शरीक हो गये जिस पर उच्च वर्ग का वर्चस्व है।ऐसी अवसरवादिता लेखक की मौत के समान है। अपनी रचना और जमीर से छल करके कोई लेखक देर तक जिंदा नहीं रह सकता।वह अपना लेखन  ही नहीें खोता अपितु व्यक्तित्व को भी विघटित करता है। राजनीति में ऐसे लोग बहुत हैं । ऐसे लेखकों के पास न तो  कोई अपना बड़ा विजन होता है। न उनके बड़े सामाजिक सरोकार होते वे चाहते हैं समाज किसी तरह उन्हें लेखक मानता रहे । वह कभी नहीं होता । अखबारों में छपकर लेखक याद नहीं किया जाता। वह याद किया जाता है अपनी उन रचनाओ के लिए जो आगे पीछे आदमी के मन में रमी होती है।इसके लिए कोई समय सीमा नहीं हो सकती है। देखा गया है कि एक बड़ा लेखक अपने समय में न तो लोकप्रिय होता हैऔर न मूल्यांकित । शायद इसलिए कि वह आगे का कवि होता है। उसे बड़े धैर्य से प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह प्रतीक्षा क्यों न करे । उत्पीड़ित संघर्षशील जनता को सारे दुख और उत्पीड़न झेलकर अच्छे समय आने का इंतजार करना पड़ता है। एक दिन विजयी जनता का संघर्ष ही होता है। यह सच है। आज भी । कल भी । इसी लिएजो लेखक बड़ी सच्चाई और इमानदारी से  जनता के संघर्ष से अपने को जोड़े रहते है वे अपनी रचना के लिए धैर्य रखते हैं। उन्हें प्रतिष्ठा और सत्ता द्वारा प्रायोजित पुरस्कारों की चाहत नहीं होती । वह उन्हें अपने रास्ते का रोड़ा समझता है। जिस जनता के हम पक्षधर हैं-यदि वह उपेक्षित है तो हमारी उपेक्षा हमारे लिए गौरव का विषय है।यही एक कवि की प्रतिबद्धता है जिसे उसे निभाना चाहिए । कृति ओर से इस विचार को लगातार हम अपने पाठकों तक ले जाना चाहते हैं। हमारी बहुत सीमाऐं हैं।पर यह करते रहें ,यह प्रबल इच्छा हमें चैन नहीं लेने देती। और यही मेरे सरोकार हैं जो कविता रचने को प्रेरित करते हैं।और कृति ओर का संपादन करने के लिए भी।
महेश चन्द्र पुनेठा-लघु पत्रिका आंदोलन को लेकर आपकी कुछ असहमतियां हैं,इस बारे में कुछ बताइये।फासीवाद,सामा्रज्यवाद तथा बाजारवाद के इस दौर में इन पत्रिकाओं की क्या भूमिका है?
इस भूमिका को प्रभावी बनाने के लिए कौनसे उपाय किए जाने चाहिए?
विजेंद्र- मैं लघु पत्रिका शब्द से सहमत नहीं हूं।यह शब्द ही गलत है जो गलत है उसका सही प्रभाव कैसे हो सकता है।सही शब्द है जनपक्षधर पत्रिका।जनतंत्र में हम यदि जनता के संघर्ष से जुड़े रहना चाहते हैं तोहमें अपने सरोकारों को बहुत साफ ढंग से पेश करना होगा। जनवादी मूल्यों को यदि ये पत्रिकाएं प्रतिष्ठित करने को वचन बद्ध हैतो उसके लिए उपयुक्त शब्द है जनपक्षधर। लघ्ुा शब्द दस संदर्भ में न केवल निरर्थक है अपितु बहुत ज्यादा भ्रामक भी।इस पर बहस करने को कोई तैयार नहीं। कुछ लोगों ने इस बात को स्वीकार किया है। मसलन सूत्र पत्रिका नेएक पूरा अंक जनपक्षधर पत्रिका के विचार को ही लेकर निकाला है। उसे लोगों ने सराहा । इसी तरह सही समझ पत्रिका भी जनपक्षधर नाम को सही मानती है। सर्वनाम भी। मैंने देखा कि इस पर लोग नए ढंग से सोचने को तैयार नहीं। ढर्रे से जीने के आदि हो चुके हैं। यदि नाम बदल दिया जाए तो जैसे आने वाली क्रंाति रक्त जायेगी।कई बार यह भी लगा कि ज्यादातर लोग आज गोल मोल भाषा बोलकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। जनपक्षधर कहने से एकदम हम सत्ता से प्रतिरोध की मुद्रा में होते हैं। हमारे ज्यादातर संपादक-भले ही जनवादी हों मन और मिजाज से कुलीन मध्यवर्गीय आदतों से परेशान हैं। वे नहीं चाहते कि इतनी सीधी भाषा का इस्तेमाल किया जाये। अब पत्रिकाओं के निहित स्वार्थें भी हो गये हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन चाहिए। विदेशी दूतावासों में खरीद चाहिए। तो अनेक समझौते करने को हमें विवश होना पड़ रहा है।
इन पत्रिकाओं ने वैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाइ्र्र है। पर सामा्रज्यवाद ,फासीवाद से लड़ने को संस्कार और संवेदना वे पैदा नहीं कर पाई। बाजारवाद का प्रतिरोध हम तभी कर पाएंगे जब स्वयं उससे दूर रहे। आज अनेक तथाकथित लघु पत्रिकाएं बाजार के रंग में रंग चुकी हैं। उनके तेवर ढीले हैं।वे यूरोपीय आधुनिकतावाद लेखकों से घिरी हुई हैं। उन्हें अपनी परंपरा और जातीयता से कोई गहरा सरोकार नहीं दिखता। साम्राज्यवाद और फासीवाद का विरोध हम एक ऐसी विचारधरा के बल पर ही कर सकतेे हैंजो सर्वहारा के व्यवस्थित नेतृत्व में विश्वास करती हो।वह सिर्फ माक्र्सवाद ही है,जिसके नाम लेने मेें अब बहुत से जनवादी गुरेज करने लगे है।यदि उक्त खतरों सें कारगर ढंग से लडना है तो हमें पहले तो निहित स्वाथों की सीमाओं से उभर उठना होगा।दूसरे,हम मन से यह स्वीकार करें कि जनपक्षधर पत्रिकायंे सर्वहारा संस्कृति को निर्मित करने को एकजुट होगी।हम अपने अतीत की पुनव्र्याख्या कर अपनी परंपरा के प्रगतिशील तत्वों को आत्मसात करेंगे।बिना जनता के संघर्ष से जुड़े हम उक्त खतरों से नहीं लड़ सकते ।उनसे हमें दो स्तरों पर लड़ना होगा राजनीतिक स्तर पर सारी वाम शक्तियों को सारे मतभेद भुलाकर एक होना पड़ेगा। दूसरे,सांस्कृतिक स्तर पर लड़ने के लिए सभी जनपक्षधर पत्रिकाओं को सर्वहारा संस्कुति के सर्जन  में लगाना होगा।यह कार्य बहुत कठिन जरूर है।पर इसे कर पाना असंभव नहीं। यदि हम इसे नहीं करेंगे तो कल संघर्षशील जनता जब चेतन होगी तो वह इसे करने को विवश होगी। 
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Monday 24 October 2011

कविता में सरसता और जीवंतता का ह्रास हुआ है


वरिष्ट साहित्यकार व चिंतक मोहन श्रोत्रीय जी का इस साक्षात्कार की पिछली कड़ियों को पढ़कर कहना है कि जीवन सिंह कि गिनती इस समय के समर्थ आलोचकों में होती है तो अकारण नहीं होती. उनका अध्ययन-मनन बोलता है इन साक्षात्कारों में, जैसे अन्यत्र भी.  वैसे .....बेहतर होता कि पूरा साक्षात्कार एक साथ दे देते. चीज़ें समग्रता में बेहतर समझ में आती हैं.उनके सुझाव को मानते हुए हम यहाँ बातचीत का शेष भाग एक साथ प्रस्तुत कर रहे हैं -




महेश  चंद्र पुनेठा -समकालीन कविता के बारे में कहा जाता है कि वह संकटग्रस्त है , उसके पाठकों की संख्या में काफी कमी आई है। उसमें रागात्मकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ा है । संप्रेषण क्षमता का ह्रास हुआ है। यह कहा जाता है कि छंद के बंधन से मुक्त होना इसका प्रमुख कारण है। कविता के सुधी आलोचक होने के नाते समकालीन कविता की मौजूदा स्थिति पर आप क्या सोचते हैं ?
डा0 जीवन सिंह - जहाँ तक समकालीन कविता की मौजूदा स्थिति का सवाल है वह इतनी संकटग्रस्त नहीं है जितना कि उसका हो-हल्ला मचाया जा रहा है। कविता एक ऐसा सौंदर्यात्मक अनुषासन है जिसकी नियति में हर समय में कुछ न कुछ संकटग्रस्त रहना बदा होता है। उसका आधार है जीवन । वह जीवन की पुनर्रचना है । जब जीवन ही संकटग्रस्त रहेगा तो उसकी सृष्टि उससे मुक्त कैसे होगी। जहाँ तक पाठकों की संख्या का सवाल है उसका सही आँकड़ा हमारे पास नहीं है। मेरे ख्याल से वह आँकड़ा भी इतना कमजोर नहीं होगा । जितना कि कहा जा रहा है। हमें इस बात को समझना चाहिए कि जिस बात का हम जिक्र कर रहे हैं उसका एक विषेष अनुषासन होता है। उसकी एक परम्परा है उसका अपना एक षास्त्र है। वह दर्षन ,इतिहास ,समाज आदि की जटिलताओं को अपने भीतर समाकर चलती है। तब कैसे संभव है कि कोई भी आसानी से ग्रहण कर लेगा । पाठक को भी उसे समझने के लिए प्रयास करने की जरूरत होगी। कविता कोई गुड़ का पुआ नहीं कि हमारे मुँह में आते ही हमारा मुँह मिठास से भर जाए । मेरी बात का आप यह मतलब न निकाल लें कि आज की उस सारी कविता का समर्थन कर रहा हँू जो ढेर की तरह सामने आ रही है। लोकतंत्र का जमाना है सबको सामने आने का मौका मिला है । मध्यवर्ग के पास पैसे की फुसलात भी हुई है। कविता में मंच और प्रपंच दोनों बढ़े हैं। जैसे बरसात के मौसम में बड़े पेड़-पौधों के संग बहुत सारी खरपतवार भी उग जाती है। वैसा ही हाल रचना के मौसम का भी है। 
आपने अपने सवाल में एक साथ कई सवाल पिरो दिए हैं । कविता के पाठक का संकट हमारी उस व्यवस्था का संकट भी है जो संस्कृति और जीवन-मूल्यों के सवालों को हमेषा दर किनार करती है। हम जिस समय में साँस ले रहे हैं ,वहाँ षब्दों के प्रयोग का  संकट सबसे ज्यादा बढ़ा है। दुनिया में बाजर-प्रसार के नाम पर बढ़ तो सम्राज्यवाद रहा है और वैष्वीकरण के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है। बढ़या जा रहा है धर्मांधता को ,अवैज्ञानिकता को , संकीर्णता और अंधविष्वास को  ,जाति और संप्रदायवाद को और कहा जा रहा है कि यह समय उदारीकरण का है। जो उदारता एक सामाजिक जीवन मूल्य है ,उसे एक साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था में घसीटा जा रहा है। तेजी से चीजों को निजीकरण किया जा रहा है और प्रचारित किया जा रहा है कि इससे समाज का भला हो रहा है। तो इससे उस कविता का पाठक कैसे बढ़ेगा जो इन सभी के प्रतिरोध मेें खड़ा है। तभी तो कबीर अपने जमाने में चलती चक्की को देखकर रो दिए थे कि दो पाटों के बीच कोई साबुत नहीं बचा है। साबुत कुछ दाने बचे हैं , जो कीलामानी के पास हैं तो यह बेहतर लोगों की संख्या की कमी की ओर ही संकेत है। 
एक बात आपने पूछी है कि समकालीन कविता की संकटग्रस्तता का एक कारण उसमें गद्यात्मकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ना है और उसकी संपे्रषण क्षमता का ह्रास होना है और इसका कारण है उसका छंद के बंधन से मुक्त होना । पहली बात तो यह है कि जब धूमिल जैसे कवि ,कविता में सपाटबयानी का मुहावरा लेकर आए थे तब इससे इसकी संप्रेषणीयता बढ़ी थी , ह्रास नहीं हुआ था। जब आप सपाट मुहावरे में अपनी बात कहेंगे तो यह आसानी से समझ में आएगी। तो सपाटबयानी संप्रेषण क्षमता को द्योतक हे जिसमें बयान कविता के केंद्र में आया और यह बिंब के विरोध में आया। जबकि आचार्य षुक्ल की मानें तो कविता में अर्थग्रहण नहीं बिंब ग्रहण होता है अर्थात वहाँ जो अर्थ आता हेै वह बिंब के माध्यम से आता है। बिंब ,प्रतीक ,रूपक , व्यंजनाएँ ,फेंटेसी , मिथ ,वक्रोक्तियाँ आदि कविता की कला को व्यक्त करने वाले माध्यम रहे हैं।जिनसे सीधे कविता की संपे्रषण क्षमता प्रभावित होती है और एक पृथक किंतु सुंदर और नियोजित रास्ते से कवि-भावों तक पहँुचना पड़ता है।
हम क्यों न स्वीकार करें कि कविता के पाठक की ग्रहण क्षमता का भी ह्रास हुआ है। आखिर गृहीता की भी कुछ जिम्मेदारी तो बनती ही है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि कविता एक सौंदर्यात्मक अनुषासन है , जहाँ अंधेरे के बीच उजालों का द्वंद्व चलता है और इस तरह से हम यहाँ अंधेरे की ताकत और उजाले की षक्तियों-संभावनाओं से परिचित होते  हैं। एक जमाने में रीतिकवि केषव को कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता था और कहा जाता था कि कवि को देन न चहै विदाई ,तो पूछो केषव की कविताई । इसके बावजूद केषव की कविता को समझ लिया गया। यह अलग बात है कि षुक्ल जी ने उनके कवि के लिए लिखा है कि केषव को कवि हृदय नहीं मिला था। एक कवि में जैसी भावुकता और सरसता एक कवि में होनी चाहिए थी वह केषव में नहीं थी।आचार्य षुक्ल के सामने कविता को मापने का एक बड़ा पैमाना था ,जिसमें सरसता और भावुकता को खास तरजीह दी जाती थी। यह खासियत थी सूर और तुलसी की कविता में । जैसे समकालीन काव्य संसार को मुक्तिबोध की कविता के पैमाने में देखा जाय तो उनकी तुलना में रघुवीर सहाय , श्रीकांत वर्मा ,कुँवर नारायण आदि कवि पीछे रह जाते हैं तो जिसे आज हम गद्यात्मक कह रहे हैं ,वह कविता में सरसता और भावपरायणता का ह्रास है। दरअसल बौद्धिकता के ज्वार में हमने कविता में सरसता और भावपरायणता को इतना दरकिनार किया कि ये बातें कविता के लिए अछूत जैसे बना दी गई है। इनमें उन काव्य आलोचकों का हाथ भी रहा जो अपनी काव्य परम्पराओं को भूलकर विदेषी काव्य चिंतन के पीछे इतने पड़े कि अपनी सुध-बुध ही भूल गए । इसलिए गद्यात्मकता की जगह हमें कहना चाहिए कि कविता में सरसता और जीवंतता का ह्रास हुआ है। कोई अभागा समय ही होगा जो सरसता और भावपरायणता जैसे प्राण तत्वों से उसकी मुक्ति की बात करेगा । कविता या साहित्य के अन्य रूपों की रचना उन सामाजिक परिस्थितियों में होती है जो हर युग में नयी होती हुई भी कहीं अपनी परंपरा के सूत्रों से संबंध बिठाए रहती है। हमारे यहाँ गद्य साहित्य की रचना ,जितनी पष्चिमी प्रभाव में हुई ,उतनी कविता नहीं । इसका सीधा सा कारण है हमारे यहाँ कविता की सुदीर्घ एवं समृद्ध परंपरा का होना । उसकी अनदेखी करके जो रचना होगी , वह नई और आधुनिक तो अवष्य होगी पर आत्मिक स्तर पर उतनी समृद्ध व पूर्ण नहीं होगी । इस वजह से कभी हम कविता में छंद का सवाल उठाते हैं तो कभी लय का। यह दुविधा है । जब हमने छंद से मुक्ति लेकर मुक्त छंद को अपना लिया है तो फिर बजाय मुक्तिछंद के वैषिष्ट्य और विविधता को संपन्न करने के हम छंद वापसी की बातें करने लगे। मान लीजिए छंद वापसी हो भी गई तो फिर दोहा छंद होगा या चैपाई होगी । मात्रिक छंद होंगे या वार्णिक या आल्हा का वीर छंद होगा या रीतिकालीन कवित्त और सवैये । कहा जा सकता है कि यह कुछ होगा तो अभी से कल्पना कीजिए कि बौद्धिक पिछड़ेपन और अग्रगामिता का कैसा वातावरण बनेगा ? इससे गद्यात्मकता का क्षरण तो अवष्य हो जाएगा लेकिन छंद का जो रीतिवाद और रूढ़िवाद पैदा होगा ,उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। यह वैसे ही जैसे आज कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था जातिवाद ,संप्रदायवाद ,पूँजीवाद ,बहुलवाद आदि की विकृतियों से परेषान होकर यह कहने लगे कि इससे तो राजाओं का राज , अंग्रेजी राज और सैनिक तानाषाही अच्छी । स्वाद बदलने के लिए या प्रयोग के लिए छंद में लिख लेना अलग बात है लेकिन अपने समय की जटिलता को व्यक्त करने के लिए छंद में लिख लेना अलग बात है लेकिन अपने समय की जटिलता को व्यक्त करने के लिए छंद का लौटना षायद ही गुणकारी हो ।  यह सभ्यता के विभिन्न चरणांे का सवाल है , न कि अकेले छंद का । हम जैसे अपनी -अपनी वेषभूषा को विषेष समारोहों पर धारण करके प्रसन्न हो लेते हैं ।लेकिन सामान्यतः मध्यवर्ग की वेषभूषा पेंट-षर्ट हो चुकी है । उसी तरह छंद की बात है। हम जहाँ तक आ चुके हैं उससे पीछे लौटना ,मेरी राय मंे न उचित है और मुष्किल काम तो यह है ही।


महेश  चंद्र पुनेठा -छंद के बंधनों से मुक्त होने के बाद से कविता गद्य के एकदम नजदीक चली गई है। कभी-कभी कविता के बाह्य स्वरूप को देखकर कहना कठिन हो जाता है कि यह कविता है या कोई गद्यांष । उदाहणस्वरूप मंगलेष डबराल की ’ चंुबन’ , ’ वापसी ’ ,’ लीपाइ’ ,’ धूल’ जैसी कविताएँ । आखिर इन कविताओं में वे कौन से तत्व हैं जो इन्हें कविता बनाते हैं या फिर ये कहें कि वे कौन-सी बातें हैं जो कविता को गद्य बनाती हैं।
डा0 जीवन सिंह - निःसंदेह आज का कवि कविता में कई तरह के प्रयोग कर रहा है। इसमें इस प्रयोग ,कविता के रूप को गद्यात्मक बना देना भी है । यद्यपि इससे पहले भी गद्य काव्य की एक परम्परा रही है। प्रसाद जी अपने गद्य को काव्यात्मक बनाते ही थे लेकिन उस परम्परा में गद्य में भावुकता को विषेष प्रश्रय दिया जाता था। आज की कविता की प्रकृति सरसता , संक्षिप्ति तथा संष्लिष्टता से बनती है ,जबकि गद्य की वैचारिकता ,विस्तृति और विष्लेषणपरकता से। वैसे एक दूसरे के आँगन में इनकी आवाजाही भी होती है ,क्योंकि साहित्य के रूप में ये दोनों ही हैं। इसलिए जहाँ गद्य में या कहें मुक्तछंद में कविता की प्रकृति का समावेष है। वहाँ वह कविता है और जहाँ खालिस गद्य की प्रकृति है वहाँ गद्य । वैसे मुक्तछंद और गद्यात्मकता में फर्क है। मुक्तछंद ,छंद की रूढ़ि से मुक्त होता है अपनी छांदस प्रकृति से नहीं। कवियों के मुक्तछंद का अध्ययन विष्लेषण अभी चूँकि नहीं के बराबर हुआ है ,इसलिए मुक्तछंद का कोई स्वरूप नहीं बन पाया है। फिर भी कवि अपने वाक्यों को छोटा बड़ा करके विराम चिह्नों का उपयोग करके आंतरिक तुकों और सादृष्य विधान लाकर के किसी टेक पंक्ति के दुहराव से कहीं एक ही अर्थ की माला बनाकर के मुक्त छंदों का सृजन करते हैं। निराला के कवित्त छंद को तोड़कर मुक्त छंद के रूप में फैलाया ही है। मुक्तिबोध की कविता में आंतरिक तुकों का संयोजन और लहजे में लय की सृष्टि मुक्तछंद निर्मित के उद्देष्य से की गई।नागार्जुन ,त्रिलोचन ,केदार ,षमषेर को सभी तरह के प्रयोग करते रहे हैं। रघुवीर सहाय ने भी अपना मुक्तछंद बनाया है। सर्वेष्वर मंे भी छंद से परहेज नहीं है। विजेंद्र ने कितनी ही तरह के प्रयोग कविता में किए हैं। ज्ञानेंद्रपति, राजेष जोषी , अरूण कमल ,एकांत श्रीवास्तव सभी ने अपने-अपने मुक्त छंद के प्रमाण हैं। 
  यह रूढ़िमुक्ति ही है और समय के जटिल होने की जरूरत जो कविता को गद्य की ओर नहीं वरन मुक्तछंद की ओर अग्रसर करती है। छंद मुक्ति और मुक्त छंद में फर्क होता है। कविता मुक्तछंद की सृष्टि है छंद से पूर्ण मुक्ति नहीं।
 महेश  चंद्र पुनेठा - छंद को लेकर वरिष्ठ कवि अरुण कमल का कहना है कि जिसने छंद नहीं सीखा ,जिसने छंद को उन कार्यों के लिए उसी प्रकार इस्तेमाल नहीं किया ,जिस तरह वह निचाट गद्य को करता है ,उसका कवि जीवन अधूरा है । क्या इस तरह पिछले छः-सात दषकों से लिख रहे अधिकांष कवियों का जीवन अधूरा नहीं रह जाता है ,जिसमें स्वयं अरुण कमल भी एक हैं ?
 डा0 जीवन सिंह - छंद को लेकर अरुण कमल की बात से मैं सहमत हूँ । जिसे अपनी छंद परम्परा और लोक जीवन की छांदिकता का ज्ञान नहीं है ,वह जिस कविता की सृष्टि करेगा ,वह आधुनिक तो होगी ,जातीय परम्परा वाली और देषी आधुनिकता से संपन्न नहीं।निःसंदेह उसका कवि जीवन अधूरा होगा। छंद सीखने से यहाँ कतई मतलब नहीं है - छंद में काव्य सृष्टि करना । जैसे अच्छे गायक को केवल अभ्यास ही नहीं होना चाहिए । सुर-ताल की भी कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आधुनिक संगीत को ही ले लीजिए , वह बहुत सी पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति की ओर अग्रसर है। चित्रकला ,मूर्ति षिल्प में भी पुराना छंद टूट रहा है। चित्रकला के रंगों और रेखाओं की संरचना में परिवर्तन आया है। चीजें सभी दिषाओं में परिवर्तन की ओर है , फिर कविता ही उससे अछूती कैसे रह सकती है।
 पिछले छः-सात दषकों से लिखने वाले कवियों में जो प्रतिनिधि कवि रहे हैं ,उन सभी को छंद का ज्ञान रहा है । अनुकरणीय कवियों की बात और है । अन्यथा राजेष जोषी ,अरुण कमल तक छंद की षास्त्रीयता का बारीक ज्ञान कदाचित न हो लेकिन उसका अभ्यास अवष्य है। या फिर वे इतना ज्यादा जानते हैं कि उनको अपनी कविता मुक्त छंद में रचनी है। समय भी इस तरह के अभ्यास में संलग्न रखता है। जो लोग गायक नहीं होते ,वे भी गाने का प्रयास करते हैं । औरतें अपने गीतों के छंद अपने आप बना लेती हैं। एकांत श्रीवास्तव जब लिखते हैं - गुलाब की कलम की तरह/माँ ने मुझे रोपा / जीवन की क्यारी में। यहाँ प्रयुक्त रूपक ने गद्य को छंद में बदल दिया है । एक ऐसे छंद में ,जिसका कोई नाम नहीं क्योंकि वह कोई मुक्त छंद है।कविता के वाक्य की विषेषता होती है कि हम उसके स्थान को कहीं भी बदल सकते हैं । फिर भी उसका अर्थ-सौष्ठव बदलता नहीं । जबकि गद्य में वह बदल जाता है।
महेश  चंद्र पुनेठा -आज कविता छंद से भले ही मुक्त हो गई है , फिर भी उसके लिए लय का होना जरूरी माना जाता है। कविवर विजेंद्र भी कहते हैं - कविता में छंद नहीं , लय प्रमुख है। छंद उसकी एक प्रजाति है। लय का रिष्ता सिर्फ षिल्प के ऊपरी ढाँचे से न होकर कविता की अंतर्वस्तु में व्याप्त हमारी मानवीय निजता एवं प्राण षक्ति से भी है।  आप भी लय को विषेष तरजीह देते हैं । कुछ अन्य , अर्थ की लय ,आतंरिक लय और जीवन की लय की बात करते हैं ,लय के इन विविध रूपों का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि कविता में हम लय की पहचान कैसे कर सकते हैं ? यदि लय का संबंध वाचन से होता है तब कविता के लिखित रूप में इसे किस तरह व्यक्त किया जा सकता है ?
डा0 जीवन सिंह -आपके प्रष्न का केंद्र लय है। मतलब साफ है , यदि कविता के लिए छंद जरूरी नहीं है तो उसकी रागात्मकता में लय का निर्वाह होना चाहिए । जो लोग अर्थ की लय ,आतंरिक लय और जीवन की लय की बात करते हैं , इनका अर्थ क्या है ? यह तो वे ही बता सकते हैं। वैसे लय का संबंध इन सभी से होता है , लेकिन उसका इन रूपों में विभाजन करने का कोई पुष्ट और तर्क संगत आधार नहीं है। इसमें भी अर्थ की लय जैसी धारणा का कोई सुनिष्चित अर्थ नहीं है। अर्थान्विति को यदि अर्थ की लय कहा जा रहा है तो ठीक है फिर भी अर्थ की लय का भंग कई बार हो जाता है और कई बार करना पड़ता है । लय का संबंध कविता के रूप विधान से है ,जो कविता के लिए प्रयुक्त वाक्यों ,वाक्यांषों और षब्दों का एक प्रवाहमयी संयोजन करके पैदा की जाती है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक आई.ए.रिचडर्स ने आंतरिक अन्विति की बात कही है। जबकि निराला ने मुक्त छंद के लिए प्रवाह को ही मुख्य माना है। प्रवाह का एक रूप पहले छंद निर्धारित करता था जिसे लिखित रूप में भी आसानी से पहचाना जा सकता था। अब क्योंकि वह छंद मुक्त है , इसलिए उसकी असली पहचान तो वाचिक रूप में ही संभव है। हालांकि उसका भी एक निष्चित रूपाकार बन गया है।


महेश  चंद्र पुनेठा - आपने कविता केे सौंदर्यषास्त्र की चर्चा करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि आज की कविता में जितनी कवायद अर्थग्रहण की हो रही है उतनी बिंब ग्रहण की नहीं । क्या इसके लिए कवियों की अपेक्षा आलोचक अधिक जिम्मेदार नहीं है ?
  डा0 जीवन सिंह - पिछली सदी के छठे-सातवें दषकों में समकालीन कविता में समाटबयानी पर खास जोर दिया गया था ,जिसकी वजह षायद अकविता द्वारा बनाए गए एक अराजकतावादी महौल को तोड़ना था तथा कविता में निरर्थक दुर्बोधता और अमूर्तन को हटाकर संपेषणीय बनाता था। धूमिल ने इस प्रवृत्ति का नेतृत्व किया था और उन्होंने अपनी कविता में सपाटबयानी करके अपनी कविता के मुहावरे में आकर्षण पैदा किया था । उसमें भी कवि के विद्रोही स्वरूप को खास तौर से रेखांकित किया गया था। तब नामवर जी ने कविता के नए प्रतिमान के रूप में काव्य बिंब के बरक्स सपाटबयानी को एक प्रतिमान माना था। जिसमें डाॅ.नगेन्द्र के काव्य बिंब के सिद्धांत का विरोध करते हुए यह कहा गया था कि बिंब नई कविता की रूढ़ि था , जिसे सच्चे सृजन के लिए सपाटबयानी से तोड़ा जा रहा था। नामवर सिंह जी ने इसका ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए बतलाया कि छायावाद के अंत में प्रतिक्रिया स्वरूप एक कविता का भाव से विचार की ओर और कल्पना से वास्तविकता की ओर मुड़ी तो एक बारगी कविता में वक्तव्य देने की बाढ़ आ रही थी । यहाँ देखने की बात यह है कि जब बाढ़ जैसे हालात हो , तो प्राकृतिक आपदा जैसी स्थिति बन जाती है। लेकिन बाढ़ कुछ दिनों की होती है , हमेषा की नहीं । कविता के प्रतिमान ऐसे दिनों के होने चाहिए जो थोड़े कष्टकारी दिनों की बजाय ,ज्यादा सूकून भरे दिनों के अनुकूल हों। यही कारण है कि जब यह बाढ़ थम गई तो फिर से बिंब के दिन फिर गए और आचार्य षुक्ल का यह प्रतिमान ही भारी साबित हुआ है कि कविता में अर्थग्रहण की बजाय बिंबग्रहण होता है।
  इसके लिए पहले तो कविगण ही जिम्मेदार है ,जो वक्तव्यवादी कविताओं की बाढ़ ले आए , आलोचक ने तो लक्ष्य ग्रंथों से लक्षण ग्रंथ की सृष्टि की । यह अलग बात है कि आलोचकीय दूरदर्षिता का ध्यान नहीं रखा गया। आलोचक खुद ही बाढ़ के साथ-साथ उसमें बहता चला गया। मल्लाह का काम है बाढ़ का सामना करते नाव को खेते हुए नदी पार करना , न कि खुद बाढ़ की भेंट चढ़ जाना। 
महेश   चंद्र पुनेठा -आप कविता में बिंब ,प्रतीक ,रूपक ,व्यंजना आदि माध्यमों को जरूरी मानते हैं ,जबकि केदारनाथ सिंह के यहाँ ये तत्व काफी मिलते हैं , लेकिन आप उनकी कविता की  आलोचना करते रहे हैं। ऐसा क्यों ?
डा0 जीवन सिंह - कविता में मुख्य होती है अंतर्वस्तु । यह अंतर्वस्तु ही है ,जो अपना रूप निष्चित करती है लेकिन रूप सर्जना में कवि की प्रतिभा ,अध्ययन ,अभ्यास आदि काम में आते हैं। अंतर्वस्तु का निर्धारण भी प्रतिभा , अध्ययन और अभ्यास के बिना संभव नहीं होता । बिंब ,प्रतीक , रूपक आदि क्या करते हैं -यह जानने की बात है । अपने आप में  बिंब ,प्रतीक , रूपकांे का कोई मतलब नहीं। बिंब ,प्रतीक , व्यंजना तो हमारी रीतिकालीन कविता में भी मौजूद हैं लेकिन जिंदगी की गहराई और व्यापकता के अभाव में केवल मनोरंजन तक सीमित होकर रह जाते हैं । केदारनाथ सिंह अपने बिंबों-रूपकों से चमत्कार -सर्जना जितनी करते हैं उतनी अर्थ-सर्जना नहीं। अर्थ-सर्जन में मुक्तिबोध के बिंब और रूपक देखें तो मालूम हो जाएगा कि कौन कितने पानी में है। केदारनाथ सिंह से ज्यादा अर्थवान बिंबों और रूपकों की सर्जना विजेंद्र ने की है । विजेंद्र अपने पाठकों को चमत्कार के बीहड़ों में नहीं भटकाते।
                         
 महेश  चंद्र पुनेठा- जीवन सिंह जी , आपने आलोचना को ही अपनी लेखन-विधा के रूप मेें क्यों चुना ? आपकी आलोचना यात्रा के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा है।
डा0 जीवन सिंह - आपको सही बात बतलाऊॅ ,तो मैं तो अपने विद्यार्थी जीवन से ही छंदों में तुकें भिड़ाता था और  चाहता था कि कविताएं ही लिखूूॅ ,लिखी भी , लेकिन उनके प्रकाषन के प्रति सदैव संकोच बरता । आज भी जब इच्छा होती है ,तो अपनी बात को कविता के आकार में लिखकर अपने पास रख लेता हॅू। कई बार वह बात वही होती है ,  जो मैं आलोचना में कहना चाहता हॅू । जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण भी पारम्परिक था ,सच कहें तो रूढ़िवादी था । मेरे काव्य संस्कार , मेरे गाॅव में रामचरितमानस पर आधारित रामलीला से बने थे। एक दर्षक के रूप में ,मैं रामलीला के उन पात्रों की आलोचना करता था ,जो मंच पर अभिनेता के रूप में चैपाइयों का या तो आधा-अधूरा अर्थ करते थे ,या गलत । एक आलोचक मेरे मन में रहता था कि मैं भी कभी इन पात्रों की जगह मंच पर जाकर अभिनय करूॅ और इनको बतलाऊॅ कि रामचरितमानस की चैपाइयों पर  अर्थाभिनय किस रूप में  किया जाता है ? 1980-81के आसपास का वह समय आ ही गया जब कि अपने गाॅव की रामलीला में मुझे इसके सबसे बड़े खलनायक लंकाधिपति रावण का अभिनय करना पड़ा । आज तक मैं इस परम्परा से जुड़़ा हुआ हॅूं। ’सीता हरण ‘ के दिन की रामलीला में मुझे आज भी ’ ’रावण‘ की भूमिका अदा करनी पड़ती है। तो इस तरह कहीं  एक आलोचक का भावोदय मेरे चेतन -अचेतन में हुआ , जो सव्यसाची और विजेंद्र जी जैसे साहित्यकारों का सान्निध्य पाकर इस रूप में प्रस्फुटित हुआ ।
मैं जब तक बॅूदी के राजकीय महाविद्यालय में 1975से 1979 तक हिंदी का अध्यापक रहा , उस समय कोटा में सव्यसाची के संपर्क में आया । इससे मेरा दिषा परिवर्तन हुआ । अपने षोध प्रबंध के संदर्भ में  डा0 रामविलास षर्मा और हरिषंकर परसाई के साहित्य के अध्ययन से मैंने जाना कि साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की पारम्परिक दिषा बहुत सीमित और संकीर्ण चेतना वाली है। अपने ग्रामीण परिवेष और निम्नवर्गीय जीवनानुभव मेरी जिंदगी का हिस्सा थे। जीवन में भूख -प्यास , धूल-धक्कड़ , मेहनत और धूप का रिष्ता कैसा होता है ,इससे मैं अच्छी तरह वाकिफ था। इसलिए इन लोगों की बातें समझने में मुझे देर न लगी । 
मैंने 1960 से 1963 तक भरतपुर में हायर सेकण्डरी की षिक्षा प्राप्त की । उस समय विजंेद्र जी भरतपुर आ चुके थे । लेकिन मेरा उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ था। मैं भरतपुर में रहकर जिस परिवार में रहकर पढ़ा ,उस परिवार में एक सदस्य की जिल्दसाजी की दुकान थी ।इसी दुकान पर विजेंद्र द्वारा संपादित ’कृति ओर ‘ की जिल्द बॅधने आती थी । यह षायद 1977-78 की बात होगी ,जब ’ओर‘ में प्रकाषित नयी कविताओं  की मैंने आलोचना की कि इनमें क्या रखा है? कुछ आड़े -तिरछे नीरस वाक्यों में कविता कैसे संभव है? वह तो छंद में ही होनी चाहिए ।यहीं से विजेंद्र जी  से मेरा संपर्क हुआ ,जिन्होंने मेरे भीतर के आलोचक को निंरतर प्रोत्साहित किया। हम दोनेां भरतपुर में घूमघूमकर काव्य चर्चा में मषगूल रहने लगे । बॅूदी से मेरा तबादला गंगापुर सिटी हो गया ,जो मेरे गाॅव से अपेक्षाकृत नजदीक था। उस समय भरतपुर के रास्ते से ,मैं अपने गाॅव अवकाषों में जाता रहता था। तब विजेंद्र जी से लगातार पत्राचार होता था। विजेंद्र जी के पत्र इतने मार्मिक और प्रोत्साहित करने वाले होते थे कि निरंतर मिलकर बातें करने की इच्छा बनी रहती थी । भरतपुर में अक्सर वे अपने पास रोककर पक्षी अभयारण्य घना में घुमाने ले जाते थे ,जहाॅ हम दोनों पूरे-पूरे दिन पक्षियों की किलोल -क्रीड़ा ,कलरव ,वृक्षावलि और झील के पानी को देख-देखकर रोमांचित होते थे।विजेंद्र की कविता के कुछ स्रोत इसी जमीन में थे। यही से उनकी कविता के कई पक्ष मेरे मन में उद्घाटित होने लगे थे। लिखने का काम तेा मेरा पहले भी चलता था , लेकिन अब मुझे दुनिया के रिष्तों केा जानने -समझने की एक व्यापक एवं वैज्ञानिक दृष्टि मिल गई थी । मेरा मन काल माक्र्स की विचारधारा में रमने लगा था। मेरे मन की अनेक उलझनें सुलझ गई थी और मुझे जैसे एक रास्ता मिल गया था। इसी के चलते मुझे आलोचना लेखन उतना ही महत्वपूर्ण लगा , जितना कि कविता -कहानी लेखन । 
मुझे याद है कि 1980में जब जबलपुर में आयोजित होने वाले प्रगतिषील लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में हम गये तो विजेंद्र जी ने आगरा में मुझे एक चष्मा खरीदवाया , क्योंकि मेरी नजदीक की बीनाई कमजोर होने लगी थी । साथ ही एक प्रकाषन से आचार्य षुक्ल की ’रस मीमांसा‘ खरीदवाई । आगरा के रेलवे स्टेषन के प्लेटफार्म पर ट्रेन के आने का इंतजार करते हुए हम दोनोें ने ’ रस मीमांसा ‘ से जबलपुर में नर्मदा नदी के भेड़ाघाट का जिक्र बहुत पुलकित भाव से पढ़ा । हम षायद पहली बार उस जबलपुर में जा रहे थे , जिसमें हरिषंकर परसाई और ज्ञानरंजन रहते हैं। हम दोनों रात्रि में भेड़ाघाट भी देखने गये । प्रसंग बहुत लम्बा हो रहा है , लेकिन आपने विस्तार से मेरी आलोचना-यात्रा के बारे में पूछा है , इसलिए यह सब बतला रहा हॅू। इसी प्रक्रिया में साहित्य और समाज दोनोें के प्रति मेरे मन में  ं दायित्व भाव पैदा हुआ  और मैंने आलोचना में वह रास्ता पकड़ा , जो देष के किसानों -श्रमिकों के जीवन से होकर जाता है और जिसमें ठेठ जिंदगी का ठाठ है। 
मैंने ऐसी आलोचनाएं भी लिखी ,जिनसे आज के कद्दावर समझे जाने वाले लोग मुझसे नाराज हुए , यद्यपि मेरी आलोचना का दायरा उतना बड़ा नहीं रहा । वह सीमित प्रचार -प्रसार की आलोचना है। इससे यह भी प्रचारित किया गया कि मैं आलोचना में केवल भत्र्सना करता हॅू। अभी ’वसुधा ‘के 73वें अंक में एक बातचीत में कविवर नरेष सक्सेना ने यही स्थापित करने की कोषिष की है।  दरअसल , मेरा विरोध कविता में मध्यवर्गीय सीमित सरोकारों , नीरसता , षिल्प-प्राधान्य और आधुनिकतावादी तथा उत्तर आधुनिकतावादी नजरिये से है। मैं क्या करूॅ , जीवन और समय के प्रति मेरी समझ ही यह है, और यह हमारी बड़ी और महान काव्य-परम्पराओं का भी संदेष है। कालिदास तक के राजतांत्रिक समय में भी , जो जीवनमूल्य और मार्मिकता ,तपोवन की जिंदगी में हैं ,वह राजाओं के वैभव सम्पन्न किंतु छल-कपट और द्वेषपूर्ण जीवन में कहाॅं ? आखिर ,कविता जीवनमूल्यों की खोज और रचना का नाम भी तो है। वह उस कोरे बाहरी अर्थ और संबंधों की जटिलता के यथार्थ के बावजूद एक ऐसी संरचना है, जिसमें अंधकार की क्रूर षक्तियों के समक्ष आत्मबल और नैतिकता की प्रकाषमान संस्कृति का अंतस्स्रोत निरंतर प्रवाहित रहता है। इस बात में मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि अपने समय की भौतिक -सामाजिक संरचनात्मक प्रगति और विकास को स्वीकार करके ही , उसके विकल्पों को ढॅूढा जा सकता है। यह काम कविता में पूरी तथ्यात्मकता और वस्तुगतता के साथ मुक्तिबोध करते हैं। इस मामले में रघुवीर सहाय , कुॅवर नारायण ,श्रीकांत वर्मा , विजयदेव नारायण साही ,केदारनाथ सिंह आदि कवियों का पता तो चलता है लेकिन उस जनषक्ति का नहीं ,जिसके श्रम और संस्कृति से हर युग सॅवरता है। कवि का काम उस अदृष्य को उद्घाटित करना भी होता है ,जो बाहरी वास्तविकताओं के आवरण से ढक दिया जाता है। जिसके ऊपर वर्चस्ववादी ताकतोें का कब्जा होने से असलियत सामने नहीं आ पाती।
केव तिवारी - आपने कविता को ही अपनी आलोचना के केंद्र में क्यों रखा ?
डाॅ0 जीवन सिंह- पहली बात तो यह है कि हमारी काव्यपरम्परा सबसे ज्यादा दीर्घ और समृद्ध है । वह हमारी जिंदगी का पूरा इतिहास है । दूसरे , जीवन के जितने विविध रूप और संवेदनात्मक स्तर कविता के भीतर समा सकते हैं ,उतने किसी अन्य काव्यरूप में षायद ही समा पाएँ। तीसरे , कविता मनुष्य की भावदषा से सबसे ज्यादा समीप रहती आई है । यह जीवन का भावयोग है। जब भावयोग में कमजोरी आती है तो समाज में हिंसा और अविवेक बढ़ता है। कविता मेरे लिए जीवन की भाव-साधना है। आज की दुनिया में समृद्धि होेते हुए भी इसी भाव-साधना की कमी है। चैथे , कला के जितने सूक्ष्म स्तर कविता में रहते हैं और भाषिक प्रयोग के जितने रूप कविता में देखने को मिलते हैं ,उतने अन्यत्र  षायद ही मिलें। जैसे हाथी के पावँ में सबका पाँव होता है ,वैसे ही कविता में गति रखने वाला , साहित्यमात्र में अपनी गति बना सकता है। वह हमारी स्मृति में समाई रहती है। 
महेश  चंद्र पुनेठा -आलोचना का जनता के प्रति क्या उत्तरदायित्व है ? हिंदी आलोचना इस उत्तरदायित्व को पूरा करने में कहाॅं तक खरी उतरी है?
डा0 जीवन सिंह - आपने बहुत अच्छा सवाल किया है । आलोचना और आलोचनेत्तर विधाओं का जनता के प्रति उत्तरदायित्व एक जैसा ही होता है। तुलसी की एक चैपाइ्र्र में इसका जवाब है- ’’कीरति भनिति भूति भलि सोई।सुरसरि सम सब कह हित होई ।‘‘ लेकिन पाठक इसका अपनी वर्गीय स्थिति के अनुसार अर्थ लगाते हैं। इसका कारण है कि एक वर्गीय समाज में सबके हित एक जैसे नहीं हेा सकते । यह सर्वोदय भाव सुनने में बहुत अच्छा लगता है, व्यावहारिक जीवन में इसे साधना कठिन ही  नहीं ,असंभव है । पीड़ित और पीड़क के हित एक साथ कैसे सध सकते हैं। जब तक आप पीड़क के विरुद्ध व्यवस्था न बनाएं। उसके विरुद्ध संघर्ष न करें। उसे सीमा मेें न बाॅधें , उस खुले घोड़े के लगाम या दाॅवरी न लगाएं ,तब तक पीड़ित को राहत नहीं मिल सकती । या कहें कि उसके श्रम का पूरा फल उसे प्राप्त नहीं हो सकता । उसके  श्रम का सरप्लस का भोग पॅूजी के मालिक करते हैं।जैसे स्वाधीनता आंदोलन में ब्रिटिष सत्ता के विरुद्ध संघर्ष कर स्वाधीनता हासिल की गई ।उसी तरह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उत्पीड़कों और षोषकों के विरुद्ध संघर्ष चलाकर , श्रमिक -किसान वर्ग को स्वाधीनता हासिल होना जरूरी कार्यभार है । आज हमारे देष में लोकतांत्रिक व्यवस्था है अवष्य ,लेकिन उसकी व्यवस्था और संरचना पॅूजीपति वर्ग के हित की ओर झुकी हुई है। इसलिए ब्रिटिष सत्ता से स्वाधीनता मिल जाने के बाद भी स्वधीनता और समता जैसे जीवन-मूल्यों का काम आज भी आधा-अधूरा है। इसे पूरा करने की सतत जरूरत हैै। आलोचना चिंतन और चेतना के स्तर पर इन द्वंद्वो के सही रूप को उजागर करती है।इसलिए उसे मुक्तिबोध ने ’सभ्यता समीक्षा ’ कहा ।
आलोचना किसी थीसिस का एंटीथीसिस और सिंथेसिस भी है। वह उस थीसिस की परीक्षा करती है, जो स्थापित है। स्थापित चीजें वस्तुसंगत और मानवीय न्याय की दृष्टि से ठीक नहीं है ,तो वह उनका एंटथीसिस बनाती है। इस प्रक्रिया में वह अपने समय के वैज्ञानिका दर्षन ,समाजषास्त्र अर्थषास्त्र ,इतिहास और राजनीति का अध्ययन कर , मानवीय भावबोध के स्तर पर उनका एक निचोड़ निकालती है, जिससे अपने समय के मूल्यगत निष्कर्षों को प्राप्त किया जा सके । इसलिए आलोचक को समग्र ज्ञानात्मक और अनुभवों के संजाल में रहकर अपना निर्णय करना पड़ता है। अब केवल साहित्यषास्त्रीय (पुरातन ) निर्णय का जमाना नहीं रहा ,जबकि रस , अलंकार ,ध्वनि ,वक्रोक्ति देखकर साहित्य के निर्णय कर लिया करते थे। अब आलोचक की जितनी  भागीदारी साहित्य में होती है ,उतनी ही अपने समय के जीवन में  भी । जीवन में भी उन निम्नवर्गीय अनुभवों में , जिससे आलोचक की संवेदनषीलता को  किसी तरह के ग्रहण लगने का खतरा न हो । 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी -आलोचना में इस दायित्व से मुख नहीं मोड़ा गया है। आज आलोचना का सारा ढाॅचा ,जनोन्मुखी है। प्रगतिषील और जनवादी आंदोलनों की इस काम में उल्लेखनीय क्या , केंद्रीय भूमिका रही है। यह अलग बात है कि जितना काम इस दिषा में होना चाहिए था ,उतना नहीं हुआ । हिंदी के समकालीन और आधुनिक साहित्य की चेतना से हिंदी -समाज का बहुत थोड़ा सा हिस्सा की प्रभावित हुआ है।इसका कारण आज की राजनीतिक -आर्थिक -सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था है।जो बाजारवाद के प्रभाव में आ चुकी हैे । इसमें साहित्य की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह है। हमारे राजनेताअेंा में महात्मा गाॅधी की तरह ,किसी भी राजनीतिक दल के नेता का सांस्कृतिक बोध ऊॅचे स्तर का नहीं है । वहाॅ राजनीति का गोरखधंधा जाति ,संप्रदाय ,क्षेत्र ,भाषा , गोत्र , धन एवं वंषवाद से चल रहा है। समाज का नैतिक बल आज जितना क्षीण हुआ है ,उतना पहले के समयों में नहीं ।  
      
 महेश  चंद्र पुनेठा -हिंदी साहित्य में आज वरिष्ठ पीढ़ी के  बहुत कम रचनाकार ऐसे होंगे जो मौजूदा आलोचना की स्थिति से संतुष्ट होंगे ,जिससे भी पूछो वह आलोचना-कर्म में पक्षपात का आरोप लगाता है। आप इस स्थिति के लिए आलोचकों केा जिम्मेदार मानते हैं या यह रचनाकारों का स्वयं को जरूरत से ज्यादा आॅंकना है ? या फिर वास्तव में हिंदी आलोलना गुटबंदी ,हदबंदी ,चकबंदी और व्यक्तिगत आग्रहों -पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है?
डा0 जीवन सिंह -आपके इन प्रष्नों मेें सत्यांष तो है , पूरा सत्य नहीं । इससे एक तो यह लगता है कि जैसे आलोचना कर्म ,साहित्य की समस्त  विधाओं का नेतृत्व कर्म है । जैसे राजनेताओं के प्रति जनता की अनेक माॅगों और जरूरतों का उल्लेख किया जाता है ,वैसे ही आलोचकों से भी साहित्यकार की यह माॅग रहती है कि वह उनकी रचना का उचित मूल्यांकन करे। जबकि वास्तविकता यह है कि महान रचनाओं से ही आलोचना भी बड़ी बनती है। आचार्य षुक्ल के समक्ष यदि भक्तिकालीन साहित्य नहीं होता तो रीतकालीन जैसी कविता के बल पर , साहित्य के उन महत्वपूर्ण सिद्धांतों का निर्वचन षायद ही हो पाता ,जो आचार्य षुक्ल ने किया ।दूसरे, नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की भी इस मामले में बहुत  बड़ी भूमिका रही कि व्यक्ति, का नैतिक विचलन न हो पाया । महात्मा गाॅधी के नेतृत्व ने स्वाधीनता आंदोलन को आत्मबल और नैतिक षक्ति प्रदान की ,जिसकी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरत होती है। साहित्य ही में नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में बिना आत्मबल और नैतिक ताकत के महत्वपूर्ण और बुनियादी काम नहीं हो सकते । चॅॅूकि आज जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक विचलन नजर आता है, इसलिए इस समय रचना और आलोचना के बीच बेहतर रिष्ते न बन पाना ,इसका कारण हो सकता है । जीवनानुभवों की हदबंदी से भी ऐसा होता है। पिछले दो दषकों में वर्ग वैषम्य बहुत तेजी से बढ़ा है । आज के साहित्य में भी वह साफ नजर आ रहा है। आज के ज्यादातर रचनाकार महानगरीय और षहरी मध्यवर्गीय मानासिकता और जीवन -षैली की गिरफ्त में हैं। इस कारण आलोचना के प्रतिमानों के निर्धारण में भी उसी का बोलबाला रहा। पत्र-पत्रिकाआंे और अन्य सुविधाओं पर उच्चवर्ग के साथ मध्यवर्ग का सहभागितापूर्ण नियंत्रण  है। इससे उन रचनाकारों की उपेक्षा होती है ,जो आज भी देष की सामान्य किसान-जन और मजदूरों की श्रम-संस्कृति एवं दर्षन के साथ हैं। ऐसा आजादी मिलने के बाद से ही हुआ है। अपने समय में जब निराला जी ’नये पत्ते ‘  की रचनाओं के साथ आए ,तो डा0 रामविलास षर्मा तक ने उनकी उतनी प्रषंसा नहीं की ,जितनी ’राम की षक्ति पूजा‘,‘ सरोज स्मृति ‘, और ’तुलसीदास ‘ की । बाद मेें अज्ञेय ,रघुवीर सहाय ,विजयदेव नारायण साही ,श्रीकांत वर्मा ,कुॅवर नारायण को जिस तरह नये प्रतिमानों के  केंद्रीय चर्चा में लाया गया ,उतना नागार्जुन , त्रिलोचन ,केदार व मुक्तिबोध की कविता को नहीं । मुक्तिबोध का नामजाप तो खूब हुआ ,लेकिन उन्हें सही और वस्तुसंगत परिप्रेक्ष्य नक्सलबाड़ी आंदोलन के वातावरण में ही हासिल हुआ। इसी तरह आगे की पीढ़ियों के प्रति बर्ताव रहा । इसका कारण मैं तो रचनाकारों की मध्यवर्गीय मानसिकता को मानता हॅू , जिसका निर्माण करने में केवल  आलोचक की हिस्सेदारी ही नहीं होती वरन रचनाकार भी अपनी आलोचनाओं ,स्थापानाओं और सुख -सुविधाओं से ऐसा करते हैं। जिन रचनाकारों के पास सत्ता अैार पॅूजी की षक्ति होती है ,वे पानी को अपनी ओर मोड़ लेते हैं। सत्ता और पॅूजी की प्रभुता पाकर किसे मद नहीं होता ।मुझे तो बाबा तुलसी याद आ रहे हैं-’’नहिं कोउ अस जनमा जग माॅही । प्रभुता पाहि जाहि मद नाहीं। ‘‘ यह दरअसल प्रभुता और लघुता के बीच का संघर्ष भी है। इसलिए मैं तो कहॅूगा कि ’कुछ लोहा खोटा ,कुछ लुहार खोटा ।‘
महे चंद्र पुनेठा -हिंदी आलोचना बहुत कम पढ़ी जाती है। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जाती है कि आलोचना की भाषा नीरस, ऊबाउ ,जीवनबोध से रिक्त ,संघर्षविहीन तथा आलोचना के भारी भरकम षब्दों से भरी रहती है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? यदि हाॅ ,तो इसके पीछे कौन से कारण देखते हैं?
डा0 जीवन सिंह - वस्तुतः , बहुत कम पाठक होने की वास्तविकता ,आज साहित्यमात्र के साथ है। गंभीर पाठकों का टोटा सभी विधाओं में है। जिस रफ्तार से से आज व्यावसायिक विषयों का पठन-पाठन हो रहा है,उस रफ्तार से साहित्य ,संस्कृति और कलाओं से संबंधित विषयों का नहीं । चॅूकि ,आपने आलोचना और वह भी हिंदी-आलोचना से संबंधित सवाल पूछा है तो मैं यह कहना चाहता हॅू कि हिंदी आलोचना, कविता ,कहानी ,उपन्यास की तुलना में न केवल बहुत कम पढ़ी जाती है वरन बहुत कम लिखी भी जाती है। आज कविता ,कहानी की पत्रिकाएं तो ढेरों हैं ,आलोचना की स्वाधीन पत्रिकाएं कितनी-सी हैं ? कविता, कहानी की पत्रिकाओं में जो आलोचनाएॅ प्रकाषित होती हैं ,उनमेें भी हल्की और  अखबारी तर्ज पर लिखी रिब्यू ज्यादा हैं । जिनको पत्रिका में सबसे अंत में जगह मिलती है। उनको षायद ही गम्भीरता से लिया जाता हो। इसका कारण है ’ रिव्यू‘ का प्रचारतंत्री प्रकृति का होना। इससे खराब और बेस्वाद आलोचना को प्रोत्हासन मिलता है। आपने देखा होगा कि जो लोग किताबों की ’ रिव्यू’ लिखने की वजह से ,’आलोचक‘ की ’ख्याति‘ पा गए , उनको गंभीर आलोचक माना ही नहीं गया।  
आपने आलोचना न पढ़े जाने की  जो वजहें बतलाई है , वह अपनी जगह सही है। लेकिन , इसमें अर्द्धसत्य है। आलोचना-लेखन , मेरी दृष्टि में चुनौतीपूर्ण कर्म होता है , जिसमें सचाई को अनावृत्त करना पड़ता है। आचार्य रामचंद्र षुल्क की तरह साफगोई से कहना पड़ता है कि ’’ केषव को कवि हृदय नहीं मिला था । एक कवि में जैसी सहृदयता और भावुकता होनी चाहिए , वह केषव में नहीं थी ।‘‘ कविता ,कहानी में इस तरह किसी अन्य के बारे में नहीं कहा जाता । इन विधाओं में असली बात ,रूपकों ,बिंबों ,प्रतीकों , अन्योक्तियों और व्यंजानाओं में ढकी रहती है। कबीर , मीरा और नागार्जुन की तरह कितने -से कवि होते हैं। जो सीधे लक्ष्य पर वार करते हैं। आलोचक को लक्ष्य पर सीधे निषाना साधना पड़ता है। जो आलोचक ऐसा नहीं कर पाते ,वे आलोचना में झूठ का प्रवाद पर्व रचते हैं और उसे नीरस ,उबाउ एवं संदेहास्पद बनाते हैं। इसलिए एक काल में जितने कवि-कहानीकार हुए, उतने आलोचक नहीं। आचार्य रामचंद्र षुक्ल के बाद आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी , डा0 रामविलास षर्मा और डा0 नामवर सिंह के नाम ही उॅगलियों पर आते हैं। इनमें भी आचार्य रामचंद्र षुक्ल जैसी आलोचकीय सृजनात्मकता ,मौलिकता और समग्रता अभी तक षायद ही दूसरा कोई आलोचक अर्जित कर पाया हो। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का काम भी महत्वपूर्ण है, लेकिन वे समग्रतः आलोचक नहीं हो पाते । इसका कारण है आलोचक का अनेक परम्पराओं ,खास तौर से अपनी जातीयपरम्पराओं का गंभीर ज्ञान और अध्ययन होना बल्कि उनमें सामान्य जन और लोकानुभवों के प्रति सतत संवेदनषील बने रहना । आचार्य रामचंद्र षुक्ल को स्वाधीनता आंदोलन के बीच मौका मिला था कि वे अपने आलोचकीय व्यक्तित्व की निर्मिति कर सके । वे हमारे यहाॅ अलवर के तत्कालीन नरेष जय सिंह के आमंत्रण पर राजसी ठाठ-बाट की सुविधाओं और बड़ी पगार पर आये थे , लेकिन उनका मन दरबारी माहौल में ज्यादा दिन नहंीं रम सका । उनका आलोचक यहाॅ इतना मुखर हुआ कि कुछ समय के बाद ही वे अपने अल्प वेतन और सामान्य सुविधाओं वाली जिंदगी में वापस काषी चले गये । आज का आलोचक ऐसा कहाॅ कर पाता है? वह तो सेठाश्रित अखबारों में उॅचे वेतन की नौकरी पा लेने को अपना  फख्र मानता है। जैसे बड़ी रचना का संबंध बड़े त्याग और विस्तृत जीवनानुभवों से होता है। वैसे ही आलोचना और आलोचक का भी ।
महेश  चंद्र पुनेठा - हिंदी आलोचना ने भारतीय आलोचना-परम्परा को कितना आत्मसात  किया है ?क्या हम पाष्चात्य आलोचना परम्परा से अलग अपनी कोई आलोचना-परम्परा विकसित कर पाने में सफल हो पाए हैं ? यह आलोचना कितनी जनोन्मुखी है?
डा0 जीवन सिंह - जहाॅं तक भारतीय आलोचना -परम्परा का सवाल है ,इसकी हिंदी में षुरूआत ही इसी से हुई है। जैसा कि मैंने पहले कहा है कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की परिस्थितियों में हिंदी का आधुनिक साहित्य निर्मित हुआ। स्वाधीनता आंदोलन के संधर्ष का कंेंद्र बिंदु ,ब्रिटिष साम्राज्यवाद और उपनिवेषवाद के विरूद्ध था । उस समय आत्मबल को जगाने और बढ़ाने के लिए स्वजातीय परम्पराओं को आत्मसात करना एक जरूरत भी थी । इसलिए सभी विधाओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध वातावरण बना हुआ था और कविता , कहानी ,उपन्यास ,नाटक ,निबंध ,आलोचना आदि सभी क्षेत्रों में भारतीयता को सृजित किया जा रहा था । कविता  में छायावाद उसका उत्कर्ष था। कहानी उपन्यास में प्रेमचंद और आलोचना में आचार्य रामचंद्र षुक्ल। यहाॅ कोई किसी से उन्नीस नहीं है । प्रतिभा और सर्जना के उद्यान में अनेक रंगों के फूल पूर्ण प्रस्फुटित है। आचार्य रामचंद्र्रषुक्ल की आलोचकीय प्रतिभा को द्वं्रद्वात्मकता का बल प्राप्त है। भारतीय परम्परा में जो आधुनिक जीवनमूल्यों की दृष्टि से वरेण्य है ,वे उसकी मुक्त कंठ से प्रषंसा ही नहीं करते ,वरन् दृढ़ता के साथ उसकी स्थापना भी करते हैं और पष्चिम की आलोचना-परम्परा का जो स्वस्थ प्रदाय है,उसको वह अपनाते हैं। जो आधी अधूरी और व्यक्तिवादी-कलावादी मानसिकता से प्रेरित है ,उसका वे दृढ़ता से विरोध करते हैं। आप जानते हैं कि आचार्य षुक्ल ने  भारतीय ’रस सिद्धांत ‘ की नयी मीमांसा कर उसे आधुनिक समय के अनुकूल बनाया और ’सहृदयता एवं भावुकता ‘ के सिद्धांत को निष्कर्षित कर ’ हिंदी साहित्य का इतिहास ‘लिखा। इतिहास लिखना सबसे मुष्किल काम है। आज तक भी षुक्ल जी का इतिहास ही हमारे लिए प्रमाण बना हुआ है ।कुछ उलटफेर भी हुए हैं तो उसी के स्वरूप को आधार मानकर । इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उनकी सीमाएं नहीं हैं। वे भी एक व्यक्ति थे ,उनकी भी अपनी पसंदगी और नापसंदगी थी , लेकिन उनकी खास बात उनका आत्मबल और नैतिक दृढ़ता है। उसमें षायद की कहीं विचलन दिखाई देता है। 
आचार्य षुक्ल द्वारा निर्मित बुनियाद पर ही हमारी आलोचना-परम्परा का भवन निर्मित हो सकता है, जो हुआ भी है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अलावा डा0 रामविलास षर्मा ने यह काम किया है। डा0 नामवर सिंह भी जनोन्मुखी आलोचना-परम्परा के हिमायती हैं। व्यक्तिवादी और कलावादी आलोचना भी इसके समानांतर अपने हाथ-पैर मारती रही है। लेकिन आमतौर पर जनोन्मुखी आलोचना को ही सामान्य पाठक ने स्वीकार किया है । आज आलोचकों में ज्यादातर प्रतिष्ठित कार्य डा0 विष्वनाथ त्रिपाठी ,चंद्रबली सिंह ,डा0. षिवकुमार मिश्र ,डा0 मैनेजर पाण्डेय , कुॅवरपाल सिंह आदि का है, जो जनोन्मुखी आलोचना का ही प्रमाण है। रचनाकारों में मुक्तिबोध की आलोचनाएॅ इसका प्रमाण हैं। 
महेश  चंद्र पुनेठा- सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोपीय देषों में साम्यवादी व्यवस्था के समाप्त होने के बाद कुछ आलोचकों ने कहना षुरू कर दिया है कि अब माक्र्सवाद की मूलभूत स्थापनाओं मेें भी कुछ संषोधनों की जरूरत है । साहित्य-चिंतन में इसका प्रभाव इस रूप में पड़ा है कि अब लेखकों के सामने एक संभव आदर्ष राजव्यवस्था का सपना टूट गया है, जो समतावादी समाज से जुड़ा हुआ था। आलोचना में साहित्य का प्रतिमान जो अब तक था कि कृतियों की परख वर्गहीन समाज के प्रति क्रांतिकारी चेतना की अभिव्यक्ति के आधार पर किया जाए , उसमें संषोधन आवष्यक हो गया है। क्या आप भी ऐसी जरूरत महसूस करते हैं? करते हैं तो क्यों ?
डा0 जीवन सिंह - जिन आलोचकों ने माक्र्सवाद की मूलभूत स्थापनाओं में संषोधन करने की बात कही है ,उन्होंने कदाचित इस विचारधारा की व्यावहारिक राजनीति के एक प्रयोग के विफल हो जाने मात्र से ऐसा कह दिया है। सोवियत समाज का प्रयोग लगभग पिचहत्तर वर्षें तक चला और उसके सुपरिणाम दुनिया ने देखे । उस समाज ने यह बतलाने का प्रयास किया कि समाज का ऐसी स्वाधीनता की जरूरत है , जिसका आधार समता और आपसी भाईचारा हो। इस प्रयोग को व्यवहार में लाना कितना कठिन है ,यह अपने और यूरोप-अमरीका के पूॅजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की असलियत देखकर जान सकते हैं। यदि पॅूजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएॅं ही न्यायसंगत विकल्प होती तो समाजवादी विकल्प की जरूरत ही क्या थी ? समस्या यह है कि पॅूजीवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्थाएं जिस तरह अपनी और दूसरे देषों के समाजों के षोषण -उत्पीड़न पर टिकी हुई हैं और पॅूजीवादी समाजों में वर्ग -वैषम्य की वजह से कमजोर तबकों  के संग जो अन्याय और उत्पीड़न होता है ,उसको कैसे रोका जा सकता है तथा जीवन में सामूहिकता और सहकारिता की प्रक्रिया अपनाकर सबको सुखी कैसे बनाया जा सकता है ? इसका वस्तुसंगत रास्ता दिखलाने  वाली विचारधारा ,आज तक यदि कोई है तो वह माक्र्सवाद ही है , जो अतिरिक्त मूल्य के सच को उद्घाटित करती है और समाज से वर्गाीय संरचना के खात्मे के लिए निजी सम्पत्ति के सिद्धांत और व्यक्तिवादिता पर अंकुष लगाती है ।यदि किसी विचारधारा की मूलभूत स्थापनाओं में संषोधन किया जाता है तो वह उसका कोई नया रूप होगा । हम जानते हैं कि इस विचारधारा का एक प्रयोग विफल हुआ है , जो इस बात का प्रमाण है कि उसके व्यवहार में कमियाॅ रही हैं ।हम देखते हैं कि सोवियत संघ में जो प्रयोग किया गया ,उसमें सैन्य और अर्थव्यवस्था के परिवर्तन पर जितना बल दिया ,उतना संस्कृति -परिवर्तन पर नहीं । यदि वहाॅ समाजवादी व्यवस्था की नयी संस्कृति बनती और ताकतवर होती तो वहाॅ सत्ता का केंद्रीयकरण नहीं हो पाता । सत्ता का जहाॅ भी केंद्रीकरण  होगा वहीं सोवियत समाज जैसी गलतियाॅ होंगी और कम्युनिस्ट पार्टी मेें ऐसे सदस्य आ जाएंगे , जो सत्ता का उपभोग करने के उद्देष्य से आते हैं , न कि जनहित के उद्देष्य से ।इसलिए माक्र्सवादी विचारधारा के अनुरूप राजनीतिक -सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने वाले अनेक तरह के प्रयोग करने की आवष्यकता है। किसी एक प्रयोग को आदर्ष मानकर चलने मात्र से काम नहीं चल सकता । पॅूजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के भी दुनिया में कई रूप हैं। उनका आज जो विकसित रूप  देखने को मिल रहा है , वह उनकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं का परिणाम है। बीसवीं सदी में यूरोप के देषों का जब साम्राज्यवादी विस्तार हुआ, तभी वे विकसित देषों की श्रेणी मेें आए। आज अमरीका की साम्राज्यवादी नीतियाॅ पूरी दुनियां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उसे अपना बाजार बनाने में लगी हुई हैं। उसका सबसे बड़ा और एकाधिकारी बाजार सैन्य साजोसामान का बाजार है, जो इस बात का संकेत है कि दुनिया में युद्ध होते रहें और उसका सैन्य उद्योग फलीभूत होता रहे। समाजवादी व्यवस्था में ऐसा संभव नहीं हो पाता , इस वजह से वह आर्थिक दृष्टि से पीछे रहता दिखाई दे सकता है। पॅूजीवादी व्यवस्थाओं मेें हर व्यक्ति अपनी चिंता करता है, इसलिए इस तरह के समाजों में स्वार्थ -भावना का चरमोत्कर्ष और अलगाव , हिंसा , छल-कपट , बेईमानी , भ्रष्टाचार ,हत्या , आत्महत्या का ग्राफ बहुत ऊॅचा रहता है ,जबकि समाजवादी व्यवस्था में ऐसा बहुत कम हो पाता है। यहाॅ समाज में अलगाव और अजनबीपन का भाव समाप्त हो जाता है । इसलिए एक प्रयोग के विफल हो जाने से निराष हो जाने की जरूरत नहीं । मनुष्य की हजारों वर्षों की सभ्यता यात्रा इसी मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं है। इसे बहुत आगे जाना है । जब आगे जाएगी तो अपने नये-नये विकल्प भी तलाषेगी । उन विकल्पों को तलाषने में माक्र्सवादी विचारधारा की भूमिका अहम् होगी मेरा ऐसा विष्वास है। तुलसी बाबा ने विजय रथ के दो पहिए बतलाए हैं - एक षौर्य , दूसरा धैर्य । ’’सौरज धीरज तेहि चाका ।‘‘ जिसने धैर्य खो दिया ,वह सच्चा षूरवीर नहीं हो सकता । जरूरत इस बात की है कि हमको इस समय जो ऐतिहासिक भूमिका करने को मिली हुई है , उसको करते रहंे। संषोधन की जरूरत है आचरण और व्यवस्था के स्तर पर , न कि माक्र्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों के स्तर पर। आचरण के मामले में हमारे देष में महात्मा गाॅधी का उदाहरण है। हम उनसे भी सीख सकते हैं।  

Saturday 22 October 2011

जो जनता से जुड़कर नहीं चलेगा वह अंततः लिखना ही छोड़ देगा या न लिखने का कारण खोजता फिरेगा


  डाॅ0जीवन सिंह जी की कविता , कवि कर्म और आलोचना पर हुई इस बातचीत की खासियत है कि उन्होंने प्रत्येक प्रष्न का विस्तार से और उदाहरण सहित जबाब दिया है जिसके चलते प्रत्येक प्रष्न का उत्तर एक लघु आलेख सा बन गया है जिससे एक स्पष्ट समझदारी का निर्माण होता है । यह खुषी की बात है कि यह बातचीत अनेक युवा कवियों के लिए उपयोगी साबित हो रही है। हमारा युवा साथियों से अनुरोध है कि यदि उनके मन में कोई प्रष्न पैदा होते हैं तो उन्हें भी यहाँ दर्ज करें ताकि आगे वे प्रष्न जीवन सिंह जी के सामने रखे जा सकें और एक नया संवाद प्रारम्भ हो सके। इस आषा के साथ प्रस्तुत है इस बातचीत की चैथी कड़ी-


  
 कपिलेश भोज- आपने अपने जीवन में श्रेष्ठ कविताओं से क्या ग्रहण किया , यानी श्रेष्ठ कविताओं ने आपको क्या दिया ?कविता से आप अपना व्यक्तिगत संबंध किस रूप में पाते हैं?
 डाॅ0 जीवन सिंह- यह श्रेष्ठ कविताओं का ही प्रताप है कि मैं आज भी साहित्य-रसिक बना हुआ हँॅू , अन्यथा मैं  भी हिंदी के अन्य बहुत सारे  अध्यापकों की तरह सेवानिवृत्ति के बाद अपना कोई धंधा चला रहा होता । षेयर-मार्केट में डूबा हुआ होता । कुंजियाँ लिख रहा होता। ट्यूषन पढ़ा रहा होता। किसी कोचिंग इन्स्ट्यूट से साठ-गाँठ कर धन का जुगाड़ कर रहा होता । ऐसी कोषिष कर रहा होता कि सरप्लस पूँजी का विस्तार होता रहे। जमीन-जायदादों की खरीद-फरोख्त का काम भी कर सकता था। मेरे कई साथी , रिष्तेदार इस काम को कर रहे हैं और मालामाल हो रहे हैं। कुछ नहीं करता तो एक एन0जी0ओ0 रजिस्टर्ड करा लेता और मेवात के जन साथ छल करता हुआ अपनी चैधराहट कायम करता और धन-संचय भी होता । आज तो इतने साधन सुलभ हैं कि आप किसी भी स्रोत से पूँजी प्रवाह पा सकते हैं। आज इनमें से मैं कुछ नहीं कर रहा हँू तो यह मुझे कविता और साहित्य-कर्म ने ही सिखलाया है। कविताओं से मैंने ग्रहण किया है कि सामान्य मेहनतकष जन की पक्षधरता में रहो , वही हमारा आज सच्चा साथी हो सकता है। कविता से ही मैंने यह सीखा है कि यह दुनिया और इसकी संस्कृति सब कुछ मानवीय श्रम से बना है। श्रम ही आधार है सारी अधिरचनाओं का । कभी फिर समय आएगा ,जब श्रम के दर्षन के अनुसार दुनिया बदलेगी और पूँजी एवं बाजार का वर्चस्व खत्म होगा।वे श्रम के सहयोगी रहेंगे ,मालिक नहीं । मेरे षहर में श्रम के दर्षन और संस्कृति के संदर्भ में सभा ,गोष्ठी आदि जहाँ भी होती हैं ,उनमें जाता हूँ और अपने पक्ष को रखता हँू। तुलसी के रामचरितमानस ,राधेष्याम रामायण और स्थानीय लोककवियों द्वारा रचित कविताओं के आधार पर पिछले लगभग 150 वर्षों से मेरे गाँव में रामलीलाएँ होती हैं- अपने काव्यप्रेम की वजह से उनमें भाग लेता हँॅू। पहले इनमें कई भूमिकाएं अदा करता था ,अब केवल ’ रावण ’ की भूमिका अदा करता हँू। इस वजह से अपने गाँव से ही नहीं अपने इलाके की जनता से मेरा रिष्ता बना हुआ है। वे मुझे पिछले चालीस सालों से लगातार बाहर रहने और अलवर में बस जाने के बाद भी भूले नहीं हैं। मुझे नाम से जानते हैं और बुजुर्ग लोग आज भी नाम से बुलाते हैं और तू-तड़ाक षैली में बात करते हैं। अलवर में भी मैं अलवर के राठ इलाके की एक प्रसिद्ध ख्याल षैली ’ अलीबख्षी ख्याल’ से जुड़ा हुआ है। मेरी कोषिष है कि इसकी विरासत किसी न किसी रूप में बनी रहे । इसके अलावा मेरा गाँव ब्रज-सीमा पर आता है। इस कारण ब्रज-संस्कृति का भी गहरा असर मेवाती संस्कृति पर रहा है। ब्रज के रसिया , आल्हा , ढोला , नौटंकी आदि में भी रस लेता हँू। अलीबख्षी ख्यालों और नौटंकी के ’ चैबोला ’ और ’ रसिया ’ को मन-रंजक के लिए गा भी लेता हँू। कविता प्रेम ने ही मुझे लोकजीवन , लोकसंस्कृति और लोक साहित्य का रसिक बनाया है। जब कोई व्यक्ति किसी बात में रस लेने लग जाता है , तो इससे आगे उसमें डूबने भी लग जाता है । डूबने वाला ही तिरता है और जो डूबता नहीं ,वह डूब जाता है। बिहारी ने कहा भी है - तंत्री नाद कवित्त रस , सरस राग ,रतिरंग । अनबूड़े बूड़े ,तिरे ,वे बूड़े सब अंग।। कविता ने ही सिखाया कि उसमें डूबो तो सर्वांग के साथ डूबो। आधे-अधूरे डूबोगे तो कहीं के नहीं रहोगे। कविता कहीं हमको नैतिक जीवन जीने की ओर भी प्रेरित करती है। सामान्य जन के प्रति आत्मीयता का भाव पैदा करती है।भावों -विचारों की सफाई करती है और आत्मिक जीवन को साफ-सुथरा बनाती है। मैं कविता से यह सब ग्रहण करता हँू। 
    कविता से मैं अपना रिष्ता इस सौंदर्यपूर्ण संसार में एक परिवार के सदस्य की तरह मानता हूँ। मेरा मन सुंदरता की खोज में भटकता है तो मुझे कविता में ही आश्रय मिलता है। मेरा निजी एवं बाहरी संसार अनेक तरह की कुरूपताओं से भरा हुआ है। इस संसार में जो बाहरी सौंदर्य नजर आता है , वह मेरी सौंदर्य कामना को पूरा नहीं करता । इस संसार में मेरे आसपास दंभ , अहंकार , प्रदर्षन ,ढोंग ,अन्याय ,लूट-खसोट ,छल-फरेब ,उत्पीड़न आदि का एक कुरूपता भरा कारोबार चल रहा है। इसमें मुझे सौंदर्य का कोई रास्ता नजर नहीं आता । विकल्प बनते हैं तो दूर तक नहीं चल पाते । ऐसे में कविता के विकल्प मेरे लिए सहारा बनते हैं। मुझे इसके भीतर वह संसार मिलता है, जिसका सौंदर्य मेरे अभिप्रेत है। जहाँ राम की तरह त्याग और संघर्ष की एक महान सौंदर्य रेखा है। श्रीकृष्ण का बालसुलभ लालित्य और साहचर्यगत स्वच्छंद प्रेम है , जहाँ ज्ञान से पैदा दंभ टूटता है। जैसे रामकाव्य में बाहुबल ,जातिबल और पूँजीबल पर सीधा प्रहार है और जिसके समक्ष सामान्य नर-वानरोें के सरल एवं सहज जीवन की प्रतिष्ठा है। मेरे सामने के भौतिक संसार में यह बात नहीं है। वहाँ इसका ठीक उल्टा हो रहा है । आज हमारे सामने बाहरी सौंदर्य की प्रतिष्ठा है जबकि आंतरिक और आत्मिक सौंदर्य को कोई नहीं पूछता । कविता ने हमेषा से आत्मिक सौंदर्य को प्रतिष्ठित किया है।यह बात कोई मुक्तिबोध सरीखा कवि ही कविता में कह सकता है कि मेहनतकष के पास जो आत्मबल का वैभव है ,वह धन्नासेठों और पूँजी के मद में डूबे मालिकों के पास कहाँ?उन्होंने मेहनतकषों को संबोधित करते हुए एक कविता में कहा है- ’’ तुम्हारे पास हमारे पास /ईमान का डंडा है /हृदय की तगारी है/अभय की गैंती है/ बुद्धि का बल्लम है/ बनाने को /नए-नए आत्मा के /मनुष्य के ।’’ हमारे व्यवहार की दुनिया में ये बातें दूर-दूर तक ढूँढे नहीं मिलती । निराला में भी आपने पत्थर तोड़ती युवती के सौंदर्य और संघर्षपूर्ण जीवन को प्रतिष्ठित होते देखा है । इसी तरह से कविता मेरा दूसरा और वास्तविक संसार है ,जहाँ मेरे तन और मन दोनों को सूकून मिलता है और मैं सच्चाई के निकट रहता हूँ। एक ऐसी सच्चाई जो फिलहाल मुझे आसपास की दुनिया मेें बहुत कम नजर आती है।
केशव तिवारी:-जीवन सिंह जी , आपकी अब तक तीन पुस्तकें- ’कविता की लोक प्रकृति’ ,’ कविता और कवि कर्म’ तथा ’ षब्द और संस्कृति ’ आई हैं। आपने इन तीनों में ही लोक को केंद्र में रखकर कविता को समझा और परखा है। इसकी मूल वजह क्या है?
डाॅ0 जीवन सिंह :-निस्संदेह , केषव जी , इन तीनों किताबों की चिंतन-प्रक्रिया के कंेद्र में लोक ही है। मैंने लोकभूमि के इस सूत्र को काव्य और काव्य-चिंतन की अपनी  परम्परा के भीतर से पकड़ा है। यही वह सूत्र है जो रीतिकवि केषवदास की ’ रामचंद्रिका ’ को , ’ रामचरितमानस’ से परवर्ती रचना होते हुए भी महत्वपूर्ण नहीं बनने देता । यह लोकभूमि ही है ,जो सारे विचारधारात्मक एवं वस्तुगत अंतर्विरोधों के बावजूद ’ रामचरितमानस’ को आज की एक अति उत्कृष्ट एवं अद्भुत कालजयी रचना का स्थान दिलाए हुए है। कबीर की क्रांतिकारिता भी उनकी लोकसंबद्धता में ही है। यदि वे लोकविरत रहकर पाखंड-विखंडन की पद्धति अपनाते तो भक्ति आंदोलना के षीर्ष पर नहीं होते । वे अपने समय के श्रमिक -कलाकार वर्ग की पीड़ा और उनके कर्म के महत्व की रचना ,कविता में करते हैं ,यद्यपि उनकी इस महत्वपूर्ण और मुख्य भूमिका का उद्घाटन अभी तक हिंदी-साहित्य-चिंतन में पूरी तरह नहीं हो पाया है। उनका संपूर्ण सौंदर्यबोध लोकक्रियाओं की भूमि से उपजा है। यहीं से कबीर की कविता का सौंदर्यषास्त्र निर्मित होता है। सूर-जायसी-मीरा आदि महान कवियों की भूमि भी यही है।सूर पषुपालक जीवन की भावसमृद्ध कर्मण्यता के महान चित्रकार हैं । जायसी की प्रेमगाथा भी तभी पूर्णता प्राप्त करती है ,जबकि नागमति अपना रानीपन भूल जाती है। मीरा लोकलाज की सांमती रूढ़ियों से संघर्ष करती हुई लोक की उस वास्तविक भूमि तक पहुँचती हैं , जहाँ जीवन का सहज एवं स्वाधीन विवके फलता-फूलता है। आधुनिक काव्यपरम्परा में निराला की काव्यभूमि का फैलाव इसी बिंदु तक होता है। हिंदी-साहित्य-चिंतन में आचार्य रामचंद्र षुक्ल ने इसी सूत्र को पकड़कर गंभीर आलोचकीय दायित्व का निर्वाह किया।  दूसरी बात यह है कि हमारा हिंदी समाज अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद जनपदीय लोकजीवन के भाव-केंद्र्रों से आज भी अपनी ऊर्जा ले रहा है। उसके सारे पिछडे़पन के बावजूद जीवन-कर्म की सृष्टि का बहुत बड़ा आधार ,आज भी आधुनिक जीवन को इन्हीं के श्रम से प्राप्त हो रहा है। सृष्टि ,रचना ,सृजन कुछ भी नाम दें क्या यह सब मानवीय श्रम के बिना संभव है ? लेकिन यह हमारी संकीर्णता और स्वार्थबद्धता है कि इस तरह के श्रम को हमेषा दरकिनार करते हैं और आधुनिक ज्ञान-प्रक्रिया को उससे इतना बढ़कर मानते हैं कि श्रम की क्रूर उपेक्षा करने में कोई संकोच नहीं बरतते। इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम लोकजीवन में व्याप्त रूढ़ियों और अंतर्विरोधों की अनदेखी करें। लेकिन यह भी जाँच लें कि ये रूढ़ियाँ और अंतर्विरोध उस जीवन में भी उतनी ही तीव्रता में मौजूद हैं ,जिसे हम आधुनिकता-संपन्न जीवन कहते हैं। मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है मनुष्य के रूप में अमनुष्य होते जाना । आधुनिक जीवन का आकलन करके देख लीजिए कि वहाँ आधुनिक विवके के साथ जीवन-व्यवहार में मनुष्यता का स्तर कितना बढ़ा है और कितना कम हुआ है। मनुष्यता की सृष्टि और फैलाव जितना ज्ञानसत्ता से होता है उतना ही मनुष्य की भाव सत्ता से । इन दोनों का संतुलन और द्वंद्वात्मक रिष्ता होना जरूरी होता है। यही वजह है कि मनुष्य की भाव सत्ता को स्थापित करने के लिए लोक के मूल को पकड़े रहना पड़ता है। 
केशव  तिवारीः-आप  के लिए लोक की अवधारणा  क्या है ? क्या लोक केवल गाँव या जनपद तक ही सीमित है?
डाॅ0 जीवन सिंह- ऊपर कही गई बातों से यद्यपि लोक की अवधारणा स्पष्ट हो जानी चाहिए ,तथापि मेरे लिए लोक वह क्र्र्रियाषील सामूहिक जीवन है ,जो अपनी श्रम-प्रक्रिया में आज भी मानवीय भावसत्ता को बचाए हुए है। लोक से मेरा मतलब है वह साधारण-सामूहिक जीवन, जो श्रम से संबद्ध रहकर सहजता को बचाए हुए है। इसका मतलब यह नहीं कि उसके अपने अंतर्विरोध नहीं हैं। वे हैं और कम नहीं हैं। इसके बावजूद ,कविता में हमेषा मनुष्यता की संभावनाओं को तलाषते हुए उसकी सर्जना की जाती है और अंतर्विरोधों का खुलासा करते हुए उसके यथार्थ को उद्घाटित किया जाता है। यह जिस भूमि पर संभव हो सकता है , वह मेरे विवेक से लोक ही हो सकता है और इसमा संबंध गाँव ,जनपद ,नगर और महानगर सभी से है। नगरों-महानगरों की सभ्यता का निर्माण भी तो श्रम से ही हुआ है , लेकिन देखने की बात है कि इस सभ्यता में श्रम के साथ कैसा सुलूक किया जाता है। श्रम के सौंदर्य को दिखाने मात्र से काम नहीं चलता , उसके साथ आधुनिकतापरस्त लोगों का सुलूक कैसा है ,यह भी देखा-दिखाया जाना चाहिए। तब मालूम होगा कि आधुनिक जीवन के भीतर कितना गहरा अँधेरा मौजूद है । मुक्तिबोध की कविताओं में व्यक्त होने वाला सघन अंधकार किस जीवन का अंधकार है ? इस अंधेरे को पैदा करने वाली ताकतें कहाँ हैं ? यह कहीं न कहीं उस आधुनिक सभ्यता का अंधकार ही होगा ,जो एक ओर मनुष्य को विवेकसंपन्न बनाती है ,उसे सम्यता के नए चरण में पहँुचाती है , दूसरी ओर उसके मानवीय सत्व को क्षीण भी करती जाती है।
केशव  तिवारीः- लोक का प्रयोग आधुनिकतावादियों के यहाँ भी बहुत हो रहा है। आप स्वयं को उससे कैसे अलगाते हैं ?
 डाॅ0 जीवन सिंह- दरअसल , लोक किसी की बपौती नहीं है। आधुनिकतावादी जीवन जीने वाले लोगों का काम भी लोक के बिना नहीं चलता । उनके घरों में झाड़ू-पौंछा ,बर्तन माँजने वाले , चैका-चूल्हे का काम करने वाले ,उनकी कारों के ड्राइवर ,बाग-बगीचों के माली आदि कहाँ से आते हैं ?जिंदगी तो मिश्रित प्रक्रिया से चलती है । गेहूँ ,चना ,बाजरा ,मक्का आदि  के रूप में हर घर में किसान का श्रम मौजूद रहता है । वस्त्रों-आवासों में श्रम प्रक्रिया रहती है , लेकिन आधुनिक विवेक इस सब को अपनी जद से , अपने सोच-चिंतन और व्यवहार से बाहर ही नहीं रखता वरन् निरंतर उसका षोषण-उत्पीड़न भी करता है। जो ’विवेक’ ,षोषण-उत्पीड़न की प्रक्रिया को महसूस नहीं कर पाता , वही विवेक आधुनिकतावादी है। इसी तरह आधुनिकतावादी कवि , लोक को अपने श्रृगार और सजावट के लिए लाता है या यह विभ्रम पैदा करने के लिए कि देखिए वह लोक का कितना हिमायती है। इस तरह का विभ्रम कभी-कभी रीतिकवि भी किया करते थे। सुमित्रानंदन पंत की कविता में भी इस तरह का बदलाव आया था ,लेकिन वे उस पर लंबे समय तक नहीं टिक पाए।टिके तो अकेले निराला ही। निराला लोक से भाव और बोध दोनों स्तरों पर जुड़े थे ,जब कि पंत केवल बोध के स्तर पर। आधुनिकतावादी ,लोक से बोध के स्तर पर जुड़ते हैं ,भाव और बोध की द्वंद्वात्मकता में नहीं।
   केशव  तिवारीः- कविता में लोकभाषा भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और आप कहते हैं कि आज का कवि उसकी सामथ्र्य का उपयोग नहीं कर रहा है। इस पर कुछ विस्तार से कहें।
डाॅ0 जीवन सिंह- लोकभाषा उन कवियों के लिए ही महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है ,जो लोकजीवन और प्रकृति को कविता की रचना के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं और लोकभाषा-व्यवहार से अच्छी तरह वाकिफ हैं तथा उसकी अभिधा ,लक्षणा और व्यंजना की संभावनाओं को जानते हैं। जो जानते हैं कि लोकहृदय को जाने बिना कविता-कर्म अधूरा है । जो लोकजीवन को पिछड़ा ,भावुकतापूर्ण तथा एक ग्राम्यकर्म मानते हैं , उनके लिए लोकभाषा भी एक पिछड़ी अभिव्यक्ति व्यवस्था ही रही है। या फिर कह सकते हैं कि आधुनिकतावादी सरोकारों से जुड़ी एक सीमित जीवन-व्यवस्था की वहाँ तक पहुँच ही नहीं रही है । जो जानेगा नहीं , मानेगा कैसे ? अपनी काव्यपरम्परा में ही देख लीजिए , लोकभाषा का मुद्दा वहीं रहा है जहाँ लोकजीवन और लोकव्यवहार रहा है । कबीर ,सूर ,जायसी ,तुलसी ,मीरा की काव्यभाषा की षक्ति उनकी लोकभाषा ही रही है। निराला के ’ बेला ’ और ’ नए पत्ते ’ संग्रहों की भाषा को देख लीजिए। 
   केशव  तिवारीः-हाल में अभी कुछ आलोचकों द्वारा यह बात उठायी गयी है कि लोक की कविता में बौद्धिकता का नकार और भावुकता की अधिकता है। साथ ही राजनीतिक कविताएँ भी लोक में नहीं लिखी जा रही हैं। यह बात आपको कहाँ तक सही लगती है ?
डाॅ0 जीवन सिंह-सामान्यतः यह बात ठीक है कि अभी तक अधिकांष कवियों ने लोक को भावुकता के स्तर पर ही लिया है ,लेकिन बौद्धिकता के नकार की बात ठीक नहीं है। बौद्धिकता को नकारा षायद किसी कवि ने नहीं । बौद्धिकता का न आ पाना और बौद्धिकता को नकारना दो अलग-अलग बातें हैं । षायद यह लोक की प्रकृति ही है कि वहाँ भावुकता की गुंजाइष कुछ ज्यादा ही रहती है । फिर भी कोरी भावुकता से काम नहीं चलता । सच तो यह है कि भावुकता बहुत एकांगी हो जाती है,यदि विवेक का अंकुष उसके ऊपर न रहे। कविता के लिए भाव की जरूरत हर समय में रही है। भाव के बिना काव्यरचना संभव नहीं है , लेकिन सभ्यता के विकास और उसकी जटिल होती संबंध-व्यवस्था में भाव के साथ बोध और अग्रगामी विवेक की जरूरत बढ़ती जाती है और इनमें द्वंद्वात्मकता को साधना पड़ता है ,जिससे असंतुलन का खतरा पैदा न हो। जहाँ तक राजनीतिक कविताओं का सवाल है ,मेरी समझ में काव्यकला के भीतर इस तरह की विभागबद्ध कविताओं की माँग करना उचित प्रतीत नहीं होता। राजनीतिक ही क्यों , फिर आर्थिक ,सामाजिक ,नैतिक ,ऐतिहासिक ,दार्षनिक कविताओं की माँग क्यों नहीं ? कविता का मूल प्रयोजन अपने पाठक की सौंदर्यदृष्टि को अधुनातन बनाकर उसे समृद्ध करना होता है। यह कवि को  आजादी होनी चाहिए कि वह इस काम को कैसे करता है ? दूसरे ,जब किसी कवि की जीवन-दृष्टि का कोण सही होता है तो उसकी हर बात अपने समय की राजनीति को प्रभावित करती है। इस तरह , एक बड़े कवि की किसी भी विषय पर लिखी गई कविता , अपने कोण में राजनीति हो जाती है। 


कपिले भोज- हिंदी में आज पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बहुत अधिक तादाद में कविताएँ प्रकाष में आ रही हैं , उनकी प्रकृति और उनकी दिषा के संबंध में आपका क्या सोचना है? 
 डाॅ0 जीवन सिंह- पत्र-पत्रिकाओं में अधिक तादाद में कविता-प्रकाषन के बावजूद आज हिंदी में कोई बड़ी  काव्यात्मक हलचल नहीं हैं। कुछ कवि तो ऐसे हैं जो अभ्यासवष कविताएँ लिखते जा रहे हैं। यह कविता -व्यापार ऐसा है , जिसमें आप लागत का निर्धारण आसानी से नहीं कर सकते। यद्यपि मूल्यांकन में काव्य-निवेष की प्रक्रिया का आकलन किया जाता है और यह यदि किसी एक समय में नहीं हो पाता ,तो भविष्य इस काम को करता है। आखिर ,आचार्य रामचंद्र्र षुक्ल ने सूर , तुलसी , जायसी का कई षताब्दियों बाद मूल्यांकन किया ही जब इसमें भी बात अधूरी रह गई तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की ओर हिंदी पाठक वर्ग का ध्यान आकर्षित किया। मीरा को धुर भक्ति क्षेत्र से निकाल स्त्री-चेतना के आलोक में देखकर छूटी बातों का मूल्यांकन हो रहा है । कविता की छिपी हुई ताकत और आंतरिक षक्ति में अवगाहन किया जा रहा है। पत्र-पत्रिकाएँ हैं ,द्रुतगति वाला छापाखाना मौजूद है ,मित्र लोग हैं , सरप्लस पूँजी है , पत्रिका-संपादकों को भी अपना व्यवसाय चलाना है -पत्रिका निकाली है तो छापने के लिए कुछ तो चाहिए ही। अब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा दृष्टिवान ,नीतिकुषल और तपस्वी-त्यागी संपादक तो षायद ही कोई हो , फिर तादाद तो बढ़ेगी ही । मित्र ,दोस्त ,सखा और व्यवहार कुषल लोग सब जगह हैं। मैंने सुना है कुछ आलोचक ऐसे भी पैदा हो गए हैं जो कवियों -कहानीकारों को धमकाते हैं कि कवि और कहानीकार तो हम बनाते हैं। हमारी इच्छा होगी ,हम उसे ही बनाएंगे । हल्दी गाँठ वाले पंसारी सभी जगह हैं। ऐसे माहौल में कविता की प्रकृति और दिषा के बारे में सोच पाना कितना मुष्किल होता है ,यह आप जान सकते हैं । जहाँ तक मेरी अपनी बात है मुझे वह कविता कतई प्रभावित नहीं करती ,जिसमें मुझे रस न मिले । सरसता और सहजता ये कविता के इतने बड़े गुण हैं कि इनके बिना कविता संभव ही नहीं है। हमारे यहाँ ’ रस सिद्धांत’ की षास्त्रीयता का इतना अंधविरोध हुआ कि हमारे यानी कवियों ,आलोचकों और पाठकों के भीतरी रस-स्रोत ही सूखने लग गए। भाई , रस सिद्धांत की षास्त्रीयता को गोली मारो, उसकी रूढ़िग्रस्त जकड़बंदी से मुक्त होने का मतलब यह नहीं है कि ’ रस ’ यानी ’ भाव ’ यानी ’ अनुभूति ’ से ही किनारा कर लो । कविता कोरा चिंतन नहीं है और न ही वह किसी विचारधारात्मकता  का उल्था है। कविता की पहली षर्त है जीवनानुभूति । अनुभूति कभी ’ भाव ’ से दूर नहीं हो सकती। ’ भाव ’ के बिना अनुभूति कैसे होगी , मेरी समझ के बाहर है। कविता का पाठक भी भाव , अनुभूति और उसकी रसात्मक प्रकृति की वजह से उसके पास आता है। अतः यथार्थ की रचना करना कविता का प्रयोजन है तो कविता में व रसात्मक यथार्थ ही होगा। 
   आज जीवन की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह वर्गीय रूप मेें हमारे यहाँ भी अपनी षक्ल में आ चुका है । कहना न होगा कि उच्च एवं उच्च मध्यवर्ग के रस-स्रोत सूख चुके हैं। उनकी इंद्रियों ने काम करना लगभग बंद कर दिया है। न वे अच्छा देख सकते हैं , न अच्छा सुन सकते हैं । इनका पिछलग्गू , बौद्धिक क्रीतदास वर्ग भी इसी दषा को प्राप्त होता जा रहा है। रुपया ,धन ,पूँजी ,वैभव जितनी तेजी से और बिना किसी नैतिक आजीविका अर्जन के बढ़ता  है ,उतना ही हम उस निम्न मेहनतकष-किसान और इनसे संबद्ध लोगांे के सहज सरस जीवन से दूर होते जाते हैं और इसी प्रक्रिया में हमारे जीवन का रस बोध सूखता चला जाता है। हमें फिर कुछ बौद्धिक उत्तेजना प्रदान करने वाली बातें तो अच्छी लगती हैं , सुहाती हैं किंतु भावोत्तेजना की ज्यादा गंुजाइष वहाँ नहीं रहती । इसलिए ज्यादातर कविताएँ मुझे रीते घड़े की तरह लगती हैं । जहाँ घड़ा ही घड़ा है जल नहीं । कविता का रूप भी बहुत बेढंगा। मुक्त छंद को साध लेने वाले कवि आज कितने  हैं।आड़ी-टेढ़ी पंक्तियाँ लिख देने से मुक्त छंद नहीं बन जाता । फिर भी कुछ लोग हैं जो जीवन-यथार्थ के साथ उनकी सरसता को ढूँढ-ढूँढ कर ला रहे हैं और वे लोकहृदय की पहचान कर रहे हैं । मेरा मतलब यहाँ ’ भावुक परिवेष ’ के निर्माण से न होकर मनुष्य की उस भावसत्ता से है ,जो समकालीन बौद्धिक प्रखरता एवं दृष्टि संपन्न वैचारिकता के बिना संभव नहीं है। कविता-सृजन कोई एक फार्मूला बना लेने से संभव नहीं है। उसके लिए हमारे जीवन में जितनी विविधता ,व्यापकता , जटिलता और गहराई मौजूद है , उतना ही कवि के लिए भी जरूरी है। अनुमान लगा लीजिए कि जब कविता के साथ इतनी बड़ी षर्त है तो उसके आस्वादक और विवेचक ,आलोचक और आलोचना के लिए इससे कितनी बड़ी षर्त होगी ?प्रसिद्ध फ्रंासीसी लेखक बफून ने एक जगह कहा है कि ’’ अच्छा लिखने का अर्थ है कि अच्छी तरह महसूस करना ,अच्छी तरह सोचना और अच्छी तरह व्यक्त करना ।’’  
महेशचंद्र पुनेठा-राजेंद्र यादव अपने एक संपादकीय में कहते हैं कि एक कवि आज के जटिल खंडित यथार्थ पर  या तो लाचार किस्म की हाय-हाय कर सकता है या भौंचक होकर देखता रह सकता है कि यह कौन-सा क्र्रूर सत्य अचानक ही प्रकट होकर उसे डरा रहा है। पिछले पचास साल के वैचारिक विमर्षों में उद्धरणों के लिए भी कविता की जरूरत नहीं रह गई है। क्या वास्तव में कविता इनती दरिद्र हो गई है या फिर यह कथाकार-संपादक का कविता के प्रति दुराग्रह है ?
डा0 जीवन सिंह - पहली बात तो यह है कि राजेंद्र यादव कविता के नागरिक हैं ही नहीं । वे अच्छे कथाकार और बेहतरीन संपादक-विचारक हैं ,लेकिन कविता के अच्छे पारखी नहीं । सीमाएँ तो पृथ्वी की भी हैं और महासागरों की भी । फिर आदमी की कौन बात ? राजेंद्र यादव जी ने कविता के बारे में जो भी कहा है वह उनके निजी विचार हैं। जैसे और बहुत सी बातें हैं जिन पर वे गाहे-बगाहे अपना पक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं। चूँकि उनके हाथ में एक मंच है इसलिए लोग उनकी बात सुनते भी हैं। वे तो सृष्टि के इतिहास-क्रम में भारतीय समाज के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास तक से एक बिदके नागरिक की तरह व्यवहार करते हैं। वे दलित-उत्पीड़न का सारा क्रोध इतिहास पर उतारते हैं। यादव जी के सोच-विचार में कहीं संतुलन का सौंदर्य नजर नहीं आता। वे स्वभाव और संस्कार से अतिवादी हैं और कहीं-कहीं अहमन्य भी । अतः कविता के बारे में वे जो कुछ भी कहते हैं , अतिवादी ढंग से कहते हैं । उसमें सार की बातें कम रहकर थोथापन अधिक होता है।  जैसा कि कबीर ने कहा है कि गृहीता को थोथेपन को उड़ा देना चाहिए। अगर आप समकालीन कविता का अध्ययन करेंगे तो यादव जी की बात की असलियत का पता चल जाएगा। कविता में सबसे बड़ी ताकत है व्यंजना की ,उन ध्वनियों की जो कविता में प्रयुक्त षब्द की विषेष ताकत होती है। यह ताकत गद्य विधाओं के पास नहीं होती। इसलिए पहले कविता की प्रकृति को समझ लेना चाहिए। तभी उसके ऊपर राय कायम करनी चाहिए । जहाँ तक पिछले पचास सालों के वैचारिक विमर्षों में उद्धरणों का सवाल है - मुक्तिबोध , नागार्जुन ,षमषेर ,रघुवीर सहाय और इनके बाद की पीढ़ी के कवियों में अरूण कमल , राजेष जोषी की कविताओं के उद्धरणों को आसानी से देखा जा सकता है। कविता के स्वभाव की अनदेखी कर हम कोई बात करेंगे तो यादव जी के निष्कर्षों तक ही पहुँचेंगे। कविता निरंतर समृद्ध हो रही है और हिंदी की समकालीन  कविता विष्व-कविता की बराबरी पर है। आज की ज्वलंत चुनौतियों में कविता निरंतर हस्तक्षेप कर रही है। सच में यह राजेंद्र यादव जी का कविता के प्रति दुराग्रह ही है या कहीं हीनता ग्रन्थि कि कविता हर मोर्चे पर बाजी मार  ले जाती है। वैसे विधाओं में आपसी कोई लड़ाई नहीं होती । 
महेश चंद्र पुनेठा-जन-आन्दोलनों ,जीवन संघर्षों तथा जनता से जुड़ना कवि के लिए आप कितना जरूरी मानते हैं और क्यों ?
डा0 जीवन सिंह -दरअसल देखना यह चाहिए कि जन-आंदोलनों ,संघर्षों और जनता से जुड़ने से तात्पर्य क्या है? क्या यह जुड़ना विषुद्ध सामाजिक-राजनैतिक कार्यकत्र्ता की तरह है ? तो षायद ही कवि-रचनाकार उस तरह जन-आंदोलनों से जुड़ पाते हों । हाँ ,आपातकाल की बात अलग है । जैसे कि फासिज्म श्के विरुद्ध चलने वाली लड़ाई में योरोप के कई लेखक जन-आंदोलनों से जुड़े और जन-संघर्षों में उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। कई कवि-लेखक क्रंातिकारी संघर्षों में षामिल रहे। महात्मा गाँधी के आह्वान पर प्रेमचंद ने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इससे बावजूद वे एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता की तरह आंदोलन से नहीं जुड़े । दरअसल साहित्य रचना भी पूर्णकालिक काम है। जो इसे अंषकालिक कार्य की तरह करते हैं , वे साहित्य में अच्छे परिणाम नहीं दे पाते । चूँकि साहित्य-सृजन की प्रेरणा जन-जीवन से प्राप्त होती है ,इसलिए उससे अलग रहकर तो सृजन ही संभव नहीं है। पिछली सदी के महान रचनाकार रवीन्द्र्रनाथ टैगोर देष के स्वाधीनता आंदोलना से जुड़े रहकर अपने रचना कर्म मंे संलग्न रहे। आज भी हिंदी के कई लेखक -रचनाकार कांग्रेस ,कम्युनिस्ट पार्टियोें के सदस्य बनकर अपना रचना कर्म कर रहे हैं। कई रचनाकार दूसरे आंदोलनों से जुड़े हुए हैं। जो जनता से जुड़कर नहीं चलेगा वह अंततः लिखना ही छोड़ देगा या न लिखने का कारण खोजता फिरेगा।