Saturday 22 October 2011

जो जनता से जुड़कर नहीं चलेगा वह अंततः लिखना ही छोड़ देगा या न लिखने का कारण खोजता फिरेगा


  डाॅ0जीवन सिंह जी की कविता , कवि कर्म और आलोचना पर हुई इस बातचीत की खासियत है कि उन्होंने प्रत्येक प्रष्न का विस्तार से और उदाहरण सहित जबाब दिया है जिसके चलते प्रत्येक प्रष्न का उत्तर एक लघु आलेख सा बन गया है जिससे एक स्पष्ट समझदारी का निर्माण होता है । यह खुषी की बात है कि यह बातचीत अनेक युवा कवियों के लिए उपयोगी साबित हो रही है। हमारा युवा साथियों से अनुरोध है कि यदि उनके मन में कोई प्रष्न पैदा होते हैं तो उन्हें भी यहाँ दर्ज करें ताकि आगे वे प्रष्न जीवन सिंह जी के सामने रखे जा सकें और एक नया संवाद प्रारम्भ हो सके। इस आषा के साथ प्रस्तुत है इस बातचीत की चैथी कड़ी-


  
 कपिलेश भोज- आपने अपने जीवन में श्रेष्ठ कविताओं से क्या ग्रहण किया , यानी श्रेष्ठ कविताओं ने आपको क्या दिया ?कविता से आप अपना व्यक्तिगत संबंध किस रूप में पाते हैं?
 डाॅ0 जीवन सिंह- यह श्रेष्ठ कविताओं का ही प्रताप है कि मैं आज भी साहित्य-रसिक बना हुआ हँॅू , अन्यथा मैं  भी हिंदी के अन्य बहुत सारे  अध्यापकों की तरह सेवानिवृत्ति के बाद अपना कोई धंधा चला रहा होता । षेयर-मार्केट में डूबा हुआ होता । कुंजियाँ लिख रहा होता। ट्यूषन पढ़ा रहा होता। किसी कोचिंग इन्स्ट्यूट से साठ-गाँठ कर धन का जुगाड़ कर रहा होता । ऐसी कोषिष कर रहा होता कि सरप्लस पूँजी का विस्तार होता रहे। जमीन-जायदादों की खरीद-फरोख्त का काम भी कर सकता था। मेरे कई साथी , रिष्तेदार इस काम को कर रहे हैं और मालामाल हो रहे हैं। कुछ नहीं करता तो एक एन0जी0ओ0 रजिस्टर्ड करा लेता और मेवात के जन साथ छल करता हुआ अपनी चैधराहट कायम करता और धन-संचय भी होता । आज तो इतने साधन सुलभ हैं कि आप किसी भी स्रोत से पूँजी प्रवाह पा सकते हैं। आज इनमें से मैं कुछ नहीं कर रहा हँू तो यह मुझे कविता और साहित्य-कर्म ने ही सिखलाया है। कविताओं से मैंने ग्रहण किया है कि सामान्य मेहनतकष जन की पक्षधरता में रहो , वही हमारा आज सच्चा साथी हो सकता है। कविता से ही मैंने यह सीखा है कि यह दुनिया और इसकी संस्कृति सब कुछ मानवीय श्रम से बना है। श्रम ही आधार है सारी अधिरचनाओं का । कभी फिर समय आएगा ,जब श्रम के दर्षन के अनुसार दुनिया बदलेगी और पूँजी एवं बाजार का वर्चस्व खत्म होगा।वे श्रम के सहयोगी रहेंगे ,मालिक नहीं । मेरे षहर में श्रम के दर्षन और संस्कृति के संदर्भ में सभा ,गोष्ठी आदि जहाँ भी होती हैं ,उनमें जाता हूँ और अपने पक्ष को रखता हँू। तुलसी के रामचरितमानस ,राधेष्याम रामायण और स्थानीय लोककवियों द्वारा रचित कविताओं के आधार पर पिछले लगभग 150 वर्षों से मेरे गाँव में रामलीलाएँ होती हैं- अपने काव्यप्रेम की वजह से उनमें भाग लेता हँॅू। पहले इनमें कई भूमिकाएं अदा करता था ,अब केवल ’ रावण ’ की भूमिका अदा करता हँू। इस वजह से अपने गाँव से ही नहीं अपने इलाके की जनता से मेरा रिष्ता बना हुआ है। वे मुझे पिछले चालीस सालों से लगातार बाहर रहने और अलवर में बस जाने के बाद भी भूले नहीं हैं। मुझे नाम से जानते हैं और बुजुर्ग लोग आज भी नाम से बुलाते हैं और तू-तड़ाक षैली में बात करते हैं। अलवर में भी मैं अलवर के राठ इलाके की एक प्रसिद्ध ख्याल षैली ’ अलीबख्षी ख्याल’ से जुड़ा हुआ है। मेरी कोषिष है कि इसकी विरासत किसी न किसी रूप में बनी रहे । इसके अलावा मेरा गाँव ब्रज-सीमा पर आता है। इस कारण ब्रज-संस्कृति का भी गहरा असर मेवाती संस्कृति पर रहा है। ब्रज के रसिया , आल्हा , ढोला , नौटंकी आदि में भी रस लेता हँू। अलीबख्षी ख्यालों और नौटंकी के ’ चैबोला ’ और ’ रसिया ’ को मन-रंजक के लिए गा भी लेता हँू। कविता प्रेम ने ही मुझे लोकजीवन , लोकसंस्कृति और लोक साहित्य का रसिक बनाया है। जब कोई व्यक्ति किसी बात में रस लेने लग जाता है , तो इससे आगे उसमें डूबने भी लग जाता है । डूबने वाला ही तिरता है और जो डूबता नहीं ,वह डूब जाता है। बिहारी ने कहा भी है - तंत्री नाद कवित्त रस , सरस राग ,रतिरंग । अनबूड़े बूड़े ,तिरे ,वे बूड़े सब अंग।। कविता ने ही सिखाया कि उसमें डूबो तो सर्वांग के साथ डूबो। आधे-अधूरे डूबोगे तो कहीं के नहीं रहोगे। कविता कहीं हमको नैतिक जीवन जीने की ओर भी प्रेरित करती है। सामान्य जन के प्रति आत्मीयता का भाव पैदा करती है।भावों -विचारों की सफाई करती है और आत्मिक जीवन को साफ-सुथरा बनाती है। मैं कविता से यह सब ग्रहण करता हँू। 
    कविता से मैं अपना रिष्ता इस सौंदर्यपूर्ण संसार में एक परिवार के सदस्य की तरह मानता हूँ। मेरा मन सुंदरता की खोज में भटकता है तो मुझे कविता में ही आश्रय मिलता है। मेरा निजी एवं बाहरी संसार अनेक तरह की कुरूपताओं से भरा हुआ है। इस संसार में जो बाहरी सौंदर्य नजर आता है , वह मेरी सौंदर्य कामना को पूरा नहीं करता । इस संसार में मेरे आसपास दंभ , अहंकार , प्रदर्षन ,ढोंग ,अन्याय ,लूट-खसोट ,छल-फरेब ,उत्पीड़न आदि का एक कुरूपता भरा कारोबार चल रहा है। इसमें मुझे सौंदर्य का कोई रास्ता नजर नहीं आता । विकल्प बनते हैं तो दूर तक नहीं चल पाते । ऐसे में कविता के विकल्प मेरे लिए सहारा बनते हैं। मुझे इसके भीतर वह संसार मिलता है, जिसका सौंदर्य मेरे अभिप्रेत है। जहाँ राम की तरह त्याग और संघर्ष की एक महान सौंदर्य रेखा है। श्रीकृष्ण का बालसुलभ लालित्य और साहचर्यगत स्वच्छंद प्रेम है , जहाँ ज्ञान से पैदा दंभ टूटता है। जैसे रामकाव्य में बाहुबल ,जातिबल और पूँजीबल पर सीधा प्रहार है और जिसके समक्ष सामान्य नर-वानरोें के सरल एवं सहज जीवन की प्रतिष्ठा है। मेरे सामने के भौतिक संसार में यह बात नहीं है। वहाँ इसका ठीक उल्टा हो रहा है । आज हमारे सामने बाहरी सौंदर्य की प्रतिष्ठा है जबकि आंतरिक और आत्मिक सौंदर्य को कोई नहीं पूछता । कविता ने हमेषा से आत्मिक सौंदर्य को प्रतिष्ठित किया है।यह बात कोई मुक्तिबोध सरीखा कवि ही कविता में कह सकता है कि मेहनतकष के पास जो आत्मबल का वैभव है ,वह धन्नासेठों और पूँजी के मद में डूबे मालिकों के पास कहाँ?उन्होंने मेहनतकषों को संबोधित करते हुए एक कविता में कहा है- ’’ तुम्हारे पास हमारे पास /ईमान का डंडा है /हृदय की तगारी है/अभय की गैंती है/ बुद्धि का बल्लम है/ बनाने को /नए-नए आत्मा के /मनुष्य के ।’’ हमारे व्यवहार की दुनिया में ये बातें दूर-दूर तक ढूँढे नहीं मिलती । निराला में भी आपने पत्थर तोड़ती युवती के सौंदर्य और संघर्षपूर्ण जीवन को प्रतिष्ठित होते देखा है । इसी तरह से कविता मेरा दूसरा और वास्तविक संसार है ,जहाँ मेरे तन और मन दोनों को सूकून मिलता है और मैं सच्चाई के निकट रहता हूँ। एक ऐसी सच्चाई जो फिलहाल मुझे आसपास की दुनिया मेें बहुत कम नजर आती है।
केशव तिवारी:-जीवन सिंह जी , आपकी अब तक तीन पुस्तकें- ’कविता की लोक प्रकृति’ ,’ कविता और कवि कर्म’ तथा ’ षब्द और संस्कृति ’ आई हैं। आपने इन तीनों में ही लोक को केंद्र में रखकर कविता को समझा और परखा है। इसकी मूल वजह क्या है?
डाॅ0 जीवन सिंह :-निस्संदेह , केषव जी , इन तीनों किताबों की चिंतन-प्रक्रिया के कंेद्र में लोक ही है। मैंने लोकभूमि के इस सूत्र को काव्य और काव्य-चिंतन की अपनी  परम्परा के भीतर से पकड़ा है। यही वह सूत्र है जो रीतिकवि केषवदास की ’ रामचंद्रिका ’ को , ’ रामचरितमानस’ से परवर्ती रचना होते हुए भी महत्वपूर्ण नहीं बनने देता । यह लोकभूमि ही है ,जो सारे विचारधारात्मक एवं वस्तुगत अंतर्विरोधों के बावजूद ’ रामचरितमानस’ को आज की एक अति उत्कृष्ट एवं अद्भुत कालजयी रचना का स्थान दिलाए हुए है। कबीर की क्रांतिकारिता भी उनकी लोकसंबद्धता में ही है। यदि वे लोकविरत रहकर पाखंड-विखंडन की पद्धति अपनाते तो भक्ति आंदोलना के षीर्ष पर नहीं होते । वे अपने समय के श्रमिक -कलाकार वर्ग की पीड़ा और उनके कर्म के महत्व की रचना ,कविता में करते हैं ,यद्यपि उनकी इस महत्वपूर्ण और मुख्य भूमिका का उद्घाटन अभी तक हिंदी-साहित्य-चिंतन में पूरी तरह नहीं हो पाया है। उनका संपूर्ण सौंदर्यबोध लोकक्रियाओं की भूमि से उपजा है। यहीं से कबीर की कविता का सौंदर्यषास्त्र निर्मित होता है। सूर-जायसी-मीरा आदि महान कवियों की भूमि भी यही है।सूर पषुपालक जीवन की भावसमृद्ध कर्मण्यता के महान चित्रकार हैं । जायसी की प्रेमगाथा भी तभी पूर्णता प्राप्त करती है ,जबकि नागमति अपना रानीपन भूल जाती है। मीरा लोकलाज की सांमती रूढ़ियों से संघर्ष करती हुई लोक की उस वास्तविक भूमि तक पहुँचती हैं , जहाँ जीवन का सहज एवं स्वाधीन विवके फलता-फूलता है। आधुनिक काव्यपरम्परा में निराला की काव्यभूमि का फैलाव इसी बिंदु तक होता है। हिंदी-साहित्य-चिंतन में आचार्य रामचंद्र षुक्ल ने इसी सूत्र को पकड़कर गंभीर आलोचकीय दायित्व का निर्वाह किया।  दूसरी बात यह है कि हमारा हिंदी समाज अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद जनपदीय लोकजीवन के भाव-केंद्र्रों से आज भी अपनी ऊर्जा ले रहा है। उसके सारे पिछडे़पन के बावजूद जीवन-कर्म की सृष्टि का बहुत बड़ा आधार ,आज भी आधुनिक जीवन को इन्हीं के श्रम से प्राप्त हो रहा है। सृष्टि ,रचना ,सृजन कुछ भी नाम दें क्या यह सब मानवीय श्रम के बिना संभव है ? लेकिन यह हमारी संकीर्णता और स्वार्थबद्धता है कि इस तरह के श्रम को हमेषा दरकिनार करते हैं और आधुनिक ज्ञान-प्रक्रिया को उससे इतना बढ़कर मानते हैं कि श्रम की क्रूर उपेक्षा करने में कोई संकोच नहीं बरतते। इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम लोकजीवन में व्याप्त रूढ़ियों और अंतर्विरोधों की अनदेखी करें। लेकिन यह भी जाँच लें कि ये रूढ़ियाँ और अंतर्विरोध उस जीवन में भी उतनी ही तीव्रता में मौजूद हैं ,जिसे हम आधुनिकता-संपन्न जीवन कहते हैं। मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है मनुष्य के रूप में अमनुष्य होते जाना । आधुनिक जीवन का आकलन करके देख लीजिए कि वहाँ आधुनिक विवके के साथ जीवन-व्यवहार में मनुष्यता का स्तर कितना बढ़ा है और कितना कम हुआ है। मनुष्यता की सृष्टि और फैलाव जितना ज्ञानसत्ता से होता है उतना ही मनुष्य की भाव सत्ता से । इन दोनों का संतुलन और द्वंद्वात्मक रिष्ता होना जरूरी होता है। यही वजह है कि मनुष्य की भाव सत्ता को स्थापित करने के लिए लोक के मूल को पकड़े रहना पड़ता है। 
केशव  तिवारीः-आप  के लिए लोक की अवधारणा  क्या है ? क्या लोक केवल गाँव या जनपद तक ही सीमित है?
डाॅ0 जीवन सिंह- ऊपर कही गई बातों से यद्यपि लोक की अवधारणा स्पष्ट हो जानी चाहिए ,तथापि मेरे लिए लोक वह क्र्र्रियाषील सामूहिक जीवन है ,जो अपनी श्रम-प्रक्रिया में आज भी मानवीय भावसत्ता को बचाए हुए है। लोक से मेरा मतलब है वह साधारण-सामूहिक जीवन, जो श्रम से संबद्ध रहकर सहजता को बचाए हुए है। इसका मतलब यह नहीं कि उसके अपने अंतर्विरोध नहीं हैं। वे हैं और कम नहीं हैं। इसके बावजूद ,कविता में हमेषा मनुष्यता की संभावनाओं को तलाषते हुए उसकी सर्जना की जाती है और अंतर्विरोधों का खुलासा करते हुए उसके यथार्थ को उद्घाटित किया जाता है। यह जिस भूमि पर संभव हो सकता है , वह मेरे विवेक से लोक ही हो सकता है और इसमा संबंध गाँव ,जनपद ,नगर और महानगर सभी से है। नगरों-महानगरों की सभ्यता का निर्माण भी तो श्रम से ही हुआ है , लेकिन देखने की बात है कि इस सभ्यता में श्रम के साथ कैसा सुलूक किया जाता है। श्रम के सौंदर्य को दिखाने मात्र से काम नहीं चलता , उसके साथ आधुनिकतापरस्त लोगों का सुलूक कैसा है ,यह भी देखा-दिखाया जाना चाहिए। तब मालूम होगा कि आधुनिक जीवन के भीतर कितना गहरा अँधेरा मौजूद है । मुक्तिबोध की कविताओं में व्यक्त होने वाला सघन अंधकार किस जीवन का अंधकार है ? इस अंधेरे को पैदा करने वाली ताकतें कहाँ हैं ? यह कहीं न कहीं उस आधुनिक सभ्यता का अंधकार ही होगा ,जो एक ओर मनुष्य को विवेकसंपन्न बनाती है ,उसे सम्यता के नए चरण में पहँुचाती है , दूसरी ओर उसके मानवीय सत्व को क्षीण भी करती जाती है।
केशव  तिवारीः- लोक का प्रयोग आधुनिकतावादियों के यहाँ भी बहुत हो रहा है। आप स्वयं को उससे कैसे अलगाते हैं ?
 डाॅ0 जीवन सिंह- दरअसल , लोक किसी की बपौती नहीं है। आधुनिकतावादी जीवन जीने वाले लोगों का काम भी लोक के बिना नहीं चलता । उनके घरों में झाड़ू-पौंछा ,बर्तन माँजने वाले , चैका-चूल्हे का काम करने वाले ,उनकी कारों के ड्राइवर ,बाग-बगीचों के माली आदि कहाँ से आते हैं ?जिंदगी तो मिश्रित प्रक्रिया से चलती है । गेहूँ ,चना ,बाजरा ,मक्का आदि  के रूप में हर घर में किसान का श्रम मौजूद रहता है । वस्त्रों-आवासों में श्रम प्रक्रिया रहती है , लेकिन आधुनिक विवेक इस सब को अपनी जद से , अपने सोच-चिंतन और व्यवहार से बाहर ही नहीं रखता वरन् निरंतर उसका षोषण-उत्पीड़न भी करता है। जो ’विवेक’ ,षोषण-उत्पीड़न की प्रक्रिया को महसूस नहीं कर पाता , वही विवेक आधुनिकतावादी है। इसी तरह आधुनिकतावादी कवि , लोक को अपने श्रृगार और सजावट के लिए लाता है या यह विभ्रम पैदा करने के लिए कि देखिए वह लोक का कितना हिमायती है। इस तरह का विभ्रम कभी-कभी रीतिकवि भी किया करते थे। सुमित्रानंदन पंत की कविता में भी इस तरह का बदलाव आया था ,लेकिन वे उस पर लंबे समय तक नहीं टिक पाए।टिके तो अकेले निराला ही। निराला लोक से भाव और बोध दोनों स्तरों पर जुड़े थे ,जब कि पंत केवल बोध के स्तर पर। आधुनिकतावादी ,लोक से बोध के स्तर पर जुड़ते हैं ,भाव और बोध की द्वंद्वात्मकता में नहीं।
   केशव  तिवारीः- कविता में लोकभाषा भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और आप कहते हैं कि आज का कवि उसकी सामथ्र्य का उपयोग नहीं कर रहा है। इस पर कुछ विस्तार से कहें।
डाॅ0 जीवन सिंह- लोकभाषा उन कवियों के लिए ही महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है ,जो लोकजीवन और प्रकृति को कविता की रचना के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं और लोकभाषा-व्यवहार से अच्छी तरह वाकिफ हैं तथा उसकी अभिधा ,लक्षणा और व्यंजना की संभावनाओं को जानते हैं। जो जानते हैं कि लोकहृदय को जाने बिना कविता-कर्म अधूरा है । जो लोकजीवन को पिछड़ा ,भावुकतापूर्ण तथा एक ग्राम्यकर्म मानते हैं , उनके लिए लोकभाषा भी एक पिछड़ी अभिव्यक्ति व्यवस्था ही रही है। या फिर कह सकते हैं कि आधुनिकतावादी सरोकारों से जुड़ी एक सीमित जीवन-व्यवस्था की वहाँ तक पहुँच ही नहीं रही है । जो जानेगा नहीं , मानेगा कैसे ? अपनी काव्यपरम्परा में ही देख लीजिए , लोकभाषा का मुद्दा वहीं रहा है जहाँ लोकजीवन और लोकव्यवहार रहा है । कबीर ,सूर ,जायसी ,तुलसी ,मीरा की काव्यभाषा की षक्ति उनकी लोकभाषा ही रही है। निराला के ’ बेला ’ और ’ नए पत्ते ’ संग्रहों की भाषा को देख लीजिए। 
   केशव  तिवारीः-हाल में अभी कुछ आलोचकों द्वारा यह बात उठायी गयी है कि लोक की कविता में बौद्धिकता का नकार और भावुकता की अधिकता है। साथ ही राजनीतिक कविताएँ भी लोक में नहीं लिखी जा रही हैं। यह बात आपको कहाँ तक सही लगती है ?
डाॅ0 जीवन सिंह-सामान्यतः यह बात ठीक है कि अभी तक अधिकांष कवियों ने लोक को भावुकता के स्तर पर ही लिया है ,लेकिन बौद्धिकता के नकार की बात ठीक नहीं है। बौद्धिकता को नकारा षायद किसी कवि ने नहीं । बौद्धिकता का न आ पाना और बौद्धिकता को नकारना दो अलग-अलग बातें हैं । षायद यह लोक की प्रकृति ही है कि वहाँ भावुकता की गुंजाइष कुछ ज्यादा ही रहती है । फिर भी कोरी भावुकता से काम नहीं चलता । सच तो यह है कि भावुकता बहुत एकांगी हो जाती है,यदि विवेक का अंकुष उसके ऊपर न रहे। कविता के लिए भाव की जरूरत हर समय में रही है। भाव के बिना काव्यरचना संभव नहीं है , लेकिन सभ्यता के विकास और उसकी जटिल होती संबंध-व्यवस्था में भाव के साथ बोध और अग्रगामी विवेक की जरूरत बढ़ती जाती है और इनमें द्वंद्वात्मकता को साधना पड़ता है ,जिससे असंतुलन का खतरा पैदा न हो। जहाँ तक राजनीतिक कविताओं का सवाल है ,मेरी समझ में काव्यकला के भीतर इस तरह की विभागबद्ध कविताओं की माँग करना उचित प्रतीत नहीं होता। राजनीतिक ही क्यों , फिर आर्थिक ,सामाजिक ,नैतिक ,ऐतिहासिक ,दार्षनिक कविताओं की माँग क्यों नहीं ? कविता का मूल प्रयोजन अपने पाठक की सौंदर्यदृष्टि को अधुनातन बनाकर उसे समृद्ध करना होता है। यह कवि को  आजादी होनी चाहिए कि वह इस काम को कैसे करता है ? दूसरे ,जब किसी कवि की जीवन-दृष्टि का कोण सही होता है तो उसकी हर बात अपने समय की राजनीति को प्रभावित करती है। इस तरह , एक बड़े कवि की किसी भी विषय पर लिखी गई कविता , अपने कोण में राजनीति हो जाती है। 


कपिले भोज- हिंदी में आज पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बहुत अधिक तादाद में कविताएँ प्रकाष में आ रही हैं , उनकी प्रकृति और उनकी दिषा के संबंध में आपका क्या सोचना है? 
 डाॅ0 जीवन सिंह- पत्र-पत्रिकाओं में अधिक तादाद में कविता-प्रकाषन के बावजूद आज हिंदी में कोई बड़ी  काव्यात्मक हलचल नहीं हैं। कुछ कवि तो ऐसे हैं जो अभ्यासवष कविताएँ लिखते जा रहे हैं। यह कविता -व्यापार ऐसा है , जिसमें आप लागत का निर्धारण आसानी से नहीं कर सकते। यद्यपि मूल्यांकन में काव्य-निवेष की प्रक्रिया का आकलन किया जाता है और यह यदि किसी एक समय में नहीं हो पाता ,तो भविष्य इस काम को करता है। आखिर ,आचार्य रामचंद्र्र षुक्ल ने सूर , तुलसी , जायसी का कई षताब्दियों बाद मूल्यांकन किया ही जब इसमें भी बात अधूरी रह गई तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की ओर हिंदी पाठक वर्ग का ध्यान आकर्षित किया। मीरा को धुर भक्ति क्षेत्र से निकाल स्त्री-चेतना के आलोक में देखकर छूटी बातों का मूल्यांकन हो रहा है । कविता की छिपी हुई ताकत और आंतरिक षक्ति में अवगाहन किया जा रहा है। पत्र-पत्रिकाएँ हैं ,द्रुतगति वाला छापाखाना मौजूद है ,मित्र लोग हैं , सरप्लस पूँजी है , पत्रिका-संपादकों को भी अपना व्यवसाय चलाना है -पत्रिका निकाली है तो छापने के लिए कुछ तो चाहिए ही। अब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा दृष्टिवान ,नीतिकुषल और तपस्वी-त्यागी संपादक तो षायद ही कोई हो , फिर तादाद तो बढ़ेगी ही । मित्र ,दोस्त ,सखा और व्यवहार कुषल लोग सब जगह हैं। मैंने सुना है कुछ आलोचक ऐसे भी पैदा हो गए हैं जो कवियों -कहानीकारों को धमकाते हैं कि कवि और कहानीकार तो हम बनाते हैं। हमारी इच्छा होगी ,हम उसे ही बनाएंगे । हल्दी गाँठ वाले पंसारी सभी जगह हैं। ऐसे माहौल में कविता की प्रकृति और दिषा के बारे में सोच पाना कितना मुष्किल होता है ,यह आप जान सकते हैं । जहाँ तक मेरी अपनी बात है मुझे वह कविता कतई प्रभावित नहीं करती ,जिसमें मुझे रस न मिले । सरसता और सहजता ये कविता के इतने बड़े गुण हैं कि इनके बिना कविता संभव ही नहीं है। हमारे यहाँ ’ रस सिद्धांत’ की षास्त्रीयता का इतना अंधविरोध हुआ कि हमारे यानी कवियों ,आलोचकों और पाठकों के भीतरी रस-स्रोत ही सूखने लग गए। भाई , रस सिद्धांत की षास्त्रीयता को गोली मारो, उसकी रूढ़िग्रस्त जकड़बंदी से मुक्त होने का मतलब यह नहीं है कि ’ रस ’ यानी ’ भाव ’ यानी ’ अनुभूति ’ से ही किनारा कर लो । कविता कोरा चिंतन नहीं है और न ही वह किसी विचारधारात्मकता  का उल्था है। कविता की पहली षर्त है जीवनानुभूति । अनुभूति कभी ’ भाव ’ से दूर नहीं हो सकती। ’ भाव ’ के बिना अनुभूति कैसे होगी , मेरी समझ के बाहर है। कविता का पाठक भी भाव , अनुभूति और उसकी रसात्मक प्रकृति की वजह से उसके पास आता है। अतः यथार्थ की रचना करना कविता का प्रयोजन है तो कविता में व रसात्मक यथार्थ ही होगा। 
   आज जीवन की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह वर्गीय रूप मेें हमारे यहाँ भी अपनी षक्ल में आ चुका है । कहना न होगा कि उच्च एवं उच्च मध्यवर्ग के रस-स्रोत सूख चुके हैं। उनकी इंद्रियों ने काम करना लगभग बंद कर दिया है। न वे अच्छा देख सकते हैं , न अच्छा सुन सकते हैं । इनका पिछलग्गू , बौद्धिक क्रीतदास वर्ग भी इसी दषा को प्राप्त होता जा रहा है। रुपया ,धन ,पूँजी ,वैभव जितनी तेजी से और बिना किसी नैतिक आजीविका अर्जन के बढ़ता  है ,उतना ही हम उस निम्न मेहनतकष-किसान और इनसे संबद्ध लोगांे के सहज सरस जीवन से दूर होते जाते हैं और इसी प्रक्रिया में हमारे जीवन का रस बोध सूखता चला जाता है। हमें फिर कुछ बौद्धिक उत्तेजना प्रदान करने वाली बातें तो अच्छी लगती हैं , सुहाती हैं किंतु भावोत्तेजना की ज्यादा गंुजाइष वहाँ नहीं रहती । इसलिए ज्यादातर कविताएँ मुझे रीते घड़े की तरह लगती हैं । जहाँ घड़ा ही घड़ा है जल नहीं । कविता का रूप भी बहुत बेढंगा। मुक्त छंद को साध लेने वाले कवि आज कितने  हैं।आड़ी-टेढ़ी पंक्तियाँ लिख देने से मुक्त छंद नहीं बन जाता । फिर भी कुछ लोग हैं जो जीवन-यथार्थ के साथ उनकी सरसता को ढूँढ-ढूँढ कर ला रहे हैं और वे लोकहृदय की पहचान कर रहे हैं । मेरा मतलब यहाँ ’ भावुक परिवेष ’ के निर्माण से न होकर मनुष्य की उस भावसत्ता से है ,जो समकालीन बौद्धिक प्रखरता एवं दृष्टि संपन्न वैचारिकता के बिना संभव नहीं है। कविता-सृजन कोई एक फार्मूला बना लेने से संभव नहीं है। उसके लिए हमारे जीवन में जितनी विविधता ,व्यापकता , जटिलता और गहराई मौजूद है , उतना ही कवि के लिए भी जरूरी है। अनुमान लगा लीजिए कि जब कविता के साथ इतनी बड़ी षर्त है तो उसके आस्वादक और विवेचक ,आलोचक और आलोचना के लिए इससे कितनी बड़ी षर्त होगी ?प्रसिद्ध फ्रंासीसी लेखक बफून ने एक जगह कहा है कि ’’ अच्छा लिखने का अर्थ है कि अच्छी तरह महसूस करना ,अच्छी तरह सोचना और अच्छी तरह व्यक्त करना ।’’  
महेशचंद्र पुनेठा-राजेंद्र यादव अपने एक संपादकीय में कहते हैं कि एक कवि आज के जटिल खंडित यथार्थ पर  या तो लाचार किस्म की हाय-हाय कर सकता है या भौंचक होकर देखता रह सकता है कि यह कौन-सा क्र्रूर सत्य अचानक ही प्रकट होकर उसे डरा रहा है। पिछले पचास साल के वैचारिक विमर्षों में उद्धरणों के लिए भी कविता की जरूरत नहीं रह गई है। क्या वास्तव में कविता इनती दरिद्र हो गई है या फिर यह कथाकार-संपादक का कविता के प्रति दुराग्रह है ?
डा0 जीवन सिंह - पहली बात तो यह है कि राजेंद्र यादव कविता के नागरिक हैं ही नहीं । वे अच्छे कथाकार और बेहतरीन संपादक-विचारक हैं ,लेकिन कविता के अच्छे पारखी नहीं । सीमाएँ तो पृथ्वी की भी हैं और महासागरों की भी । फिर आदमी की कौन बात ? राजेंद्र यादव जी ने कविता के बारे में जो भी कहा है वह उनके निजी विचार हैं। जैसे और बहुत सी बातें हैं जिन पर वे गाहे-बगाहे अपना पक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं। चूँकि उनके हाथ में एक मंच है इसलिए लोग उनकी बात सुनते भी हैं। वे तो सृष्टि के इतिहास-क्रम में भारतीय समाज के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास तक से एक बिदके नागरिक की तरह व्यवहार करते हैं। वे दलित-उत्पीड़न का सारा क्रोध इतिहास पर उतारते हैं। यादव जी के सोच-विचार में कहीं संतुलन का सौंदर्य नजर नहीं आता। वे स्वभाव और संस्कार से अतिवादी हैं और कहीं-कहीं अहमन्य भी । अतः कविता के बारे में वे जो कुछ भी कहते हैं , अतिवादी ढंग से कहते हैं । उसमें सार की बातें कम रहकर थोथापन अधिक होता है।  जैसा कि कबीर ने कहा है कि गृहीता को थोथेपन को उड़ा देना चाहिए। अगर आप समकालीन कविता का अध्ययन करेंगे तो यादव जी की बात की असलियत का पता चल जाएगा। कविता में सबसे बड़ी ताकत है व्यंजना की ,उन ध्वनियों की जो कविता में प्रयुक्त षब्द की विषेष ताकत होती है। यह ताकत गद्य विधाओं के पास नहीं होती। इसलिए पहले कविता की प्रकृति को समझ लेना चाहिए। तभी उसके ऊपर राय कायम करनी चाहिए । जहाँ तक पिछले पचास सालों के वैचारिक विमर्षों में उद्धरणों का सवाल है - मुक्तिबोध , नागार्जुन ,षमषेर ,रघुवीर सहाय और इनके बाद की पीढ़ी के कवियों में अरूण कमल , राजेष जोषी की कविताओं के उद्धरणों को आसानी से देखा जा सकता है। कविता के स्वभाव की अनदेखी कर हम कोई बात करेंगे तो यादव जी के निष्कर्षों तक ही पहुँचेंगे। कविता निरंतर समृद्ध हो रही है और हिंदी की समकालीन  कविता विष्व-कविता की बराबरी पर है। आज की ज्वलंत चुनौतियों में कविता निरंतर हस्तक्षेप कर रही है। सच में यह राजेंद्र यादव जी का कविता के प्रति दुराग्रह ही है या कहीं हीनता ग्रन्थि कि कविता हर मोर्चे पर बाजी मार  ले जाती है। वैसे विधाओं में आपसी कोई लड़ाई नहीं होती । 
महेश चंद्र पुनेठा-जन-आन्दोलनों ,जीवन संघर्षों तथा जनता से जुड़ना कवि के लिए आप कितना जरूरी मानते हैं और क्यों ?
डा0 जीवन सिंह -दरअसल देखना यह चाहिए कि जन-आंदोलनों ,संघर्षों और जनता से जुड़ने से तात्पर्य क्या है? क्या यह जुड़ना विषुद्ध सामाजिक-राजनैतिक कार्यकत्र्ता की तरह है ? तो षायद ही कवि-रचनाकार उस तरह जन-आंदोलनों से जुड़ पाते हों । हाँ ,आपातकाल की बात अलग है । जैसे कि फासिज्म श्के विरुद्ध चलने वाली लड़ाई में योरोप के कई लेखक जन-आंदोलनों से जुड़े और जन-संघर्षों में उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। कई कवि-लेखक क्रंातिकारी संघर्षों में षामिल रहे। महात्मा गाँधी के आह्वान पर प्रेमचंद ने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इससे बावजूद वे एक राजनीतिक कार्यकत्र्ता की तरह आंदोलन से नहीं जुड़े । दरअसल साहित्य रचना भी पूर्णकालिक काम है। जो इसे अंषकालिक कार्य की तरह करते हैं , वे साहित्य में अच्छे परिणाम नहीं दे पाते । चूँकि साहित्य-सृजन की प्रेरणा जन-जीवन से प्राप्त होती है ,इसलिए उससे अलग रहकर तो सृजन ही संभव नहीं है। पिछली सदी के महान रचनाकार रवीन्द्र्रनाथ टैगोर देष के स्वाधीनता आंदोलना से जुड़े रहकर अपने रचना कर्म मंे संलग्न रहे। आज भी हिंदी के कई लेखक -रचनाकार कांग्रेस ,कम्युनिस्ट पार्टियोें के सदस्य बनकर अपना रचना कर्म कर रहे हैं। कई रचनाकार दूसरे आंदोलनों से जुड़े हुए हैं। जो जनता से जुड़कर नहीं चलेगा वह अंततः लिखना ही छोड़ देगा या न लिखने का कारण खोजता फिरेगा।

3 comments:

  1. 1.यह श्रेष्ठ कविताओं का ही प्रताप है कि मैं आज भी साहित्य-रसिक बना हुआ हूं .
    2.पहली बात तो यह है कि राजेंद्र यादव कविता के नागरिक हैं ही नहीं । वे अच्छे कथाकार और बेहतरीन संपादक-विचारक हैं ,लेकिन कविता के अच्छे पारखी नहीं ।
    3.लोक किसी की बपौती नहीं है। आधुनिकतावादी जीवन जीने वाले लोगों का काम भी लोक के बिना नहीं चलता ।

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  2. मैं इस लेख को शुरू से पढ़ रही हूँ.. और मुझे इसे पुन्ह पढ़ने के लिए आना पड़ेगा...कविता में ताकत है व्यंजना उन ध्वनियों की जो कविता में प्रयुक्त शब्द की विशेष ताकत होती है जो गद्य के पास नही होती..
    साहित्य लेखन एक पूर्णकालिक कार्य है...अच्छी कविता मायने महसूस करना, सोचना, व्यक्त करना................................नमन..

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  3. साहित्य समाज का दर्पण है,और कविता उसकी एक महत्वपूर्ण विधा | अतः कविता का उद्देश्य भी समाज को प्रतिविम्बित करके समाज में सुधार करना ही है.....तरीका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों ही है.....बहुत ही सुंदर विषय को लिया गया है...सही रूप में एक नागरिक के कर्त्तव्य को निभाया है....

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