Monday, 24 October 2011

कविता में सरसता और जीवंतता का ह्रास हुआ है


वरिष्ट साहित्यकार व चिंतक मोहन श्रोत्रीय जी का इस साक्षात्कार की पिछली कड़ियों को पढ़कर कहना है कि जीवन सिंह कि गिनती इस समय के समर्थ आलोचकों में होती है तो अकारण नहीं होती. उनका अध्ययन-मनन बोलता है इन साक्षात्कारों में, जैसे अन्यत्र भी.  वैसे .....बेहतर होता कि पूरा साक्षात्कार एक साथ दे देते. चीज़ें समग्रता में बेहतर समझ में आती हैं.उनके सुझाव को मानते हुए हम यहाँ बातचीत का शेष भाग एक साथ प्रस्तुत कर रहे हैं -




महेश  चंद्र पुनेठा -समकालीन कविता के बारे में कहा जाता है कि वह संकटग्रस्त है , उसके पाठकों की संख्या में काफी कमी आई है। उसमें रागात्मकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ा है । संप्रेषण क्षमता का ह्रास हुआ है। यह कहा जाता है कि छंद के बंधन से मुक्त होना इसका प्रमुख कारण है। कविता के सुधी आलोचक होने के नाते समकालीन कविता की मौजूदा स्थिति पर आप क्या सोचते हैं ?
डा0 जीवन सिंह - जहाँ तक समकालीन कविता की मौजूदा स्थिति का सवाल है वह इतनी संकटग्रस्त नहीं है जितना कि उसका हो-हल्ला मचाया जा रहा है। कविता एक ऐसा सौंदर्यात्मक अनुषासन है जिसकी नियति में हर समय में कुछ न कुछ संकटग्रस्त रहना बदा होता है। उसका आधार है जीवन । वह जीवन की पुनर्रचना है । जब जीवन ही संकटग्रस्त रहेगा तो उसकी सृष्टि उससे मुक्त कैसे होगी। जहाँ तक पाठकों की संख्या का सवाल है उसका सही आँकड़ा हमारे पास नहीं है। मेरे ख्याल से वह आँकड़ा भी इतना कमजोर नहीं होगा । जितना कि कहा जा रहा है। हमें इस बात को समझना चाहिए कि जिस बात का हम जिक्र कर रहे हैं उसका एक विषेष अनुषासन होता है। उसकी एक परम्परा है उसका अपना एक षास्त्र है। वह दर्षन ,इतिहास ,समाज आदि की जटिलताओं को अपने भीतर समाकर चलती है। तब कैसे संभव है कि कोई भी आसानी से ग्रहण कर लेगा । पाठक को भी उसे समझने के लिए प्रयास करने की जरूरत होगी। कविता कोई गुड़ का पुआ नहीं कि हमारे मुँह में आते ही हमारा मुँह मिठास से भर जाए । मेरी बात का आप यह मतलब न निकाल लें कि आज की उस सारी कविता का समर्थन कर रहा हँू जो ढेर की तरह सामने आ रही है। लोकतंत्र का जमाना है सबको सामने आने का मौका मिला है । मध्यवर्ग के पास पैसे की फुसलात भी हुई है। कविता में मंच और प्रपंच दोनों बढ़े हैं। जैसे बरसात के मौसम में बड़े पेड़-पौधों के संग बहुत सारी खरपतवार भी उग जाती है। वैसा ही हाल रचना के मौसम का भी है। 
आपने अपने सवाल में एक साथ कई सवाल पिरो दिए हैं । कविता के पाठक का संकट हमारी उस व्यवस्था का संकट भी है जो संस्कृति और जीवन-मूल्यों के सवालों को हमेषा दर किनार करती है। हम जिस समय में साँस ले रहे हैं ,वहाँ षब्दों के प्रयोग का  संकट सबसे ज्यादा बढ़ा है। दुनिया में बाजर-प्रसार के नाम पर बढ़ तो सम्राज्यवाद रहा है और वैष्वीकरण के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है। बढ़या जा रहा है धर्मांधता को ,अवैज्ञानिकता को , संकीर्णता और अंधविष्वास को  ,जाति और संप्रदायवाद को और कहा जा रहा है कि यह समय उदारीकरण का है। जो उदारता एक सामाजिक जीवन मूल्य है ,उसे एक साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था में घसीटा जा रहा है। तेजी से चीजों को निजीकरण किया जा रहा है और प्रचारित किया जा रहा है कि इससे समाज का भला हो रहा है। तो इससे उस कविता का पाठक कैसे बढ़ेगा जो इन सभी के प्रतिरोध मेें खड़ा है। तभी तो कबीर अपने जमाने में चलती चक्की को देखकर रो दिए थे कि दो पाटों के बीच कोई साबुत नहीं बचा है। साबुत कुछ दाने बचे हैं , जो कीलामानी के पास हैं तो यह बेहतर लोगों की संख्या की कमी की ओर ही संकेत है। 
एक बात आपने पूछी है कि समकालीन कविता की संकटग्रस्तता का एक कारण उसमें गद्यात्मकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ना है और उसकी संपे्रषण क्षमता का ह्रास होना है और इसका कारण है उसका छंद के बंधन से मुक्त होना । पहली बात तो यह है कि जब धूमिल जैसे कवि ,कविता में सपाटबयानी का मुहावरा लेकर आए थे तब इससे इसकी संप्रेषणीयता बढ़ी थी , ह्रास नहीं हुआ था। जब आप सपाट मुहावरे में अपनी बात कहेंगे तो यह आसानी से समझ में आएगी। तो सपाटबयानी संप्रेषण क्षमता को द्योतक हे जिसमें बयान कविता के केंद्र में आया और यह बिंब के विरोध में आया। जबकि आचार्य षुक्ल की मानें तो कविता में अर्थग्रहण नहीं बिंब ग्रहण होता है अर्थात वहाँ जो अर्थ आता हेै वह बिंब के माध्यम से आता है। बिंब ,प्रतीक ,रूपक , व्यंजनाएँ ,फेंटेसी , मिथ ,वक्रोक्तियाँ आदि कविता की कला को व्यक्त करने वाले माध्यम रहे हैं।जिनसे सीधे कविता की संपे्रषण क्षमता प्रभावित होती है और एक पृथक किंतु सुंदर और नियोजित रास्ते से कवि-भावों तक पहँुचना पड़ता है।
हम क्यों न स्वीकार करें कि कविता के पाठक की ग्रहण क्षमता का भी ह्रास हुआ है। आखिर गृहीता की भी कुछ जिम्मेदारी तो बनती ही है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि कविता एक सौंदर्यात्मक अनुषासन है , जहाँ अंधेरे के बीच उजालों का द्वंद्व चलता है और इस तरह से हम यहाँ अंधेरे की ताकत और उजाले की षक्तियों-संभावनाओं से परिचित होते  हैं। एक जमाने में रीतिकवि केषव को कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता था और कहा जाता था कि कवि को देन न चहै विदाई ,तो पूछो केषव की कविताई । इसके बावजूद केषव की कविता को समझ लिया गया। यह अलग बात है कि षुक्ल जी ने उनके कवि के लिए लिखा है कि केषव को कवि हृदय नहीं मिला था। एक कवि में जैसी भावुकता और सरसता एक कवि में होनी चाहिए थी वह केषव में नहीं थी।आचार्य षुक्ल के सामने कविता को मापने का एक बड़ा पैमाना था ,जिसमें सरसता और भावुकता को खास तरजीह दी जाती थी। यह खासियत थी सूर और तुलसी की कविता में । जैसे समकालीन काव्य संसार को मुक्तिबोध की कविता के पैमाने में देखा जाय तो उनकी तुलना में रघुवीर सहाय , श्रीकांत वर्मा ,कुँवर नारायण आदि कवि पीछे रह जाते हैं तो जिसे आज हम गद्यात्मक कह रहे हैं ,वह कविता में सरसता और भावपरायणता का ह्रास है। दरअसल बौद्धिकता के ज्वार में हमने कविता में सरसता और भावपरायणता को इतना दरकिनार किया कि ये बातें कविता के लिए अछूत जैसे बना दी गई है। इनमें उन काव्य आलोचकों का हाथ भी रहा जो अपनी काव्य परम्पराओं को भूलकर विदेषी काव्य चिंतन के पीछे इतने पड़े कि अपनी सुध-बुध ही भूल गए । इसलिए गद्यात्मकता की जगह हमें कहना चाहिए कि कविता में सरसता और जीवंतता का ह्रास हुआ है। कोई अभागा समय ही होगा जो सरसता और भावपरायणता जैसे प्राण तत्वों से उसकी मुक्ति की बात करेगा । कविता या साहित्य के अन्य रूपों की रचना उन सामाजिक परिस्थितियों में होती है जो हर युग में नयी होती हुई भी कहीं अपनी परंपरा के सूत्रों से संबंध बिठाए रहती है। हमारे यहाँ गद्य साहित्य की रचना ,जितनी पष्चिमी प्रभाव में हुई ,उतनी कविता नहीं । इसका सीधा सा कारण है हमारे यहाँ कविता की सुदीर्घ एवं समृद्ध परंपरा का होना । उसकी अनदेखी करके जो रचना होगी , वह नई और आधुनिक तो अवष्य होगी पर आत्मिक स्तर पर उतनी समृद्ध व पूर्ण नहीं होगी । इस वजह से कभी हम कविता में छंद का सवाल उठाते हैं तो कभी लय का। यह दुविधा है । जब हमने छंद से मुक्ति लेकर मुक्त छंद को अपना लिया है तो फिर बजाय मुक्तिछंद के वैषिष्ट्य और विविधता को संपन्न करने के हम छंद वापसी की बातें करने लगे। मान लीजिए छंद वापसी हो भी गई तो फिर दोहा छंद होगा या चैपाई होगी । मात्रिक छंद होंगे या वार्णिक या आल्हा का वीर छंद होगा या रीतिकालीन कवित्त और सवैये । कहा जा सकता है कि यह कुछ होगा तो अभी से कल्पना कीजिए कि बौद्धिक पिछड़ेपन और अग्रगामिता का कैसा वातावरण बनेगा ? इससे गद्यात्मकता का क्षरण तो अवष्य हो जाएगा लेकिन छंद का जो रीतिवाद और रूढ़िवाद पैदा होगा ,उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। यह वैसे ही जैसे आज कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था जातिवाद ,संप्रदायवाद ,पूँजीवाद ,बहुलवाद आदि की विकृतियों से परेषान होकर यह कहने लगे कि इससे तो राजाओं का राज , अंग्रेजी राज और सैनिक तानाषाही अच्छी । स्वाद बदलने के लिए या प्रयोग के लिए छंद में लिख लेना अलग बात है लेकिन अपने समय की जटिलता को व्यक्त करने के लिए छंद में लिख लेना अलग बात है लेकिन अपने समय की जटिलता को व्यक्त करने के लिए छंद का लौटना षायद ही गुणकारी हो ।  यह सभ्यता के विभिन्न चरणांे का सवाल है , न कि अकेले छंद का । हम जैसे अपनी -अपनी वेषभूषा को विषेष समारोहों पर धारण करके प्रसन्न हो लेते हैं ।लेकिन सामान्यतः मध्यवर्ग की वेषभूषा पेंट-षर्ट हो चुकी है । उसी तरह छंद की बात है। हम जहाँ तक आ चुके हैं उससे पीछे लौटना ,मेरी राय मंे न उचित है और मुष्किल काम तो यह है ही।


महेश  चंद्र पुनेठा -छंद के बंधनों से मुक्त होने के बाद से कविता गद्य के एकदम नजदीक चली गई है। कभी-कभी कविता के बाह्य स्वरूप को देखकर कहना कठिन हो जाता है कि यह कविता है या कोई गद्यांष । उदाहणस्वरूप मंगलेष डबराल की ’ चंुबन’ , ’ वापसी ’ ,’ लीपाइ’ ,’ धूल’ जैसी कविताएँ । आखिर इन कविताओं में वे कौन से तत्व हैं जो इन्हें कविता बनाते हैं या फिर ये कहें कि वे कौन-सी बातें हैं जो कविता को गद्य बनाती हैं।
डा0 जीवन सिंह - निःसंदेह आज का कवि कविता में कई तरह के प्रयोग कर रहा है। इसमें इस प्रयोग ,कविता के रूप को गद्यात्मक बना देना भी है । यद्यपि इससे पहले भी गद्य काव्य की एक परम्परा रही है। प्रसाद जी अपने गद्य को काव्यात्मक बनाते ही थे लेकिन उस परम्परा में गद्य में भावुकता को विषेष प्रश्रय दिया जाता था। आज की कविता की प्रकृति सरसता , संक्षिप्ति तथा संष्लिष्टता से बनती है ,जबकि गद्य की वैचारिकता ,विस्तृति और विष्लेषणपरकता से। वैसे एक दूसरे के आँगन में इनकी आवाजाही भी होती है ,क्योंकि साहित्य के रूप में ये दोनों ही हैं। इसलिए जहाँ गद्य में या कहें मुक्तछंद में कविता की प्रकृति का समावेष है। वहाँ वह कविता है और जहाँ खालिस गद्य की प्रकृति है वहाँ गद्य । वैसे मुक्तछंद और गद्यात्मकता में फर्क है। मुक्तछंद ,छंद की रूढ़ि से मुक्त होता है अपनी छांदस प्रकृति से नहीं। कवियों के मुक्तछंद का अध्ययन विष्लेषण अभी चूँकि नहीं के बराबर हुआ है ,इसलिए मुक्तछंद का कोई स्वरूप नहीं बन पाया है। फिर भी कवि अपने वाक्यों को छोटा बड़ा करके विराम चिह्नों का उपयोग करके आंतरिक तुकों और सादृष्य विधान लाकर के किसी टेक पंक्ति के दुहराव से कहीं एक ही अर्थ की माला बनाकर के मुक्त छंदों का सृजन करते हैं। निराला के कवित्त छंद को तोड़कर मुक्त छंद के रूप में फैलाया ही है। मुक्तिबोध की कविता में आंतरिक तुकों का संयोजन और लहजे में लय की सृष्टि मुक्तछंद निर्मित के उद्देष्य से की गई।नागार्जुन ,त्रिलोचन ,केदार ,षमषेर को सभी तरह के प्रयोग करते रहे हैं। रघुवीर सहाय ने भी अपना मुक्तछंद बनाया है। सर्वेष्वर मंे भी छंद से परहेज नहीं है। विजेंद्र ने कितनी ही तरह के प्रयोग कविता में किए हैं। ज्ञानेंद्रपति, राजेष जोषी , अरूण कमल ,एकांत श्रीवास्तव सभी ने अपने-अपने मुक्त छंद के प्रमाण हैं। 
  यह रूढ़िमुक्ति ही है और समय के जटिल होने की जरूरत जो कविता को गद्य की ओर नहीं वरन मुक्तछंद की ओर अग्रसर करती है। छंद मुक्ति और मुक्त छंद में फर्क होता है। कविता मुक्तछंद की सृष्टि है छंद से पूर्ण मुक्ति नहीं।
 महेश  चंद्र पुनेठा - छंद को लेकर वरिष्ठ कवि अरुण कमल का कहना है कि जिसने छंद नहीं सीखा ,जिसने छंद को उन कार्यों के लिए उसी प्रकार इस्तेमाल नहीं किया ,जिस तरह वह निचाट गद्य को करता है ,उसका कवि जीवन अधूरा है । क्या इस तरह पिछले छः-सात दषकों से लिख रहे अधिकांष कवियों का जीवन अधूरा नहीं रह जाता है ,जिसमें स्वयं अरुण कमल भी एक हैं ?
 डा0 जीवन सिंह - छंद को लेकर अरुण कमल की बात से मैं सहमत हूँ । जिसे अपनी छंद परम्परा और लोक जीवन की छांदिकता का ज्ञान नहीं है ,वह जिस कविता की सृष्टि करेगा ,वह आधुनिक तो होगी ,जातीय परम्परा वाली और देषी आधुनिकता से संपन्न नहीं।निःसंदेह उसका कवि जीवन अधूरा होगा। छंद सीखने से यहाँ कतई मतलब नहीं है - छंद में काव्य सृष्टि करना । जैसे अच्छे गायक को केवल अभ्यास ही नहीं होना चाहिए । सुर-ताल की भी कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आधुनिक संगीत को ही ले लीजिए , वह बहुत सी पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति की ओर अग्रसर है। चित्रकला ,मूर्ति षिल्प में भी पुराना छंद टूट रहा है। चित्रकला के रंगों और रेखाओं की संरचना में परिवर्तन आया है। चीजें सभी दिषाओं में परिवर्तन की ओर है , फिर कविता ही उससे अछूती कैसे रह सकती है।
 पिछले छः-सात दषकों से लिखने वाले कवियों में जो प्रतिनिधि कवि रहे हैं ,उन सभी को छंद का ज्ञान रहा है । अनुकरणीय कवियों की बात और है । अन्यथा राजेष जोषी ,अरुण कमल तक छंद की षास्त्रीयता का बारीक ज्ञान कदाचित न हो लेकिन उसका अभ्यास अवष्य है। या फिर वे इतना ज्यादा जानते हैं कि उनको अपनी कविता मुक्त छंद में रचनी है। समय भी इस तरह के अभ्यास में संलग्न रखता है। जो लोग गायक नहीं होते ,वे भी गाने का प्रयास करते हैं । औरतें अपने गीतों के छंद अपने आप बना लेती हैं। एकांत श्रीवास्तव जब लिखते हैं - गुलाब की कलम की तरह/माँ ने मुझे रोपा / जीवन की क्यारी में। यहाँ प्रयुक्त रूपक ने गद्य को छंद में बदल दिया है । एक ऐसे छंद में ,जिसका कोई नाम नहीं क्योंकि वह कोई मुक्त छंद है।कविता के वाक्य की विषेषता होती है कि हम उसके स्थान को कहीं भी बदल सकते हैं । फिर भी उसका अर्थ-सौष्ठव बदलता नहीं । जबकि गद्य में वह बदल जाता है।
महेश  चंद्र पुनेठा -आज कविता छंद से भले ही मुक्त हो गई है , फिर भी उसके लिए लय का होना जरूरी माना जाता है। कविवर विजेंद्र भी कहते हैं - कविता में छंद नहीं , लय प्रमुख है। छंद उसकी एक प्रजाति है। लय का रिष्ता सिर्फ षिल्प के ऊपरी ढाँचे से न होकर कविता की अंतर्वस्तु में व्याप्त हमारी मानवीय निजता एवं प्राण षक्ति से भी है।  आप भी लय को विषेष तरजीह देते हैं । कुछ अन्य , अर्थ की लय ,आतंरिक लय और जीवन की लय की बात करते हैं ,लय के इन विविध रूपों का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताइए कि कविता में हम लय की पहचान कैसे कर सकते हैं ? यदि लय का संबंध वाचन से होता है तब कविता के लिखित रूप में इसे किस तरह व्यक्त किया जा सकता है ?
डा0 जीवन सिंह -आपके प्रष्न का केंद्र लय है। मतलब साफ है , यदि कविता के लिए छंद जरूरी नहीं है तो उसकी रागात्मकता में लय का निर्वाह होना चाहिए । जो लोग अर्थ की लय ,आतंरिक लय और जीवन की लय की बात करते हैं , इनका अर्थ क्या है ? यह तो वे ही बता सकते हैं। वैसे लय का संबंध इन सभी से होता है , लेकिन उसका इन रूपों में विभाजन करने का कोई पुष्ट और तर्क संगत आधार नहीं है। इसमें भी अर्थ की लय जैसी धारणा का कोई सुनिष्चित अर्थ नहीं है। अर्थान्विति को यदि अर्थ की लय कहा जा रहा है तो ठीक है फिर भी अर्थ की लय का भंग कई बार हो जाता है और कई बार करना पड़ता है । लय का संबंध कविता के रूप विधान से है ,जो कविता के लिए प्रयुक्त वाक्यों ,वाक्यांषों और षब्दों का एक प्रवाहमयी संयोजन करके पैदा की जाती है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक आई.ए.रिचडर्स ने आंतरिक अन्विति की बात कही है। जबकि निराला ने मुक्त छंद के लिए प्रवाह को ही मुख्य माना है। प्रवाह का एक रूप पहले छंद निर्धारित करता था जिसे लिखित रूप में भी आसानी से पहचाना जा सकता था। अब क्योंकि वह छंद मुक्त है , इसलिए उसकी असली पहचान तो वाचिक रूप में ही संभव है। हालांकि उसका भी एक निष्चित रूपाकार बन गया है।


महेश  चंद्र पुनेठा - आपने कविता केे सौंदर्यषास्त्र की चर्चा करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि आज की कविता में जितनी कवायद अर्थग्रहण की हो रही है उतनी बिंब ग्रहण की नहीं । क्या इसके लिए कवियों की अपेक्षा आलोचक अधिक जिम्मेदार नहीं है ?
  डा0 जीवन सिंह - पिछली सदी के छठे-सातवें दषकों में समकालीन कविता में समाटबयानी पर खास जोर दिया गया था ,जिसकी वजह षायद अकविता द्वारा बनाए गए एक अराजकतावादी महौल को तोड़ना था तथा कविता में निरर्थक दुर्बोधता और अमूर्तन को हटाकर संपेषणीय बनाता था। धूमिल ने इस प्रवृत्ति का नेतृत्व किया था और उन्होंने अपनी कविता में सपाटबयानी करके अपनी कविता के मुहावरे में आकर्षण पैदा किया था । उसमें भी कवि के विद्रोही स्वरूप को खास तौर से रेखांकित किया गया था। तब नामवर जी ने कविता के नए प्रतिमान के रूप में काव्य बिंब के बरक्स सपाटबयानी को एक प्रतिमान माना था। जिसमें डाॅ.नगेन्द्र के काव्य बिंब के सिद्धांत का विरोध करते हुए यह कहा गया था कि बिंब नई कविता की रूढ़ि था , जिसे सच्चे सृजन के लिए सपाटबयानी से तोड़ा जा रहा था। नामवर सिंह जी ने इसका ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए बतलाया कि छायावाद के अंत में प्रतिक्रिया स्वरूप एक कविता का भाव से विचार की ओर और कल्पना से वास्तविकता की ओर मुड़ी तो एक बारगी कविता में वक्तव्य देने की बाढ़ आ रही थी । यहाँ देखने की बात यह है कि जब बाढ़ जैसे हालात हो , तो प्राकृतिक आपदा जैसी स्थिति बन जाती है। लेकिन बाढ़ कुछ दिनों की होती है , हमेषा की नहीं । कविता के प्रतिमान ऐसे दिनों के होने चाहिए जो थोड़े कष्टकारी दिनों की बजाय ,ज्यादा सूकून भरे दिनों के अनुकूल हों। यही कारण है कि जब यह बाढ़ थम गई तो फिर से बिंब के दिन फिर गए और आचार्य षुक्ल का यह प्रतिमान ही भारी साबित हुआ है कि कविता में अर्थग्रहण की बजाय बिंबग्रहण होता है।
  इसके लिए पहले तो कविगण ही जिम्मेदार है ,जो वक्तव्यवादी कविताओं की बाढ़ ले आए , आलोचक ने तो लक्ष्य ग्रंथों से लक्षण ग्रंथ की सृष्टि की । यह अलग बात है कि आलोचकीय दूरदर्षिता का ध्यान नहीं रखा गया। आलोचक खुद ही बाढ़ के साथ-साथ उसमें बहता चला गया। मल्लाह का काम है बाढ़ का सामना करते नाव को खेते हुए नदी पार करना , न कि खुद बाढ़ की भेंट चढ़ जाना। 
महेश   चंद्र पुनेठा -आप कविता में बिंब ,प्रतीक ,रूपक ,व्यंजना आदि माध्यमों को जरूरी मानते हैं ,जबकि केदारनाथ सिंह के यहाँ ये तत्व काफी मिलते हैं , लेकिन आप उनकी कविता की  आलोचना करते रहे हैं। ऐसा क्यों ?
डा0 जीवन सिंह - कविता में मुख्य होती है अंतर्वस्तु । यह अंतर्वस्तु ही है ,जो अपना रूप निष्चित करती है लेकिन रूप सर्जना में कवि की प्रतिभा ,अध्ययन ,अभ्यास आदि काम में आते हैं। अंतर्वस्तु का निर्धारण भी प्रतिभा , अध्ययन और अभ्यास के बिना संभव नहीं होता । बिंब ,प्रतीक , रूपक आदि क्या करते हैं -यह जानने की बात है । अपने आप में  बिंब ,प्रतीक , रूपकांे का कोई मतलब नहीं। बिंब ,प्रतीक , व्यंजना तो हमारी रीतिकालीन कविता में भी मौजूद हैं लेकिन जिंदगी की गहराई और व्यापकता के अभाव में केवल मनोरंजन तक सीमित होकर रह जाते हैं । केदारनाथ सिंह अपने बिंबों-रूपकों से चमत्कार -सर्जना जितनी करते हैं उतनी अर्थ-सर्जना नहीं। अर्थ-सर्जन में मुक्तिबोध के बिंब और रूपक देखें तो मालूम हो जाएगा कि कौन कितने पानी में है। केदारनाथ सिंह से ज्यादा अर्थवान बिंबों और रूपकों की सर्जना विजेंद्र ने की है । विजेंद्र अपने पाठकों को चमत्कार के बीहड़ों में नहीं भटकाते।
                         
 महेश  चंद्र पुनेठा- जीवन सिंह जी , आपने आलोचना को ही अपनी लेखन-विधा के रूप मेें क्यों चुना ? आपकी आलोचना यात्रा के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा है।
डा0 जीवन सिंह - आपको सही बात बतलाऊॅ ,तो मैं तो अपने विद्यार्थी जीवन से ही छंदों में तुकें भिड़ाता था और  चाहता था कि कविताएं ही लिखूूॅ ,लिखी भी , लेकिन उनके प्रकाषन के प्रति सदैव संकोच बरता । आज भी जब इच्छा होती है ,तो अपनी बात को कविता के आकार में लिखकर अपने पास रख लेता हॅू। कई बार वह बात वही होती है ,  जो मैं आलोचना में कहना चाहता हॅू । जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण भी पारम्परिक था ,सच कहें तो रूढ़िवादी था । मेरे काव्य संस्कार , मेरे गाॅव में रामचरितमानस पर आधारित रामलीला से बने थे। एक दर्षक के रूप में ,मैं रामलीला के उन पात्रों की आलोचना करता था ,जो मंच पर अभिनेता के रूप में चैपाइयों का या तो आधा-अधूरा अर्थ करते थे ,या गलत । एक आलोचक मेरे मन में रहता था कि मैं भी कभी इन पात्रों की जगह मंच पर जाकर अभिनय करूॅ और इनको बतलाऊॅ कि रामचरितमानस की चैपाइयों पर  अर्थाभिनय किस रूप में  किया जाता है ? 1980-81के आसपास का वह समय आ ही गया जब कि अपने गाॅव की रामलीला में मुझे इसके सबसे बड़े खलनायक लंकाधिपति रावण का अभिनय करना पड़ा । आज तक मैं इस परम्परा से जुड़़ा हुआ हॅूं। ’सीता हरण ‘ के दिन की रामलीला में मुझे आज भी ’ ’रावण‘ की भूमिका अदा करनी पड़ती है। तो इस तरह कहीं  एक आलोचक का भावोदय मेरे चेतन -अचेतन में हुआ , जो सव्यसाची और विजेंद्र जी जैसे साहित्यकारों का सान्निध्य पाकर इस रूप में प्रस्फुटित हुआ ।
मैं जब तक बॅूदी के राजकीय महाविद्यालय में 1975से 1979 तक हिंदी का अध्यापक रहा , उस समय कोटा में सव्यसाची के संपर्क में आया । इससे मेरा दिषा परिवर्तन हुआ । अपने षोध प्रबंध के संदर्भ में  डा0 रामविलास षर्मा और हरिषंकर परसाई के साहित्य के अध्ययन से मैंने जाना कि साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की पारम्परिक दिषा बहुत सीमित और संकीर्ण चेतना वाली है। अपने ग्रामीण परिवेष और निम्नवर्गीय जीवनानुभव मेरी जिंदगी का हिस्सा थे। जीवन में भूख -प्यास , धूल-धक्कड़ , मेहनत और धूप का रिष्ता कैसा होता है ,इससे मैं अच्छी तरह वाकिफ था। इसलिए इन लोगों की बातें समझने में मुझे देर न लगी । 
मैंने 1960 से 1963 तक भरतपुर में हायर सेकण्डरी की षिक्षा प्राप्त की । उस समय विजंेद्र जी भरतपुर आ चुके थे । लेकिन मेरा उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ था। मैं भरतपुर में रहकर जिस परिवार में रहकर पढ़ा ,उस परिवार में एक सदस्य की जिल्दसाजी की दुकान थी ।इसी दुकान पर विजेंद्र द्वारा संपादित ’कृति ओर ‘ की जिल्द बॅधने आती थी । यह षायद 1977-78 की बात होगी ,जब ’ओर‘ में प्रकाषित नयी कविताओं  की मैंने आलोचना की कि इनमें क्या रखा है? कुछ आड़े -तिरछे नीरस वाक्यों में कविता कैसे संभव है? वह तो छंद में ही होनी चाहिए ।यहीं से विजेंद्र जी  से मेरा संपर्क हुआ ,जिन्होंने मेरे भीतर के आलोचक को निंरतर प्रोत्साहित किया। हम दोनेां भरतपुर में घूमघूमकर काव्य चर्चा में मषगूल रहने लगे । बॅूदी से मेरा तबादला गंगापुर सिटी हो गया ,जो मेरे गाॅव से अपेक्षाकृत नजदीक था। उस समय भरतपुर के रास्ते से ,मैं अपने गाॅव अवकाषों में जाता रहता था। तब विजेंद्र जी से लगातार पत्राचार होता था। विजेंद्र जी के पत्र इतने मार्मिक और प्रोत्साहित करने वाले होते थे कि निरंतर मिलकर बातें करने की इच्छा बनी रहती थी । भरतपुर में अक्सर वे अपने पास रोककर पक्षी अभयारण्य घना में घुमाने ले जाते थे ,जहाॅ हम दोनों पूरे-पूरे दिन पक्षियों की किलोल -क्रीड़ा ,कलरव ,वृक्षावलि और झील के पानी को देख-देखकर रोमांचित होते थे।विजेंद्र की कविता के कुछ स्रोत इसी जमीन में थे। यही से उनकी कविता के कई पक्ष मेरे मन में उद्घाटित होने लगे थे। लिखने का काम तेा मेरा पहले भी चलता था , लेकिन अब मुझे दुनिया के रिष्तों केा जानने -समझने की एक व्यापक एवं वैज्ञानिक दृष्टि मिल गई थी । मेरा मन काल माक्र्स की विचारधारा में रमने लगा था। मेरे मन की अनेक उलझनें सुलझ गई थी और मुझे जैसे एक रास्ता मिल गया था। इसी के चलते मुझे आलोचना लेखन उतना ही महत्वपूर्ण लगा , जितना कि कविता -कहानी लेखन । 
मुझे याद है कि 1980में जब जबलपुर में आयोजित होने वाले प्रगतिषील लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में हम गये तो विजेंद्र जी ने आगरा में मुझे एक चष्मा खरीदवाया , क्योंकि मेरी नजदीक की बीनाई कमजोर होने लगी थी । साथ ही एक प्रकाषन से आचार्य षुक्ल की ’रस मीमांसा‘ खरीदवाई । आगरा के रेलवे स्टेषन के प्लेटफार्म पर ट्रेन के आने का इंतजार करते हुए हम दोनोें ने ’ रस मीमांसा ‘ से जबलपुर में नर्मदा नदी के भेड़ाघाट का जिक्र बहुत पुलकित भाव से पढ़ा । हम षायद पहली बार उस जबलपुर में जा रहे थे , जिसमें हरिषंकर परसाई और ज्ञानरंजन रहते हैं। हम दोनों रात्रि में भेड़ाघाट भी देखने गये । प्रसंग बहुत लम्बा हो रहा है , लेकिन आपने विस्तार से मेरी आलोचना-यात्रा के बारे में पूछा है , इसलिए यह सब बतला रहा हॅू। इसी प्रक्रिया में साहित्य और समाज दोनोें के प्रति मेरे मन में  ं दायित्व भाव पैदा हुआ  और मैंने आलोचना में वह रास्ता पकड़ा , जो देष के किसानों -श्रमिकों के जीवन से होकर जाता है और जिसमें ठेठ जिंदगी का ठाठ है। 
मैंने ऐसी आलोचनाएं भी लिखी ,जिनसे आज के कद्दावर समझे जाने वाले लोग मुझसे नाराज हुए , यद्यपि मेरी आलोचना का दायरा उतना बड़ा नहीं रहा । वह सीमित प्रचार -प्रसार की आलोचना है। इससे यह भी प्रचारित किया गया कि मैं आलोचना में केवल भत्र्सना करता हॅू। अभी ’वसुधा ‘के 73वें अंक में एक बातचीत में कविवर नरेष सक्सेना ने यही स्थापित करने की कोषिष की है।  दरअसल , मेरा विरोध कविता में मध्यवर्गीय सीमित सरोकारों , नीरसता , षिल्प-प्राधान्य और आधुनिकतावादी तथा उत्तर आधुनिकतावादी नजरिये से है। मैं क्या करूॅ , जीवन और समय के प्रति मेरी समझ ही यह है, और यह हमारी बड़ी और महान काव्य-परम्पराओं का भी संदेष है। कालिदास तक के राजतांत्रिक समय में भी , जो जीवनमूल्य और मार्मिकता ,तपोवन की जिंदगी में हैं ,वह राजाओं के वैभव सम्पन्न किंतु छल-कपट और द्वेषपूर्ण जीवन में कहाॅं ? आखिर ,कविता जीवनमूल्यों की खोज और रचना का नाम भी तो है। वह उस कोरे बाहरी अर्थ और संबंधों की जटिलता के यथार्थ के बावजूद एक ऐसी संरचना है, जिसमें अंधकार की क्रूर षक्तियों के समक्ष आत्मबल और नैतिकता की प्रकाषमान संस्कृति का अंतस्स्रोत निरंतर प्रवाहित रहता है। इस बात में मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि अपने समय की भौतिक -सामाजिक संरचनात्मक प्रगति और विकास को स्वीकार करके ही , उसके विकल्पों को ढॅूढा जा सकता है। यह काम कविता में पूरी तथ्यात्मकता और वस्तुगतता के साथ मुक्तिबोध करते हैं। इस मामले में रघुवीर सहाय , कुॅवर नारायण ,श्रीकांत वर्मा , विजयदेव नारायण साही ,केदारनाथ सिंह आदि कवियों का पता तो चलता है लेकिन उस जनषक्ति का नहीं ,जिसके श्रम और संस्कृति से हर युग सॅवरता है। कवि का काम उस अदृष्य को उद्घाटित करना भी होता है ,जो बाहरी वास्तविकताओं के आवरण से ढक दिया जाता है। जिसके ऊपर वर्चस्ववादी ताकतोें का कब्जा होने से असलियत सामने नहीं आ पाती।
केव तिवारी - आपने कविता को ही अपनी आलोचना के केंद्र में क्यों रखा ?
डाॅ0 जीवन सिंह- पहली बात तो यह है कि हमारी काव्यपरम्परा सबसे ज्यादा दीर्घ और समृद्ध है । वह हमारी जिंदगी का पूरा इतिहास है । दूसरे , जीवन के जितने विविध रूप और संवेदनात्मक स्तर कविता के भीतर समा सकते हैं ,उतने किसी अन्य काव्यरूप में षायद ही समा पाएँ। तीसरे , कविता मनुष्य की भावदषा से सबसे ज्यादा समीप रहती आई है । यह जीवन का भावयोग है। जब भावयोग में कमजोरी आती है तो समाज में हिंसा और अविवेक बढ़ता है। कविता मेरे लिए जीवन की भाव-साधना है। आज की दुनिया में समृद्धि होेते हुए भी इसी भाव-साधना की कमी है। चैथे , कला के जितने सूक्ष्म स्तर कविता में रहते हैं और भाषिक प्रयोग के जितने रूप कविता में देखने को मिलते हैं ,उतने अन्यत्र  षायद ही मिलें। जैसे हाथी के पावँ में सबका पाँव होता है ,वैसे ही कविता में गति रखने वाला , साहित्यमात्र में अपनी गति बना सकता है। वह हमारी स्मृति में समाई रहती है। 
महेश  चंद्र पुनेठा -आलोचना का जनता के प्रति क्या उत्तरदायित्व है ? हिंदी आलोचना इस उत्तरदायित्व को पूरा करने में कहाॅं तक खरी उतरी है?
डा0 जीवन सिंह - आपने बहुत अच्छा सवाल किया है । आलोचना और आलोचनेत्तर विधाओं का जनता के प्रति उत्तरदायित्व एक जैसा ही होता है। तुलसी की एक चैपाइ्र्र में इसका जवाब है- ’’कीरति भनिति भूति भलि सोई।सुरसरि सम सब कह हित होई ।‘‘ लेकिन पाठक इसका अपनी वर्गीय स्थिति के अनुसार अर्थ लगाते हैं। इसका कारण है कि एक वर्गीय समाज में सबके हित एक जैसे नहीं हेा सकते । यह सर्वोदय भाव सुनने में बहुत अच्छा लगता है, व्यावहारिक जीवन में इसे साधना कठिन ही  नहीं ,असंभव है । पीड़ित और पीड़क के हित एक साथ कैसे सध सकते हैं। जब तक आप पीड़क के विरुद्ध व्यवस्था न बनाएं। उसके विरुद्ध संघर्ष न करें। उसे सीमा मेें न बाॅधें , उस खुले घोड़े के लगाम या दाॅवरी न लगाएं ,तब तक पीड़ित को राहत नहीं मिल सकती । या कहें कि उसके श्रम का पूरा फल उसे प्राप्त नहीं हो सकता । उसके  श्रम का सरप्लस का भोग पॅूजी के मालिक करते हैं।जैसे स्वाधीनता आंदोलन में ब्रिटिष सत्ता के विरुद्ध संघर्ष कर स्वाधीनता हासिल की गई ।उसी तरह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उत्पीड़कों और षोषकों के विरुद्ध संघर्ष चलाकर , श्रमिक -किसान वर्ग को स्वाधीनता हासिल होना जरूरी कार्यभार है । आज हमारे देष में लोकतांत्रिक व्यवस्था है अवष्य ,लेकिन उसकी व्यवस्था और संरचना पॅूजीपति वर्ग के हित की ओर झुकी हुई है। इसलिए ब्रिटिष सत्ता से स्वाधीनता मिल जाने के बाद भी स्वधीनता और समता जैसे जीवन-मूल्यों का काम आज भी आधा-अधूरा है। इसे पूरा करने की सतत जरूरत हैै। आलोचना चिंतन और चेतना के स्तर पर इन द्वंद्वो के सही रूप को उजागर करती है।इसलिए उसे मुक्तिबोध ने ’सभ्यता समीक्षा ’ कहा ।
आलोचना किसी थीसिस का एंटीथीसिस और सिंथेसिस भी है। वह उस थीसिस की परीक्षा करती है, जो स्थापित है। स्थापित चीजें वस्तुसंगत और मानवीय न्याय की दृष्टि से ठीक नहीं है ,तो वह उनका एंटथीसिस बनाती है। इस प्रक्रिया में वह अपने समय के वैज्ञानिका दर्षन ,समाजषास्त्र अर्थषास्त्र ,इतिहास और राजनीति का अध्ययन कर , मानवीय भावबोध के स्तर पर उनका एक निचोड़ निकालती है, जिससे अपने समय के मूल्यगत निष्कर्षों को प्राप्त किया जा सके । इसलिए आलोचक को समग्र ज्ञानात्मक और अनुभवों के संजाल में रहकर अपना निर्णय करना पड़ता है। अब केवल साहित्यषास्त्रीय (पुरातन ) निर्णय का जमाना नहीं रहा ,जबकि रस , अलंकार ,ध्वनि ,वक्रोक्ति देखकर साहित्य के निर्णय कर लिया करते थे। अब आलोचक की जितनी  भागीदारी साहित्य में होती है ,उतनी ही अपने समय के जीवन में  भी । जीवन में भी उन निम्नवर्गीय अनुभवों में , जिससे आलोचक की संवेदनषीलता को  किसी तरह के ग्रहण लगने का खतरा न हो । 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी -आलोचना में इस दायित्व से मुख नहीं मोड़ा गया है। आज आलोचना का सारा ढाॅचा ,जनोन्मुखी है। प्रगतिषील और जनवादी आंदोलनों की इस काम में उल्लेखनीय क्या , केंद्रीय भूमिका रही है। यह अलग बात है कि जितना काम इस दिषा में होना चाहिए था ,उतना नहीं हुआ । हिंदी के समकालीन और आधुनिक साहित्य की चेतना से हिंदी -समाज का बहुत थोड़ा सा हिस्सा की प्रभावित हुआ है।इसका कारण आज की राजनीतिक -आर्थिक -सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था है।जो बाजारवाद के प्रभाव में आ चुकी हैे । इसमें साहित्य की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह है। हमारे राजनेताअेंा में महात्मा गाॅधी की तरह ,किसी भी राजनीतिक दल के नेता का सांस्कृतिक बोध ऊॅचे स्तर का नहीं है । वहाॅ राजनीति का गोरखधंधा जाति ,संप्रदाय ,क्षेत्र ,भाषा , गोत्र , धन एवं वंषवाद से चल रहा है। समाज का नैतिक बल आज जितना क्षीण हुआ है ,उतना पहले के समयों में नहीं ।  
      
 महेश  चंद्र पुनेठा -हिंदी साहित्य में आज वरिष्ठ पीढ़ी के  बहुत कम रचनाकार ऐसे होंगे जो मौजूदा आलोचना की स्थिति से संतुष्ट होंगे ,जिससे भी पूछो वह आलोचना-कर्म में पक्षपात का आरोप लगाता है। आप इस स्थिति के लिए आलोचकों केा जिम्मेदार मानते हैं या यह रचनाकारों का स्वयं को जरूरत से ज्यादा आॅंकना है ? या फिर वास्तव में हिंदी आलोलना गुटबंदी ,हदबंदी ,चकबंदी और व्यक्तिगत आग्रहों -पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है?
डा0 जीवन सिंह -आपके इन प्रष्नों मेें सत्यांष तो है , पूरा सत्य नहीं । इससे एक तो यह लगता है कि जैसे आलोचना कर्म ,साहित्य की समस्त  विधाओं का नेतृत्व कर्म है । जैसे राजनेताओं के प्रति जनता की अनेक माॅगों और जरूरतों का उल्लेख किया जाता है ,वैसे ही आलोचकों से भी साहित्यकार की यह माॅग रहती है कि वह उनकी रचना का उचित मूल्यांकन करे। जबकि वास्तविकता यह है कि महान रचनाओं से ही आलोचना भी बड़ी बनती है। आचार्य षुक्ल के समक्ष यदि भक्तिकालीन साहित्य नहीं होता तो रीतकालीन जैसी कविता के बल पर , साहित्य के उन महत्वपूर्ण सिद्धांतों का निर्वचन षायद ही हो पाता ,जो आचार्य षुक्ल ने किया ।दूसरे, नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की भी इस मामले में बहुत  बड़ी भूमिका रही कि व्यक्ति, का नैतिक विचलन न हो पाया । महात्मा गाॅधी के नेतृत्व ने स्वाधीनता आंदोलन को आत्मबल और नैतिक षक्ति प्रदान की ,जिसकी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरत होती है। साहित्य ही में नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में बिना आत्मबल और नैतिक ताकत के महत्वपूर्ण और बुनियादी काम नहीं हो सकते । चॅॅूकि आज जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक विचलन नजर आता है, इसलिए इस समय रचना और आलोचना के बीच बेहतर रिष्ते न बन पाना ,इसका कारण हो सकता है । जीवनानुभवों की हदबंदी से भी ऐसा होता है। पिछले दो दषकों में वर्ग वैषम्य बहुत तेजी से बढ़ा है । आज के साहित्य में भी वह साफ नजर आ रहा है। आज के ज्यादातर रचनाकार महानगरीय और षहरी मध्यवर्गीय मानासिकता और जीवन -षैली की गिरफ्त में हैं। इस कारण आलोचना के प्रतिमानों के निर्धारण में भी उसी का बोलबाला रहा। पत्र-पत्रिकाआंे और अन्य सुविधाओं पर उच्चवर्ग के साथ मध्यवर्ग का सहभागितापूर्ण नियंत्रण  है। इससे उन रचनाकारों की उपेक्षा होती है ,जो आज भी देष की सामान्य किसान-जन और मजदूरों की श्रम-संस्कृति एवं दर्षन के साथ हैं। ऐसा आजादी मिलने के बाद से ही हुआ है। अपने समय में जब निराला जी ’नये पत्ते ‘  की रचनाओं के साथ आए ,तो डा0 रामविलास षर्मा तक ने उनकी उतनी प्रषंसा नहीं की ,जितनी ’राम की षक्ति पूजा‘,‘ सरोज स्मृति ‘, और ’तुलसीदास ‘ की । बाद मेें अज्ञेय ,रघुवीर सहाय ,विजयदेव नारायण साही ,श्रीकांत वर्मा ,कुॅवर नारायण को जिस तरह नये प्रतिमानों के  केंद्रीय चर्चा में लाया गया ,उतना नागार्जुन , त्रिलोचन ,केदार व मुक्तिबोध की कविता को नहीं । मुक्तिबोध का नामजाप तो खूब हुआ ,लेकिन उन्हें सही और वस्तुसंगत परिप्रेक्ष्य नक्सलबाड़ी आंदोलन के वातावरण में ही हासिल हुआ। इसी तरह आगे की पीढ़ियों के प्रति बर्ताव रहा । इसका कारण मैं तो रचनाकारों की मध्यवर्गीय मानसिकता को मानता हॅू , जिसका निर्माण करने में केवल  आलोचक की हिस्सेदारी ही नहीं होती वरन रचनाकार भी अपनी आलोचनाओं ,स्थापानाओं और सुख -सुविधाओं से ऐसा करते हैं। जिन रचनाकारों के पास सत्ता अैार पॅूजी की षक्ति होती है ,वे पानी को अपनी ओर मोड़ लेते हैं। सत्ता और पॅूजी की प्रभुता पाकर किसे मद नहीं होता ।मुझे तो बाबा तुलसी याद आ रहे हैं-’’नहिं कोउ अस जनमा जग माॅही । प्रभुता पाहि जाहि मद नाहीं। ‘‘ यह दरअसल प्रभुता और लघुता के बीच का संघर्ष भी है। इसलिए मैं तो कहॅूगा कि ’कुछ लोहा खोटा ,कुछ लुहार खोटा ।‘
महे चंद्र पुनेठा -हिंदी आलोचना बहुत कम पढ़ी जाती है। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जाती है कि आलोचना की भाषा नीरस, ऊबाउ ,जीवनबोध से रिक्त ,संघर्षविहीन तथा आलोचना के भारी भरकम षब्दों से भरी रहती है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? यदि हाॅ ,तो इसके पीछे कौन से कारण देखते हैं?
डा0 जीवन सिंह - वस्तुतः , बहुत कम पाठक होने की वास्तविकता ,आज साहित्यमात्र के साथ है। गंभीर पाठकों का टोटा सभी विधाओं में है। जिस रफ्तार से से आज व्यावसायिक विषयों का पठन-पाठन हो रहा है,उस रफ्तार से साहित्य ,संस्कृति और कलाओं से संबंधित विषयों का नहीं । चॅूकि ,आपने आलोचना और वह भी हिंदी-आलोचना से संबंधित सवाल पूछा है तो मैं यह कहना चाहता हॅू कि हिंदी आलोचना, कविता ,कहानी ,उपन्यास की तुलना में न केवल बहुत कम पढ़ी जाती है वरन बहुत कम लिखी भी जाती है। आज कविता ,कहानी की पत्रिकाएं तो ढेरों हैं ,आलोचना की स्वाधीन पत्रिकाएं कितनी-सी हैं ? कविता, कहानी की पत्रिकाओं में जो आलोचनाएॅ प्रकाषित होती हैं ,उनमेें भी हल्की और  अखबारी तर्ज पर लिखी रिब्यू ज्यादा हैं । जिनको पत्रिका में सबसे अंत में जगह मिलती है। उनको षायद ही गम्भीरता से लिया जाता हो। इसका कारण है ’ रिव्यू‘ का प्रचारतंत्री प्रकृति का होना। इससे खराब और बेस्वाद आलोचना को प्रोत्हासन मिलता है। आपने देखा होगा कि जो लोग किताबों की ’ रिव्यू’ लिखने की वजह से ,’आलोचक‘ की ’ख्याति‘ पा गए , उनको गंभीर आलोचक माना ही नहीं गया।  
आपने आलोचना न पढ़े जाने की  जो वजहें बतलाई है , वह अपनी जगह सही है। लेकिन , इसमें अर्द्धसत्य है। आलोचना-लेखन , मेरी दृष्टि में चुनौतीपूर्ण कर्म होता है , जिसमें सचाई को अनावृत्त करना पड़ता है। आचार्य रामचंद्र षुल्क की तरह साफगोई से कहना पड़ता है कि ’’ केषव को कवि हृदय नहीं मिला था । एक कवि में जैसी सहृदयता और भावुकता होनी चाहिए , वह केषव में नहीं थी ।‘‘ कविता ,कहानी में इस तरह किसी अन्य के बारे में नहीं कहा जाता । इन विधाओं में असली बात ,रूपकों ,बिंबों ,प्रतीकों , अन्योक्तियों और व्यंजानाओं में ढकी रहती है। कबीर , मीरा और नागार्जुन की तरह कितने -से कवि होते हैं। जो सीधे लक्ष्य पर वार करते हैं। आलोचक को लक्ष्य पर सीधे निषाना साधना पड़ता है। जो आलोचक ऐसा नहीं कर पाते ,वे आलोचना में झूठ का प्रवाद पर्व रचते हैं और उसे नीरस ,उबाउ एवं संदेहास्पद बनाते हैं। इसलिए एक काल में जितने कवि-कहानीकार हुए, उतने आलोचक नहीं। आचार्य रामचंद्र षुक्ल के बाद आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी , डा0 रामविलास षर्मा और डा0 नामवर सिंह के नाम ही उॅगलियों पर आते हैं। इनमें भी आचार्य रामचंद्र षुक्ल जैसी आलोचकीय सृजनात्मकता ,मौलिकता और समग्रता अभी तक षायद ही दूसरा कोई आलोचक अर्जित कर पाया हो। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का काम भी महत्वपूर्ण है, लेकिन वे समग्रतः आलोचक नहीं हो पाते । इसका कारण है आलोचक का अनेक परम्पराओं ,खास तौर से अपनी जातीयपरम्पराओं का गंभीर ज्ञान और अध्ययन होना बल्कि उनमें सामान्य जन और लोकानुभवों के प्रति सतत संवेदनषील बने रहना । आचार्य रामचंद्र षुक्ल को स्वाधीनता आंदोलन के बीच मौका मिला था कि वे अपने आलोचकीय व्यक्तित्व की निर्मिति कर सके । वे हमारे यहाॅ अलवर के तत्कालीन नरेष जय सिंह के आमंत्रण पर राजसी ठाठ-बाट की सुविधाओं और बड़ी पगार पर आये थे , लेकिन उनका मन दरबारी माहौल में ज्यादा दिन नहंीं रम सका । उनका आलोचक यहाॅ इतना मुखर हुआ कि कुछ समय के बाद ही वे अपने अल्प वेतन और सामान्य सुविधाओं वाली जिंदगी में वापस काषी चले गये । आज का आलोचक ऐसा कहाॅ कर पाता है? वह तो सेठाश्रित अखबारों में उॅचे वेतन की नौकरी पा लेने को अपना  फख्र मानता है। जैसे बड़ी रचना का संबंध बड़े त्याग और विस्तृत जीवनानुभवों से होता है। वैसे ही आलोचना और आलोचक का भी ।
महेश  चंद्र पुनेठा - हिंदी आलोचना ने भारतीय आलोचना-परम्परा को कितना आत्मसात  किया है ?क्या हम पाष्चात्य आलोचना परम्परा से अलग अपनी कोई आलोचना-परम्परा विकसित कर पाने में सफल हो पाए हैं ? यह आलोचना कितनी जनोन्मुखी है?
डा0 जीवन सिंह - जहाॅं तक भारतीय आलोचना -परम्परा का सवाल है ,इसकी हिंदी में षुरूआत ही इसी से हुई है। जैसा कि मैंने पहले कहा है कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की परिस्थितियों में हिंदी का आधुनिक साहित्य निर्मित हुआ। स्वाधीनता आंदोलन के संधर्ष का कंेंद्र बिंदु ,ब्रिटिष साम्राज्यवाद और उपनिवेषवाद के विरूद्ध था । उस समय आत्मबल को जगाने और बढ़ाने के लिए स्वजातीय परम्पराओं को आत्मसात करना एक जरूरत भी थी । इसलिए सभी विधाओं में साम्राज्यवाद के विरुद्ध वातावरण बना हुआ था और कविता , कहानी ,उपन्यास ,नाटक ,निबंध ,आलोचना आदि सभी क्षेत्रों में भारतीयता को सृजित किया जा रहा था । कविता  में छायावाद उसका उत्कर्ष था। कहानी उपन्यास में प्रेमचंद और आलोचना में आचार्य रामचंद्र षुक्ल। यहाॅ कोई किसी से उन्नीस नहीं है । प्रतिभा और सर्जना के उद्यान में अनेक रंगों के फूल पूर्ण प्रस्फुटित है। आचार्य रामचंद्र्रषुक्ल की आलोचकीय प्रतिभा को द्वं्रद्वात्मकता का बल प्राप्त है। भारतीय परम्परा में जो आधुनिक जीवनमूल्यों की दृष्टि से वरेण्य है ,वे उसकी मुक्त कंठ से प्रषंसा ही नहीं करते ,वरन् दृढ़ता के साथ उसकी स्थापना भी करते हैं और पष्चिम की आलोचना-परम्परा का जो स्वस्थ प्रदाय है,उसको वह अपनाते हैं। जो आधी अधूरी और व्यक्तिवादी-कलावादी मानसिकता से प्रेरित है ,उसका वे दृढ़ता से विरोध करते हैं। आप जानते हैं कि आचार्य षुक्ल ने  भारतीय ’रस सिद्धांत ‘ की नयी मीमांसा कर उसे आधुनिक समय के अनुकूल बनाया और ’सहृदयता एवं भावुकता ‘ के सिद्धांत को निष्कर्षित कर ’ हिंदी साहित्य का इतिहास ‘लिखा। इतिहास लिखना सबसे मुष्किल काम है। आज तक भी षुक्ल जी का इतिहास ही हमारे लिए प्रमाण बना हुआ है ।कुछ उलटफेर भी हुए हैं तो उसी के स्वरूप को आधार मानकर । इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उनकी सीमाएं नहीं हैं। वे भी एक व्यक्ति थे ,उनकी भी अपनी पसंदगी और नापसंदगी थी , लेकिन उनकी खास बात उनका आत्मबल और नैतिक दृढ़ता है। उसमें षायद की कहीं विचलन दिखाई देता है। 
आचार्य षुक्ल द्वारा निर्मित बुनियाद पर ही हमारी आलोचना-परम्परा का भवन निर्मित हो सकता है, जो हुआ भी है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अलावा डा0 रामविलास षर्मा ने यह काम किया है। डा0 नामवर सिंह भी जनोन्मुखी आलोचना-परम्परा के हिमायती हैं। व्यक्तिवादी और कलावादी आलोचना भी इसके समानांतर अपने हाथ-पैर मारती रही है। लेकिन आमतौर पर जनोन्मुखी आलोचना को ही सामान्य पाठक ने स्वीकार किया है । आज आलोचकों में ज्यादातर प्रतिष्ठित कार्य डा0 विष्वनाथ त्रिपाठी ,चंद्रबली सिंह ,डा0. षिवकुमार मिश्र ,डा0 मैनेजर पाण्डेय , कुॅवरपाल सिंह आदि का है, जो जनोन्मुखी आलोचना का ही प्रमाण है। रचनाकारों में मुक्तिबोध की आलोचनाएॅ इसका प्रमाण हैं। 
महेश  चंद्र पुनेठा- सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोपीय देषों में साम्यवादी व्यवस्था के समाप्त होने के बाद कुछ आलोचकों ने कहना षुरू कर दिया है कि अब माक्र्सवाद की मूलभूत स्थापनाओं मेें भी कुछ संषोधनों की जरूरत है । साहित्य-चिंतन में इसका प्रभाव इस रूप में पड़ा है कि अब लेखकों के सामने एक संभव आदर्ष राजव्यवस्था का सपना टूट गया है, जो समतावादी समाज से जुड़ा हुआ था। आलोचना में साहित्य का प्रतिमान जो अब तक था कि कृतियों की परख वर्गहीन समाज के प्रति क्रांतिकारी चेतना की अभिव्यक्ति के आधार पर किया जाए , उसमें संषोधन आवष्यक हो गया है। क्या आप भी ऐसी जरूरत महसूस करते हैं? करते हैं तो क्यों ?
डा0 जीवन सिंह - जिन आलोचकों ने माक्र्सवाद की मूलभूत स्थापनाओं में संषोधन करने की बात कही है ,उन्होंने कदाचित इस विचारधारा की व्यावहारिक राजनीति के एक प्रयोग के विफल हो जाने मात्र से ऐसा कह दिया है। सोवियत समाज का प्रयोग लगभग पिचहत्तर वर्षें तक चला और उसके सुपरिणाम दुनिया ने देखे । उस समाज ने यह बतलाने का प्रयास किया कि समाज का ऐसी स्वाधीनता की जरूरत है , जिसका आधार समता और आपसी भाईचारा हो। इस प्रयोग को व्यवहार में लाना कितना कठिन है ,यह अपने और यूरोप-अमरीका के पूॅजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की असलियत देखकर जान सकते हैं। यदि पॅूजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएॅं ही न्यायसंगत विकल्प होती तो समाजवादी विकल्प की जरूरत ही क्या थी ? समस्या यह है कि पॅूजीवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्थाएं जिस तरह अपनी और दूसरे देषों के समाजों के षोषण -उत्पीड़न पर टिकी हुई हैं और पॅूजीवादी समाजों में वर्ग -वैषम्य की वजह से कमजोर तबकों  के संग जो अन्याय और उत्पीड़न होता है ,उसको कैसे रोका जा सकता है तथा जीवन में सामूहिकता और सहकारिता की प्रक्रिया अपनाकर सबको सुखी कैसे बनाया जा सकता है ? इसका वस्तुसंगत रास्ता दिखलाने  वाली विचारधारा ,आज तक यदि कोई है तो वह माक्र्सवाद ही है , जो अतिरिक्त मूल्य के सच को उद्घाटित करती है और समाज से वर्गाीय संरचना के खात्मे के लिए निजी सम्पत्ति के सिद्धांत और व्यक्तिवादिता पर अंकुष लगाती है ।यदि किसी विचारधारा की मूलभूत स्थापनाओं में संषोधन किया जाता है तो वह उसका कोई नया रूप होगा । हम जानते हैं कि इस विचारधारा का एक प्रयोग विफल हुआ है , जो इस बात का प्रमाण है कि उसके व्यवहार में कमियाॅ रही हैं ।हम देखते हैं कि सोवियत संघ में जो प्रयोग किया गया ,उसमें सैन्य और अर्थव्यवस्था के परिवर्तन पर जितना बल दिया ,उतना संस्कृति -परिवर्तन पर नहीं । यदि वहाॅ समाजवादी व्यवस्था की नयी संस्कृति बनती और ताकतवर होती तो वहाॅ सत्ता का केंद्रीयकरण नहीं हो पाता । सत्ता का जहाॅ भी केंद्रीकरण  होगा वहीं सोवियत समाज जैसी गलतियाॅ होंगी और कम्युनिस्ट पार्टी मेें ऐसे सदस्य आ जाएंगे , जो सत्ता का उपभोग करने के उद्देष्य से आते हैं , न कि जनहित के उद्देष्य से ।इसलिए माक्र्सवादी विचारधारा के अनुरूप राजनीतिक -सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने वाले अनेक तरह के प्रयोग करने की आवष्यकता है। किसी एक प्रयोग को आदर्ष मानकर चलने मात्र से काम नहीं चल सकता । पॅूजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के भी दुनिया में कई रूप हैं। उनका आज जो विकसित रूप  देखने को मिल रहा है , वह उनकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं का परिणाम है। बीसवीं सदी में यूरोप के देषों का जब साम्राज्यवादी विस्तार हुआ, तभी वे विकसित देषों की श्रेणी मेें आए। आज अमरीका की साम्राज्यवादी नीतियाॅ पूरी दुनियां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उसे अपना बाजार बनाने में लगी हुई हैं। उसका सबसे बड़ा और एकाधिकारी बाजार सैन्य साजोसामान का बाजार है, जो इस बात का संकेत है कि दुनिया में युद्ध होते रहें और उसका सैन्य उद्योग फलीभूत होता रहे। समाजवादी व्यवस्था में ऐसा संभव नहीं हो पाता , इस वजह से वह आर्थिक दृष्टि से पीछे रहता दिखाई दे सकता है। पॅूजीवादी व्यवस्थाओं मेें हर व्यक्ति अपनी चिंता करता है, इसलिए इस तरह के समाजों में स्वार्थ -भावना का चरमोत्कर्ष और अलगाव , हिंसा , छल-कपट , बेईमानी , भ्रष्टाचार ,हत्या , आत्महत्या का ग्राफ बहुत ऊॅचा रहता है ,जबकि समाजवादी व्यवस्था में ऐसा बहुत कम हो पाता है। यहाॅ समाज में अलगाव और अजनबीपन का भाव समाप्त हो जाता है । इसलिए एक प्रयोग के विफल हो जाने से निराष हो जाने की जरूरत नहीं । मनुष्य की हजारों वर्षों की सभ्यता यात्रा इसी मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं है। इसे बहुत आगे जाना है । जब आगे जाएगी तो अपने नये-नये विकल्प भी तलाषेगी । उन विकल्पों को तलाषने में माक्र्सवादी विचारधारा की भूमिका अहम् होगी मेरा ऐसा विष्वास है। तुलसी बाबा ने विजय रथ के दो पहिए बतलाए हैं - एक षौर्य , दूसरा धैर्य । ’’सौरज धीरज तेहि चाका ।‘‘ जिसने धैर्य खो दिया ,वह सच्चा षूरवीर नहीं हो सकता । जरूरत इस बात की है कि हमको इस समय जो ऐतिहासिक भूमिका करने को मिली हुई है , उसको करते रहंे। संषोधन की जरूरत है आचरण और व्यवस्था के स्तर पर , न कि माक्र्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों के स्तर पर। आचरण के मामले में हमारे देष में महात्मा गाॅधी का उदाहरण है। हम उनसे भी सीख सकते हैं।  

5 comments:

  1. bhaut kuchh seekhne aur samajhne ko mila hai is aalekh se.....

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  2. बहुत अच्छा लिखा हैं. मेरे विचार से सही कविता वही हैं जो किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह के बिना मानव व मन की पीड़ा को सशक्त ढंग से पाठको को जोड़े.
    रामकिशोर उपाध्याय

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  3. बहुत साढ़े हुए प्रश्न पूछे हैं महेश जी.. इससे विषय अपनी सम्पूर्णता के साथ विस्तार पाया है और हमारे जैसे पाठकों का बहुत भला हुआ है.. ये साक्षात्कार पुन्ह पढ़ने योग्य है.. आपने इसे ब्लॉग में डालकर बहुत अच्छा किया.. आभार.

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  4. कृपया सधे हुए प्रश्न पढ़ा जाए ***

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  5. बहुत अच्छा लगा ,शुक्रिया -----जीवन सिंह

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