विजेंद्र कविता में हो या गद्य में अपने आप को बराबर सामथ्र्य के साथ अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार हैं। लोक के प्रति गहरी प्रतिबद्धता उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की खास विशेषता है। वे उन गिने-चुने रचनाकारों में हैं जिनकी भारतीय और पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र में बराबर की पैठ है।वे अपनी रचनाओं में पूरी द्वंद्वात्मकता के साथ अपनी परम्परा का अवगाहन करते हैं।उनके यहाॅ परम्परा किसी देश और काल की सीमा में नहीं बॅधी रहती है। ऐसा करते हुए वे किसी पूर्वाग्रह ,भावुकता या अपने के प्रति अनावश्यक मोह के शिकार भी नहीं होते। परम्परा को लेकर उनका दृष्टिकोण ’ सार-सार को गहे रहै थोथा देय उड़ाय‘ वाला है। वे पूरी वस्तुनिष्ठता के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विषयों का विष्लेषण करते हैं।उनके यहाॅ दृष्टि की गहराई और जीवन की व्यापकता है ।जहाॅ भी उन्हें लोक के हित की चीजें मिलती हैं उसे ग्रहण करते जाते हैं तथा वाक्छल को उद्घाटित करते हुए उसके द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम को दूर करते हैं। यहाँ उनसे हुई बातचीत के अंश प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है।
महेश चंद्र पुनेठा -विजेंद्र जी ,सबसे पहले मैं आपके प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानना चाहता हूं ,विस्तार से बताइए ।
विजेंद्र- तुमने सबसे पहले मेरे प्रारंभिक जीवन के बारे मंे जानना चाहा है ।मैं दरअसल ,उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से गांव धर्मपुर में एक खेतीहर सामंत परिवार में जन्मा हूं। जब से होश संभाला तो पाया कि सामंतवाद ढहने को है । स्वतं़त्रता के लिए जनता संघर्ष कर रही है। मैं उस समय आजादी के महत्व को न तो जानता था । न इस को जानने में मेरी कोई रूचि थी । पर चारों तरफ जो हो रहा था -होने को था-उसकी अनुंगूंजें मेरा अचेतन मन जरूर पकड़ता रहा होगा । हां ,जन्मा 1935,में । यही तिथि मेरे प्रमाण पत्रों में दर्ज है। हो सकता है सही उम्र कुछ और रही हो कुछ बातें बचपन की मेरे दिमाग पर आज भी ताजा अंकित है ।एक तो गांव की उत्पीड़ित जनता पर होते जमीदारोे के अत्याचार । और आजादी की हवा के साथ जनता का दबी जुबान से प्रतिरोध । सामंतों की क्रूरता मैंने अपनी आंखों से देखी । उसे देख कर में दुखी भी हुआ । यह बात मैंने धरती कामधेनु से प्यारी की लंबी कविता ,अधबौराया आम में जहां तहां कही है -एक सच्चे चरित्र रमदिल्ला के द्वारा । सामंती वातावरण का जिक्ऱ ऋतु का पहला फूल की एक दूसरी लंबी कविता ,दिन का राजा में भी है। यह प्रभाव आज मेरे मन पर छाया हुआ है । आज भी आजाद भारत में जब दलितोे ,आदिवासियों और गांव के गरीबों पर अत्याचार होते है तो मुझे अपना बचपन याद आता है। पर आज प्रतिराध ज्यादा है ।
मेरा गाॅव गंगा जमुना के दोआब का धड़कता दिल है। आम,अमरूद और जामुनों के घने बगीचों से घिरा हुआ। हमारे यहाॅं मागरा बहुत ज्यादा खिलता था। धर के आगे सदा बहार तालाब। यह तालाब बरसात में गंगा से एकमेक होता। जल,फल, और गंध बचपन से ही मेरे मन पर छाये रहे हैं। आज भी मेरी कविताओं में उनके बिंब आते हैं। एक कवि को अपना बचपन कभी भूलना नहीं चाहिये। वह यथार्थ के बहुत करीब होता है। बचपन में गेहूं, जौं,मटर, चना और सरसों के भरे,लहलहाते खेतों में धूमना और सूर्याेदय और सूर्यास्त देखना मुझे बहुत
अच्छा लगता था। ये बिंब भी मेरी कविताओं में बराबर आते हें। मेरे पिता को अच्छे बैल,अरबी घोड़े और जंगल में शिकार खेलने का बहुत शैक था। उनके साथ मैं भी गंगा के खादर में खूब घूमा हूं।शिकारी कुते ग्रेहाउण्ड साथ रहते थे।
मेरी पढा्रई शुरू में घर पर ही हुई।अरबी फारसी के विदान मौलवी रफीक अहमद मुझे उर्दु और गणित की तालीम देते थे।मै पढ़ने-लिखने में होशियार न होने के वजह से बडी़ उब महसूस करता। मेरे पिता का इरादा भी नहीं नहीं था कि मैं आगे पढूं। पर किसी तरह गाॅव के स्कूल से चैथा दर्जा पास कर लिया । बाद
से चैथा दर्जा पास कर लिया। बाद मैं मेरी माॅ ने मुझे जोर देकर अंग्रेजी स्कूल में उझियानी भेज दिया । यहां मेरा दिमाग एकदम जैसे बदल गया हो । मुझे अंगे्रजी भाषा पढने की दिलचस्पी बढ़ी। जब खूब मेहनत की तो हर बार अपनी कक्षा में अव्वल आता रहा । उझियानी से सातवीं कक्षा पास करने के बाद आठवीं में खुरजा आ गया । यहां पास में मेरी बड़ी बहन थी । उनके यहां भी सबको शिकार खेलने का शौक था । तो मुझे यहां भी जंगलों में जमुना के खादर में खूब घूमने का मौका मिलता रहा । यहां से दसवीं करके में उच्च शिक्षा के लिये काशी हिंदू विश्वविद्यालय चला गया। खुरजा जब था तब मुझे माक्र्सवाद की शिक्षा मिली । हमारे गुरू बने प्रज्ञाचक्षु श्री भूप गिरि जी । वह मुझे अंगे्रजी कम माक्र्सवाद ज्यादा पढ़ाते थे । शुरू मैं न तो उधर मेरी कोई रूचि थी। न मैं उसे समझता था। पर लगातार उनके कहने सुनने से मेरा ध्यान उधर जाने लगा। बनारस में नई कविता की हवा थी । केदारनाथ सिंह नई कविता और अज्ञेय के अनुयायियों में प्रमुख थे । डा0 रामदरश मिश्र , डा0 नामवर सिंह ,और डा0शिवप्रसाद सिंह ने मुझे कक्षा में पढाया है। इन सबसे गोष्ठियों में भी भेंट होती थी । उस समय आज के प्रतिष्ठित कवि विष्णुचंद्र शर्मा कवि नाम की पत्रिका निकालने को बेचैन थे ।उनसे बराबर कविता ,कवि कर्म और समाज के अन्य सरोकारों पर बातचीत होती । यहीं मेरा संपर्क प्रख्यात कवि त्रिलोचन से हुआ। वह मेरे हर तरह से काव्य गुरू बने । उनके गहरे और लंबे सानिघ्य ने मुझे कविता और कवि कर्म के प्रति जो अटूट निष्ठा का भाव दिया वह आज मेरी ताकत है ।मुझे कविता और कवि कर्म बहुत ही कठिन और दायित्वपूर्ण कर्म है। उसे पूरा करने के लिये बड़े त्याग और बड़े श्रम की जरूरत है। दूसरे , कवि कर्म की तैयारी के लिए हमें हर समय सजग रहना चाहिए।तीसरे , मुझे अपने क्लैसिक्स बहुत अच्छी तरह समझने होंगे। बहरहाल ,बनारस में रहकर मैं ने कविता रचने को अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य बनाया। पहली कविता वहीं 1956में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ज्ञानोदय में छपी । वहीं मैं ने कवि कर्म को अबाधित बनाये रखने के लिये अंग्रेजी का प्रध्यापक बनने का निश्चय किया। जितना समय , स्वायात्तता , जीवन से नजदीकी और स्वाध्याय यहां संभव है महेश चंद्र पुनेठा-‘आप त्रिलोचन जी के काफी करीब रहे उनके बारे में कुछ बताइए ।
विजेंद्र- जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि कवि त्रिलोचन का मुझे बहुत गहरा सान्निध्य मिला वह मन मिजाज और आचरण से कवि हैं। वे अपने क्लैसिक्स को अत्यंत गहराई से जानते समझते हैं। काव्य मर्मज्ञ हैं। कई भाषायें बेहतर तरीके से जानते है। छंद का अदभुत ज्ञान है। मैं ने उन्हें इश्तहारों पर लिखे वाक्यों में छंद खोजते देखा सुना है। जीवनानुभव और व्यापक अध्ययन पर वह सदा जोर देते हैं।उनका मानना हैकि भाषा हम आम आदमी के संर्पक से ही सीख सकते हैं। दूसरे , हमें अपनी बोलियों से अपनी खड़ी बोली को सम्द्ध करते रहना चाहिए। हम अपनी जडें़ कभी न छोडें़। विश्वसाहित्य से सीखें । पर अपने यहां के जीवन को व्यक्त करने के लिए हमें अपनी परम्परा से सीखते रहना चाहिए।उनकी चर्चा में वेद ,वाल्मीकि ,कालिदास ,भवभूति ,तुलसी ,रवीन्द्र ,निराला आदि की उपस्थिति जरूर रहती । जब वे बातचीत करते हैं तो बहुत ज्यादा विषयांतर होते हैं। उनके साथ रहने का अर्थ हैसिर्फ उनको सुनते रहना । जैसा मेरा अनुभव हैवह दूसरे को बोलने का अवसर बहुत कम देते हैं। अतः त्रिलोचन को झेलने के लिए बड़ा धैर्य ,संयम और ज्ञान पिपासा को सतत बनाये रखना जरूरी है। इसमें ही लाभ हैा सुनने की यातना को यदि किसी ने सह लिया तो उसे लाभ ही लाभ है। क्योंकि त्रिलोचन चाहे कितना ही विषय बदलें उनकी बातों में कवि मन को सम्द्ध,जाग्रत , और सिस्क्ष बनाये रखने के लिए बेहद खनिज मिलता है।
महेश चंद्र पुनेठा- उनकी कविता एवं व्यक्तित्व का प्रभाव आपकी रचनात्मकता पर किस रूप में देखा जा सकता है?
विजेंद्र -दरअसल, त्रिलोचन के व्यक्तित्व का सबसे ज्यादा असर मेरे उपर इस बात का हैकि मैं कविता और कवि कर्म को जीवन की तरह ही पूरी गंभीरता से स्वीकार करूं। उसकी तैयारी के लिए कठिन श्रम और सतत प्रयास जरूरी है। दूसरे ,मैं अपने जनपद ,अपनी धरती , अपने आसपास की प्रक्ति ,सामान्य मनुष्य संघर्ष और क्रिया कलापों को बहुत नजदीक से देखूं ।कविता में संरचनात्मक अनुशासन और काव्य लय का महत्व उनसे जाना और सीखा है। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक गहराई से बात कहना मुझे आना चाहिए।कवि को गद्य पढ़ना चाहिए । उससे ज्यादा जहां तक हो लिखना चाहिए । कवि कर्म आकस्मिक नहीं है। वह हमें रात -दिन लगे रहने को विवश करता है। उसके लिए बड़ा तप और त्याग मुझे करने होगें। बहुत सी चीजें छोड़नी पड़ सकती है। मुझे एक अच्छे नागरिक की तरह अपने सामाजिक आचरण पर भी ध्यान रखना होगा । ये बातें उनसे और उन्हीं के धारा के अन्य कवियों से मैं ने सीखी और जानी है। उसका मुझे अहसास है।
महेश चंद्र पुनेठा- आप की दृढ मान्यता है कि एक अच्छा कवि एक अच्छा इंसान भी होता है। क्या इसका मतलब यह माना जाय कि कवि की कविताओं को उसके व्यक्तित्व से अलग करके नहीं देखा जा सकता है?
विजेंद्र -किसी कवि की कविताओं को कैसे देखें इसके लिए अलग अलग प्रतिमान है। जैसा कि मैं ने कहा कुछ लोग कविता और कवि व्यक्तित्व को अलग करके देखते हैं। बल्कि कहें कुछ तो ऐसे हैं जो कविता का रिश्ता जीवन और समाज से मानते ही नहीं । उन्हें लगता है, कविता उनकी कोई अंदरूनी निजी चीज है ।कवि किसी समाज या जन के लिए उत्तदायी होकर नहीे लिखता ।अपितु वह तो अपने आत्म संतोष को ही लिखता है। पर यह बात मैं नहीे मानता । कविता बहुत कुछ कवि व्यक्तित्व का ही कलात्मक प्रतिबिंब है। पर कवि उसे रूपांतरित करके निजी नहीें रहने देता। यही उसका स्जन है। कहना होगा कि व्यक्तित्व का ऐसा पुनर्सजन जो समाज में निजी होकर प्रतिनिधि बन जाये ।
महेश चंद्र पुनेठा-प्रगतिशील कविता को लेकर अक्सर कहा जाता है कि उसमें वस्तुगत प्रव्त्तियां इतनी हावी थी कि उनके कारण कला और भाववोध की उपेक्षा हुई ,इस तर्क से आप कहां तक सहमत हैं?
विजेंद्र - प्रगतिशील कविता में कला और शिल्प का ध्यान उतना नहीं रखा गया -यह आरोप कुछ खास तरह की कविताओं पर तो लगाया जा सकता है। पर ऐसी कविताओं की भी उस समय जरूरत पड़ती है जब देश में जनांदोलन तेज हो रहे हों। संघर्ष तीखा हो । तो कई बार हम कविता की बारिकियों को त्याग कर उसे एक हथियार के रूप में प्रयुक्त करने को प्रेरित होते हैं। ऐसी कविताओं को परखने के प्रतिमान भी अलग होने चाहिए । कई बड़े और समर्थ कवि बड़े जातीय संकट के समय जनता के पक्ष में कविता लिखना तक स्थगित कर देते हैं। निराला ने बहुत सारा गद्य लिख कर जनता के संघर्ष को आगे बढ़ाया । अंगे्रजी कवि मिल्टन ने नृपतंत्र के विरोध में संसद का समर्थन किया । लगभग बीस साल तक उन्होंने गद्य ही लिखा । वह सब राजनीतिक लड़ाई को आगे बढाने वाला गद्य है। आज हम उसे क्लासिक की तरह स्वीकार करते हैं। आज के अनेक जनवादी कवि गद्य लिख कर राजनीतिक सामाजिक हस्तक्षेप कर रहे हैैैं। कवि को गद्य लिखने के लिए -खास तौर पर राजनीति में हस्तक्षेप करने को वैचारिक गद्य लिखने पर बड़े जोखिम उठाने पड़ते हैं। उनकी कविता स्थगित होती है। दूसरे, उन्हें सत्ता और सत्ता पोषित लेखकों से सीधी टक्कर लेनी पड़ती है। कविता में यह खतरा कम है। अतः चालाक और चतुरसुजान कवि गद्य न लिखने के कई बहाने इसी लिए खोज लेते हैं कि वे वैचारिक और पक्षधरता के स्तर पर कहीं पकड़े न जायें । एक बड़े और समर्थ कवि के लिए गद्य उसकी कविता का पूरक होता है। पहले की बात छोड़ें । उस समय गद्य का अस्तित्व ही कहां था। तुलसी वे सब बातें कविता में ही कहते हैंजो सामाजिक हस्तक्षेप के लिए उन्हें गद्य में कहनी चाहिए थी । कबीर ,मीरा और सूर सब यही करते हैं।
महेश चंद्र पुनेठा-21वीं सदी को उपन्यास की सदी घोषित किया जा रहा है तथा कविता की सामाजिक भूमिका को नकारा जा रहा है ऐसे में 21वीं में सदी में आप कविता के समक्ष कौन कौन सी चुनौतियां देखते हैं और आज की कविता इन चुनौतियों का मुकाबला करने में कितनी समक्ष है?ेे
विजेंद्र-21वीं सदी उपान्यास की सदी या कविता की सदी घोषित की गई है या नहीं यह तो मुझे ध्यान नहीं । पर ऐसे शगूफे वे लोग खिलाते रहते है जिन्हें न तो कविता से ,न उपन्यास से कोई खास दिलचस्पी है। जैसे राजेंद्र यादव कहते कि हिंदी में कुछ लिखा ही नहीं जा रहा। या कुछ कहते हैं कविता का अंत हो गया ।विचारधारा का अंत हो गया है। ये बातें ध्यानकर्षण प्रस्ताव जैसी है। साहित्य की सभी विधायें महत्वपूर्ण हैं। जरूरी हैं। कौन किसको निभा पाता है । यह बात लेखकों के श्रम और प्रतिभा पर निर्भर है। कविता और उपन्यास दोनों ही सामाजिक यथार्थ को कहते हैंेेे।पर दोनों की शैली अलग है। कविता में जो बात दो पंक्तियों में कही जा सकती है वह उपन्यास ,हो सकता है, एक अध्याय में कहे । इसका उलट भी हो सकता है।हम कविता की सामाजिक भूमिका को चाहे कितना ही नकारें पर यदि अपने समय , अपनी धरती और जड़ों से जुड़ी कविता है तो उसकी सामाजिक भूमिका होगी ही। चुनौतियां कविता के सामने ही नहीं है अपितु गंभीर और रचानात्मक साहित्य के सामने भी बड़ी कठिन चुनौतियां है। बल्कि ेेेहर गंभीर रचना कर्म के सामने वे है।आज सारा समाज उपभोग की लालसाओं और मनोरेजन की इच्छाओं को लेकर ही जी रहा है। कविता इन दोनों का वैपरीत्य है- एक प्रकार से । वह न तो बाजारू मनोरंजन करा सकती है। न हमारी उपभोग की लालसाओं को त्प्त कर सकती है। वह एक नये सुसंस्कृत ,उन्नत और चेतन शील मनुष्य का सृजन करती है। उसे बड़े लक्ष्यों के लिए जीना सिखाती है। हमारा जातीय चरित्र निर्मित करती है। क्या हमारा आज का समाज उक्त बातों को अर्जित करने के लिए उत्सुक है? यह बहुत बड़ा सवाल है। कहते हैं जिस देश या जाति का लगाव कविता अैार कला से नहीं रहता वह बर्बरता की ओर बढ़ते हैं। क्या भारत में आज वही समय नहीं है? आज सबसे कम जगह कविता को ही है। वह चाहे मीडिया हो । चाहे हमारा सामाजिक जीवन । चाहे हमारी आंतरिक मांग । हम देखते हैं सस्ते मनोरंजन पर करोड़ांे रूपये पानी की तरह बहा दिये ेेेेेेजाते हैं। पर अच्छी कविता की किताब खरीदने को किसी की इच्छा नहीं होती । हमारे यहां मध्यवर्र्गीय लोगों के घर विलासिता के सामान से अटे पड़े हैं। पर उनके यहां अच्छी पुस्तकों के लिए कोई जगह नहीं है। खिलाड़ियों ,निशाने वाजों , जादूगरों , ज्योतिषियों और सटटेवाजों की बड़ी कद्र है। संगीतकार और चित्रकार भी पर्याप्त धन कमा लेते है। वे लगभग बाजारू हो चुके हैं। पर एक गंभीर कवि जीवन भर अभावों में जीने को अभिशप्त है। जो कविता से सिर्फ पैसा कमाते हैं वे कवि चारण हैं । या हंसोड़ । पर क्या कारण है कि कविता के प्रति ही यह पूंजी केंद्रित समाज इतना अन्यमनस्क हुआ है। यह एक सवाल है। इस पर सोचना चाहिये। मुझे लगता है
कि पूंजी केंद्रित समाज में सत्ता को लिखित शब्द से ही सबसे ज्यादा खतरा है। क्योकि शब्द
सीधे यथार्थ से जुड़ा है। एक यथार्थ परक कविता सदा यथास्थिति को भंग करने के सूत्र देती है। वह हमारा मन बदलती है। शेष कलाओं में अपेक्षाकृत समाज को बदलने की सीधी-सीधी
बात बमुत कम हो पाती है। संगीत में तो कतई नहीं। यही वजह है कि हर पूंजी केंद्रित समाज
में सबसे ज्यादा खतरा। क्योंकि शब्द सीधा वार सत्ता पर करता है। आजकी कविता इन चुनौतियां का अपने स्तर पर सामना कर पा रही है पर सामना कर पा रही है। पर अधिकांश कविता इन चुनौतियों का अपने स्तर पर सामना कर पा रही है। पर अधिकांश कविता में प्रतिरोध की ताकत कम हुई है। वह आज भी मध्यवर्ग के इधर उधर घूम रही हैैैै। फिर भी हमारे पास निराला,मुक्तिबोध,केदार बाबू,त्रिलोचन,और शील आदि की बड़ी लोकधर्मी परंपरा है।
इस कविता परंपरा को विकसित करने वाले कवि सब में आज की कठिन चुनौतियांे का सामना कर रहे हैं । भले ही वे अखबारों में रोज न छपते हों । पर उन्होंने जनपक्षधर और सत्ता विरोध की काव्य परंपरा को ढंग से विकसित किया हैंे।
महेश चंद्र पुनेठा- समकालीन कविता को नई कविता से आप किस रूप मंे अलग देखते हैं क्या इसमें कोई स्पष्ट विभाजक रेखा खींची जा सकती है?
विजेंद्र-नई कविता जब अपने कथ्य में आत्मनिष्ठ और अनुभवों में सीमित होने लगी तो हमें सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने के लिए समकालीन कविता नाम चलाना पड़ा । यह सातवें दशक के आसपास हुआ पर इसमें यदि विभाजक रेखा कोई खींची जाती सकती है तो वह है सामाजिक यथार्थ की कहन पर जोर जो नई कविता नहीं कर पाई है। यह एक प्रकार से कविता को आत्मनिष्ठाता के घेर से बाहर निकालने की कोशिश थीै।यह जरूरी था कि कपिता को हम व्यापक सामाजिक यथार्थ व्यक्त करने का माध्यम बनायें।वह हुआ भी । बहुत सफल हुआ। आज कोई अनजान या अपढ़ हिंदी का प्राध्यापक ही नई कविता और समकालीन कविता को गडडमडड करता देखा सुना जाता है।पर आज समकालीन शब्द भी वैसे ही अपना रंग और अर्थ खोता जा रहा है जैसे भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद ।यह कैसी विडंबना
विजेंद्र - मैं अपने है। समकालीन सही अर्थों में कौन है?इस पर आज पुनः विचार करने की जरूरत है जिस से आम पाठकों में कविता के बारे में भ्रम फैले। आज हालात यह हैकि मध्यकाल की संवेदना से लिखने वाला भी अपने करे समकालीन कहता है। यहां ध्यान रहे कि समकालीनता ठीक आधुनिकता की तरह एकदम काल सापेक्ष होते हुये भी विश्वदृष्टि से इसका गहरा संबंध है। कवियों की हर समय श्रेणियां होती है। उनके वर्ग स्तर होते हैं। जो सत्ता पोषित कवि यथास्थिति के कायल हैं उन्हें यदि हम समकालीन कहें तो यह शब्द के अर्थ को विकृत करना है। आज लोकतंत्र में समकालीन वही है जो अपनी कविता में सर्वहारा के नेतृत्व का पक्षधर है। दूसरे जो कविता में सामान्य की प्रतिष्ठा कर एक नई जनवादी संस्कृति की रचना करना चाहता है।तीसरे यदि कोई कवि अपने समय की आंतरिक गतिकी को पकड़ कर अपना विजन व्यक्त करता हैवही समकालीन है। सौंदर्यशास्त्र की भाषा में यदि कहें तो एक समकालीन कवि वह है जो ऐतिहासिक विकास क्रम में मानव चेतना के अंतिम छोर पर खड़े होकर विश्व की कठिन चुनौतियों को झेल रहा है। आज जो राजभवनों में बैठ कर सत्ता धारियों और उनके अनुयायियों को हंसाते -लुभाते हैंअपनी कविता से वे किसी अर्थ में समकालीन नहीं हो सकते । एक समकालीन कवि अपने समय के सर्वहारा का पक्ष में अपने समाज का रूपांतरण चाहता है। उसे कविता में बताता है।
महेश चंद्र पुनेठा- कविता में कल्पना और अनुभव का सम्मिश्रण कितना और किस हद तक होना चाहिए?
विजेंद्र- कविता में प्रत्यक्ष और परोक्ष जीवनानुभव बुनियादी चीज है। हमारे अनुभवों के आधार पर ही हमारी कल्पना का रचनात्मक स्थापत्य खड़ा होता है। कल्पना हमारी विधायिनी शक्ति है। वह एक प्रकार से चिंतन प्रक्रिया ही है। फर्क है कि कल्पना का चिंतन बिंबों के सहारे होता है। उसी से हम काव्य रूपकों की खोज करते हैं । अनुभव विचार और कल्पना तीनों का सामानुपातिक संयोजन ही कवि को श्रेयस्कर हैं।ेे
महेश चंद्र पुनेठा-‘ कहा जाता है कि आज आलोचना कर्म में हदबंदी , गुटबंदी ,चकबंदी और व्यक्तिगत आग्रहों-पूर्वाग्रहों का बोलबाला है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
विजेंद्र - यह सही है कि आज आलोचना कर्म मे हदबंदी ,गुटबंदी ,चकबंदी और व्यक्तिगत आग्रह -पूर्वाग्रह बहुत ज्यादा है। वैसे हर समय होता है। आज इसलिए ज्यादा लगता है क्योंकि हमारे पास सूचना तंत्र बहुत ही व्यापक और मजबूत है। कोई भी बात कहीं घटित होती है हम तुरंत जान जाते हैं। मीडिया और प्रकाशन का जाल फेला हुआ है। कोई भी बात हो उसे बहुत ज्यादा प्रचारित कर दिया जाता है। पर फिर भी यह सच है कि आलोचना ने अपनी विश्वसनीयता खोई है। यह भी उस व्यवस्था का ही दुष्परिणाम हैजहां हर सार्थक चीज को निरर्थक बना दिया जाता है। यह उसी मूल्यहीनता की विकृति हैजो पूॅंजी केंद्रित व्यवस्था से हमें विरासत मंे मिली है।ेेेेेेेहमें हर जगह निजी लाभ चाहिए । और तत्काल चाहिए ।उसके लिए चाहे साधन कितने ही बुरे अपनाने पड़ें। ऐसा आज की राजनीति में तो हैही साहित्य में भी है।हम मे ंसे अधिसंख्यक जीवन मूल्यों को नहीं अपितु उपभोग्य वस्तुओं की लालसाओं को जीते -मरते है।आलोचना आज लेन देन का विषय हो गई । वह प्रायोजित है। साधन संपन्न मामूली और मझौले लेखक रातों रात बड़े कवि बन कर अखबारों की सुर्खियों में छाजाते हैं।ेेेेेेेेेजो अटूट साधना कर रहे हैं उन्हें हाशिए में धकेल दिया जाता है। सारा परिदृश्य इसी तरह के प्रदूषण से आक्रांत है। यहां तक कि आलोचक स्वयं यह कहने लगे हैं कि आलोचना अपना धर्म नहीं निभा पा रही है। वह लाभ हानि को देख कर लिखी जा रही है। एक तरह वहां मूल्य निर्णय न होकर वहां प्रायाजित निर्णय लिये जाते है। यही कारण है कि आज कवि और आलोचक दोनों की औसत आयु बहुत कम हो चुकी है। दोनों का समाज में सम्मान भी गिरा है। हम में न तो धैर्य है । न बड़ा त्याग । न अटूट साधना । हमने अपनी परंपरा को भी भुलाया है। कुछ तो अज्ञान से । कुछ अहंकार से कि उसमें सीखने को क्या है।ेे
महेश चंद्र पुनेठा-कविता के नए प्रतिमान को लेकर आपकी अनेक असहमतियां रहीं हैं। उस पर कुछ प्रकाश डालिए?
विजेंद्र- कविता के जो नए प्रतिमान रचे गए उनका सबसे बड़ा अंतर्विरोध है कि कृतियां यहां की और प्रतिमान अमरीका के। यानी देसी घोड़ी,चाल विलायती।दूसरे,जिन कविताओं को नए प्रतिमानों के लिए चुना गया वे हमारी जातीय कविता की मुख्य धारा के कवि नहीं हैं। फिर वे इतने भरोसेमंद कवि भी नहीें हंै कि उनके प्रतिमानों को माॅडल मान लिया जाए।अगर कविता के नए प्रतिमान रचे जाते समय,मान लो,बहुत भरोसेमंद कवि उपलब्ध नहीं थे,तो अपने पूर्ववर्ती कवियों में से चयन किया जा सकता था। आचार्य शुक्ल जब कविता के अघोषित प्रतिमान रच रहे थे तो उन्होंनेे अपने समय से बड़े कवियों-निराला,पंत,महादेवी और जयशंकर प्रसाद को केंद्र में न रख बहुत पहले के कवियों-तुलसी,सूर,जायसी को लिया पर जो प्रतिमान उन्होंने रचे-या उन्होंने जिन कवियों को या कृति को जो मान स्थान दिया-उसे आज तक कोई छीन नहीं पाया। कबीर के बारे में एक अपवाद हो सकता है पर कबीर पर उन्होंने कुछ ऐसा कहा ही नहीं जो उसे प्रतिमान के साथ रखा जा सके।यह उनकी सीमा हो सकती है।
महेश चन्द्र पुनेठा-हमारी आलोचना के अधिकांश बीज शब्द यूरोप के सौंदर्यशाष्त्र से लिए गए हैं क्या हमारी परंपरा इस संबंध में कमजोर?आप इसे कहाॅ तक ठीक मानते हैं?
विजेंद्र-इस में संदेह नहीं कि हमारी हिंदी आलोचना में अधिकांश बीज शब्द यूरोप के समीक्षा शास्त्र से लिए गए हैं। इसके मुख्य दो कारण हैं। एक तो अपनी काव्य और काव्यशाष्त्र की सुदीर्घ आंैर समृृद्ध परंपरा से विमुख होना। दूसरे,अपनी जातीयता से गहरे लगाव की कमीै। यही कारण है कि हम आज अंग्रंेजी भाषा की दासता से मुक्त नहीं हो पाये। हिंदी भाषा का
आज कितना सम्मान है यह बात किसी से छिपी नहीं।जब तक हम अपनी भाषा और जनपदीय बोलियों को बड़ा सम्मान नहीं देंगे हम अपनी भाषा में वैचारिक और रचनात्मक स्तर पर कोई बडा औैर मौलिक काम करने में समर्थ न होंगे। जिन लोगों ने हिंदी में कालजयी का कार्य किया है। वे वहीं हैं जिन्होंने हिंदी के लिए बडा त्याग किया है। हमारी परंपरा कमजोर नहीं है। अपितु हमने उसे अभी वैज्ञानिक ढंग से देखा परखा ही नहीं हैं। इस दृष्टि से आचार्य शुक्ल और डा0रामविलास शर्मा के कृतित्व से अनुमान लगा सकते हैं कि हमारी परंपरा कितनी समृद्ध और प्रासंगिक हैै।
महेश चन्द्र पुनेठा-कृति ओर के संपादक के रूप में आप काफी सफल रहे है।लेखक और पाठकों से आपका निरंतर संवाद बना रहता है। आप सम्पादन एवं लेखक कर्म के साथ इस के लिए समय कैसे निकालते हैं?
विजेंद्र- कृति ओर के संपादक के रूप में मेरा सफल होना तुम मानते हो। यह तुम्हारी सदाशयता है। दरियादिली कहूं पर में स्वयं को बहुत सफल नहीं मानता।हाॅ यह जरूर चाहता
रहा हॅू कि दूरदराज के लेखकों से सीधा संवाद करके उन्हें जनपक्षधरता की ओर मुड़ने को प्रेरित कर सकूं।वह भी यह कहकर कि वे अपने यहाॅं के आम आदमी वहाॅ की प्रकृति और आस-पास की घटनाओं को कलात्मक ढंग से अपनी कविता में प्रस्तुत करें। मुझे नहीें पता कितना इस में सफल हो पाया हूं। कृति ओर के माध्यम से हमने कुछ ऐतिहासिक गलतियों को,जो समीक्षा में हुई हैं अपनी तरह सुधारने का यत्न भी किया है उसका बड़ा विरोध हुआ।पर बहुत से लोगों ने जब सच्चाई को समझा तो हमारी हौंसला अफजाई भी की।कृति ओर हमारे लिए संघर्ष करने का माध्यम बन चुका है।
महेश चन्द्र पुनेठा- आप दूरस्थ जनपदों में बैठ रचना कर्म कर रहे लेखकों को सामने लाने के लिए विशेष रूप से प्रयासरत रहते हैं। वे हमेशा आपकी प्राथमिकताओं में बने रहते हैं। वो कौन से सरोकार हैं जो आपको इसके लिए निरंतर प्रेरित करते रहते हैं?
विजेंद्र-जैसा मैंने कहा कि जनपद के लेखक अपनी जड़ों, जनता और यथार्थ के बहुत नजदीक होते हैं। इसीलिए मैं उनसे संवाद बनाये रखना चाहता हूं। उन्हें कृति ओर में भी महत्व दिया गया है। तुम जानते हो। अनेक कवि सामने आये हैं। अनेक ने अपनी पहचान बनाई है। अब वे कितना उसे विकसित कर पाते हैं-यह उनके उपर है। यहाॅ एक बुरा अनुभव हुआ है। कुछ लेखकों ने जब कृति ओर से अपनी पहचान बना ली उसके बाद वे फिर उसी धारा में शरीक हो गये जिस पर उच्च वर्ग का वर्चस्व है।ऐसी अवसरवादिता लेखक की मौत के समान है। अपनी रचना और जमीर से छल करके कोई लेखक देर तक जिंदा नहीं रह सकता।वह अपना लेखन ही नहीें खोता अपितु व्यक्तित्व को भी विघटित करता है। राजनीति में ऐसे लोग बहुत हैं । ऐसे लेखकों के पास न तो कोई अपना बड़ा विजन होता है। न उनके बड़े सामाजिक सरोकार होते वे चाहते हैं समाज किसी तरह उन्हें लेखक मानता रहे । वह कभी नहीं होता । अखबारों में छपकर लेखक याद नहीं किया जाता। वह याद किया जाता है अपनी उन रचनाओ के लिए जो आगे पीछे आदमी के मन में रमी होती है।इसके लिए कोई समय सीमा नहीं हो सकती है। देखा गया है कि एक बड़ा लेखक अपने समय में न तो लोकप्रिय होता हैऔर न मूल्यांकित । शायद इसलिए कि वह आगे का कवि होता है। उसे बड़े धैर्य से प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह प्रतीक्षा क्यों न करे । उत्पीड़ित संघर्षशील जनता को सारे दुख और उत्पीड़न झेलकर अच्छे समय आने का इंतजार करना पड़ता है। एक दिन विजयी जनता का संघर्ष ही होता है। यह सच है। आज भी । कल भी । इसी लिएजो लेखक बड़ी सच्चाई और इमानदारी से जनता के संघर्ष से अपने को जोड़े रहते है वे अपनी रचना के लिए धैर्य रखते हैं। उन्हें प्रतिष्ठा और सत्ता द्वारा प्रायोजित पुरस्कारों की चाहत नहीं होती । वह उन्हें अपने रास्ते का रोड़ा समझता है। जिस जनता के हम पक्षधर हैं-यदि वह उपेक्षित है तो हमारी उपेक्षा हमारे लिए गौरव का विषय है।यही एक कवि की प्रतिबद्धता है जिसे उसे निभाना चाहिए । कृति ओर से इस विचार को लगातार हम अपने पाठकों तक ले जाना चाहते हैं। हमारी बहुत सीमाऐं हैं।पर यह करते रहें ,यह प्रबल इच्छा हमें चैन नहीं लेने देती। और यही मेरे सरोकार हैं जो कविता रचने को प्रेरित करते हैं।और कृति ओर का संपादन करने के लिए भी।
महेश चन्द्र पुनेठा-लघु पत्रिका आंदोलन को लेकर आपकी कुछ असहमतियां हैं,इस बारे में कुछ बताइये।फासीवाद,सामा्रज्यवाद तथा बाजारवाद के इस दौर में इन पत्रिकाओं की क्या भूमिका है?
इस भूमिका को प्रभावी बनाने के लिए कौनसे उपाय किए जाने चाहिए?
विजेंद्र- मैं लघु पत्रिका शब्द से सहमत नहीं हूं।यह शब्द ही गलत है जो गलत है उसका सही प्रभाव कैसे हो सकता है।सही शब्द है जनपक्षधर पत्रिका।जनतंत्र में हम यदि जनता के संघर्ष से जुड़े रहना चाहते हैं तोहमें अपने सरोकारों को बहुत साफ ढंग से पेश करना होगा। जनवादी मूल्यों को यदि ये पत्रिकाएं प्रतिष्ठित करने को वचन बद्ध हैतो उसके लिए उपयुक्त शब्द है जनपक्षधर। लघ्ुा शब्द दस संदर्भ में न केवल निरर्थक है अपितु बहुत ज्यादा भ्रामक भी।इस पर बहस करने को कोई तैयार नहीं। कुछ लोगों ने इस बात को स्वीकार किया है। मसलन सूत्र पत्रिका नेएक पूरा अंक जनपक्षधर पत्रिका के विचार को ही लेकर निकाला है। उसे लोगों ने सराहा । इसी तरह सही समझ पत्रिका भी जनपक्षधर नाम को सही मानती है। सर्वनाम भी। मैंने देखा कि इस पर लोग नए ढंग से सोचने को तैयार नहीं। ढर्रे से जीने के आदि हो चुके हैं। यदि नाम बदल दिया जाए तो जैसे आने वाली क्रंाति रक्त जायेगी।कई बार यह भी लगा कि ज्यादातर लोग आज गोल मोल भाषा बोलकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते। जनपक्षधर कहने से एकदम हम सत्ता से प्रतिरोध की मुद्रा में होते हैं। हमारे ज्यादातर संपादक-भले ही जनवादी हों मन और मिजाज से कुलीन मध्यवर्गीय आदतों से परेशान हैं। वे नहीं चाहते कि इतनी सीधी भाषा का इस्तेमाल किया जाये। अब पत्रिकाओं के निहित स्वार्थें भी हो गये हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन चाहिए। विदेशी दूतावासों में खरीद चाहिए। तो अनेक समझौते करने को हमें विवश होना पड़ रहा है।
इन पत्रिकाओं ने वैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाइ्र्र है। पर सामा्रज्यवाद ,फासीवाद से लड़ने को संस्कार और संवेदना वे पैदा नहीं कर पाई। बाजारवाद का प्रतिरोध हम तभी कर पाएंगे जब स्वयं उससे दूर रहे। आज अनेक तथाकथित लघु पत्रिकाएं बाजार के रंग में रंग चुकी हैं। उनके तेवर ढीले हैं।वे यूरोपीय आधुनिकतावाद लेखकों से घिरी हुई हैं। उन्हें अपनी परंपरा और जातीयता से कोई गहरा सरोकार नहीं दिखता। साम्राज्यवाद और फासीवाद का विरोध हम एक ऐसी विचारधरा के बल पर ही कर सकतेे हैंजो सर्वहारा के व्यवस्थित नेतृत्व में विश्वास करती हो।वह सिर्फ माक्र्सवाद ही है,जिसके नाम लेने मेें अब बहुत से जनवादी गुरेज करने लगे है।यदि उक्त खतरों सें कारगर ढंग से लडना है तो हमें पहले तो निहित स्वाथों की सीमाओं से उभर उठना होगा।दूसरे,हम मन से यह स्वीकार करें कि जनपक्षधर पत्रिकायंे सर्वहारा संस्कृति को निर्मित करने को एकजुट होगी।हम अपने अतीत की पुनव्र्याख्या कर अपनी परंपरा के प्रगतिशील तत्वों को आत्मसात करेंगे।बिना जनता के संघर्ष से जुड़े हम उक्त खतरों से नहीं लड़ सकते ।उनसे हमें दो स्तरों पर लड़ना होगा राजनीतिक स्तर पर सारी वाम शक्तियों को सारे मतभेद भुलाकर एक होना पड़ेगा। दूसरे,सांस्कृतिक स्तर पर लड़ने के लिए सभी जनपक्षधर पत्रिकाओं को सर्वहारा संस्कुति के सर्जन में लगाना होगा।यह कार्य बहुत कठिन जरूर है।पर इसे कर पाना असंभव नहीं। यदि हम इसे नहीं करेंगे तो कल संघर्षशील जनता जब चेतन होगी तो वह इसे करने को विवश होगी।
़